कसीदाकारी सुई से किसी भी वस्त्र पर किया गया अलंकरण 'कसीदा' है। इसे हिंदी में 'सुईकारी', 'कसीदाकारी', या 'सूचीकर्म' कहते हैं, गुजाराती में इसका नाम 'भरत' है तथा अंग्रेजी में 'एंब्रॉयडरी'।

कसीदे का प्रचार प्राय: तभी से हुआ होगा जब मनुष्य ने वस्त्र बनने की कला ढूँढ़ निकाली होगी। उसकी अलंकरणप्रिय प्रवृत्ति ने उसे बर्तन-भाँडों जैसे नित्य उपयोगी वस्तुओं की भाँति वस्त्रों पर भी कुछ सज्जा करने को प्रेरित किया होगा। रुचिभेद, स्थानभेद तथा स्तरेभेद के अनुसार तरहों और कसीदे के लिए प्रयुक्त वस्त्रों में भी भेद होता गया। ठंडे स्थानों के लोग मोटे अथवा ऊनी कपड़ों पर कसीदा करते हैं और गर्म स्थानों के लोग सूती वस्त्रों पर सूती अथवा रेशमी धागों से तथा संपन्न लोग रेशमी या मखमली कपड़ों पर रेशम और जरी का काम करते या करवाते हैं।

कसीदे का प्रचार सभी देशों में दीर्घकाल से रहा है। यूरोप, चीन, जापान, ईरान और मिस्र आदि सभी जगह कसीदे का कोई न कोई रूप अवश्य मिलता है। लेकिन सभी जगह कसीदे का उत्पत्तिकाल जानने का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है। पुरातत्ववेत्ताओं ने इस संबंध में जो खोज की है उससे प्राचीन वस्त्र मिले अवश्य हैं पर इनकी संख्या बहुत कम है। जलवायु के सहयोग से कुछ स्थानों के कसीदे दूसरे स्थानों से जरा अधिक दिन टिके रहे पर इनसे भी उन देशों के कसीदे का क्रमिक इतिहास पूर्ण रूप से सुलझ नहीं पाता। प्राचीन कसीदों के लुप्त हो जाने का एक विशेष कारण यह भी है कि कहीं भी हो, वस्त्रों को दीर्घकाल तक सुरक्षित रखना कठिन ही है, अधिकांश तो स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं। सूती वस्त्रों पर बने बहुत से कसीदे तो इसलिए नष्ट हुए कि कीमती न होने से उनकी सुरक्षा आवश्यक नहीं समझी गई, जरी आदिके कसीदों को फट जाने पर या अन्य कारणों से जलाकर सोना चाँदी निकाल ली गई।

भारत के अतिरिक्त स्लाव देशों, जर्मनी, फ्लैंडर्स (फ्लेमिश), इटली, फ्रांस, रूस, इंग्लैंड, चीन, जापान, ईरान और तुर्की के कसीदे विख्यात हैं। स्थानभेद से तथा विभिन्न कालों में इनकी शैलियाँ विभिन्न रहीं।

यूरोपे में स्लाव देशों के कसीदे सबसे प्राचीन, सुरुचिपूर्ण और रंग-बिरंगे हैं। यहाँ कट्टम के टाँकों के काम (क्रास स्टिच) तथा पंजाब की 'फलकारी', कर्नाटक की 'कसूती' और बिहार की 'दो मुहें' कसीदों से मिलता-जुलता 'स्ट्रेट स्टिच' काम ही अधिक मिलता है और सूती या ऊनी कपड़ों में सफेद, लाल और काला रंग प्रधान होता था पर अब रंग-बिरंगापन बढ़ गया है। डिजाइनों में विशेष परिवर्तन इतने दीर्घ काल में भी नहीं हुआ। ये डिजाइन अधिकतर ज्यामितिक होते हैं पर बीच-बीच में पशु पक्षियों की आकृतियाँ भी प्रयुक्त हुई हैं।

सारे यूरोप में अभी तक 'स्लाव' देशोंवाला उपर्युक्त कसीदा अन्य कसीदों के साथ अवश्य मिलता है।

लगभग १०वीं सदी के बाद से जर्मनी, स्पेन आदि यूरोपीय देशों में मनुष्य, पशु और पक्षियों की आकृतियुक्त,तथा फूल पत्तों के अलंकरण के सजे कसीदे मिलने शुरू हो जाते हैं। इनका पूर्वरूप क्या था, यह कहना कठिन है, पर लगता है, तब स्लाव देशों जैसा कसीदा ही सारे यूरोप में प्रचलित रहा होगा।

कालक्रम से कसीदे में प्रयुक्त टाँकों में भी विविधता बढ़ती गई। तभी जंजीर (चेन), मुरमुरे (सैटीन), तहरीर (स्टेम), रफूगरी (डार्निंग), कच्ची कढ़ाई (रनिंग स्टिच), काज (बटन होल), लपेटवाँ (इंटर्लाक) और मरोड़ीदार (नाटेड) आदि प्रमुख टाँकों का प्रयोग आरंभ हुआ।

प्रत्येक देश में कुछ टाँके विशेष प्रिय रहे हैं, जैसे चीन जापान में मुरमुरे और कच्ची कढ़ाई के टाँके, स्पेन में लपेटवाँ टाँके और इंग्लैंड में कट्टम के टाँके अधिक प्रचलित रहे। बात असल में यह है कि प्रत्येक देश की रुचि के अनुसार तरहें (डिज़ाइंस) भी भिन्न होती हैं और उन्हें साफ-साफ बनाने के लिए उचित टाँकों की मदद से ही काढ़ना पड़ता है।

जैसे चीनी और जपानी लोग बेलबूटों की तरहों के अतिरिक्त ऐसे कसीदे भी बनाते हैं जिनें दृश्य और पशु पक्षी आदि चित्रों की भाँति बनाए जो हैं। इनमें रूपरेखा को बड़ी सुघड़ाई से काढ़ा जाता है। यह कसीदा धीरे-धीरे पिछले १००-१५० वर्षों में सारे संसार में फैल गया और चीनी कसीदे के नाम सेही विख्यात है। इस प्रकार के कसीदे को वास्तव में चित्र ही मानना चाहिए। इसका प्रयोग भी दीवार पर टाँगने के लिए ही होता है।

सभी जगह कसीदों का अधिकतर प्रयोग रोजमर्रा इस्तेमाल में आनेवाले वस्त्रों में ही हुआ है। स्त्रियों की पोशाक, बच्चो के कपड़े, चादर, तकिया के गिलेफ और पर्दों के लिए ही अधिकांश कसीदे किए जाते हैं। इस श्रेणी के घरेलू कसीदे बनाने की विधि लड़कियाँ माँ से या पड़ोस की किसी स्त्री से सीखती थीं। अभी हाल तक प्राय: प्रत्येक माँ अपनी बेटी को अपने बनाए कसीदे युक्त वस्त्र विवाह के अवसर पर भेंट देती थी।

दूसरी तरह के कसीदे धार्मिक अथवा राजकीय प्रयोग की वस्तुओं पर किए जाते रहे हैं। धार्मिक स्थानों में प्रयुक्त पिछवई, वेदी ढकने के और देवताओं के पहनने के वस्त्र आदि पर कसीदे होते रहे हैं। इनका रूप नित्य प्रयोग के घरेलू कसीदों से भिन्न होता है क्योंकि या तो इनपर केवल बेलबूटों के अलंकरण होते हैं या धर्मविशेष के देवी देवताओं से संबंधित आख्यानादि का चित्रण उनपर होता है। भक्त जन स्वयं बनाकर या दूसरों से बनावाकर इन्हें धार्मिक स्थानों को भेंट देते हैं। इसी प्रकार राजाओं आदि के प्रयोग की वस्तुओं पर, जैसे चोगे, चँदोबे, मसनद, गद्दी, पंख और परदों वगैरह पर प्रतिष्ठा और रुचि के अनुरूप उनके ऐश्वर्य प्रदर्शन के लिए कारचोबी कसीदा किया जाता रहा है। यूरोप के धार्मिक कसीदों में फ़्लेमिश कसीदा १५वीं-१६वीं सदी में सबसे आगे था।

स्लाव और रूसी प्रदेशों के प्राचीन कसीदों की तरहों में अक्सर क्रास या ऐसे अन्य चिह्न बने मिलते हैं जिनका आशय सुरक्षा होता था। पत्नी अपने पति के वस्त्रों की सुरक्षा के लिए इसका ध्यान अवश्य रखती थी। नवीनतम खोजों में ऐसे अनेक प्रतीकों का रहस्य स्पष्ट होता जा रहा है।

अन्य देशों की भाँति भारतीय कसीदे का ठीक उत्पत्तिकाल जानने का हमारे पास कोई प्रामाणिक आधार नहीं है। हमारे पुरातत्ववेत्ताओं को अभी तक, मिस्र और चीनी तुर्किस्तान की भाँति १६वीं सदी से पुराने नमूने नहीं मिले हैं, लेकिन इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि भारत में कसीदा बड़े प्राचीन काल से ही बनता और रहा है।

भारतीय कसीदा-आज से चार हजार वर्ष पूर्व के मोहनजोदड़ों से प्राप्त एक मिट्टी के खिलौने पर अंकित वस्त्र को भली-भाँति देखने से लगता है कि वह कसीदा ही होगा। ऋग्वेद में हिरण्यपेशस् शब्द का जो प्रयोग हुआ है वह भी तत्कालीन कसीदाकारी की ओर ही संकेत करता है जिसमें सोने के तारों का उपयोग हुआ करता था। यदि ईसा से ६०० वर्ष पूर्व बौद्धकाल से व्यापार को देखें, तो विदित होगा कि महीन कपड़े, यंत्र, हथियार, किमखाब, कसीदे, कालीन, इत्र और हाथीदाँत की चीजें तथा सोना भारतीय व्यापार की मुख्य वस्तुएँ थीं। मेगस्थनीज़ (ल. ३२० ई.पू.) ने भी भारतीय सूत्री परिधानों का वर्णन करते हुए लिख है-'ये सोने के काम के होते हैं जिनमें नाना प्रकार के रत्नों का भी प्रयोग होता है।' गुप्तकाल में कालिदास और पीछे बाणभट्ट के साहित्य से भारतीय परिधानों के बारे में काफी जानकारी प्राप्त होती है।

मुगलकाल के चित्रों से भी कुछ कपड़ों पर बने कसीदों की जानकारी हमें मिलती हैं। भारतीय कारीगर बहुत से कसीदे १७वीं-१८वीं सदी में बाहर भेजते रहे। यूरापे और निकटवर्ती पूर्वी देशों को अनेक प्रकार के कसीदे यहाँ से जाते थे।

खानाबदोश जातियों ने इस कला का प्रसार विशेष रूप से किया। कसीदे को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाकर फैलाने का श्रेय इन्हीं को है। हमारी खेतिहर जातियों ने हमें सर्वश्रेष्ठ कसीदा दिया है। पंजाब की फुलकारी, सिंध, कच्छ और काठियावाड़ जंजीरे और शीशेदार काम तथा बंगाल के काँथे खेतिहर लोगों की देन हैं। लखनऊ की चिकनकारी तथा दिल्ली, बनारस, आगरा, सूरत और हैदराबाद का कारचोबी का काम संपन्न लोगों के लिए बनाया गया। इनमें दक्षता अधिक होती है, पर खेतिहर लोगों ने बनजारों के कसीदे में सरलता और सौंदर्य अधिक रहता है।

ऐतिहासिक, राजनीतिक तथा सामाजिक उथल-पुथल और विदेशी प्रभाव के कारण भारत में अनेक देशी विदेशी शैलियाँ हमें देखने को मिलती हैं। कश्मीरी 'मुरमुरे के टाँको का काम' चीनी काम से मिलता है जो शायद तिब्बत की राह यहाँ आया। पंजाब की फलकारी बलोचिस्तान के काम से मिलती है। सिंध, कच्छ और काठियावाड़ की लपेटवाँ शैली स्पेन और जर्मनी से ली हुई जान पड़ती है। चिकनकारी विलायती सूती कसीदों से मिलती है। कर्नाटक की 'कसूती' और बिहार का 'दो-मुहाँ' काम स्लाव देशों में मिलता-जुलता है। लेकिन भारतीय कसीदाकारों ने उन्हें ऐसे ढंग से अपना लिया है कि उनपर भारतीयता की छाप लग गई है। मुगलकाल से भारतीय कसीदों की विधि और तरहों में ईरानी असर बढ़ता गया।

भारतीय कसीदों के विभिन्न प्रांतीय रूप हैं : इनमें प्रमुख हैं :

१. कश्मीरी कसीदा-यहाँ के कसीदों में 'सोज़नकारी', 'गब्बा' और 'जंजीरे का काम' प्रसिद्ध है। 'सोज़नकारी' या 'रफूगारी टाँकों' से कश्मीरी लोग शाल दुशालों पर फूल पत्तियाँ, मनुष्य और पशु पक्षियों की आकृतियाँ बनाते हैं। यह काम बड़े सूक्ष्म टाँकों से किया जाता है। 'गब्बा' ऊनी रंग बिरंगी कतरनों को जोड़कर बनाया जाता है। आसन-बिछौने आदि पर यह काम होता है। जंजीरे के मोटे टाँकों से नम्दों पर अलंकरण किया जाता है और लाल दुशालों पर ऊनी या जरी के धागों से जंजरी के ही महीन टाँकों का काम होता है।

२. पंजाब की फलकारी-वैसे 'फुलकारी' का अर्थ है फूलदार या बेल बूटों का काम, पर पंजाब में सूती चादरों और ओढ़नों पर किए गए कसीदे को ही फुलकारी कहते हैं। जाट लोग ही यह काम अधिक करते हैं। कुसुंमी लाल या नीचे खद्दर पर रेशमी धागों से फुलकारी काढ़ी जाती है। काम हल्का भारी होने से, इनको तीन विभिन्न नामों से अभिहित किया जाता है : १. फुलकारी : इसमें बूटियाँ थोड़ी-थेड़ी दूर पर बनाई जाती हैं। २. बाग : इसमें पूरी जमीन ज्यामितिक नमूनों से भर दी जाती है और ३. चोप : इस काम को केवल किनारों पर ही किया जाता है।

३. कच्छी और काठियावड़ी कसीदा-इन दोनों स्थानों का कसीदा इतना एक सा दीखता है कि शीघ्र अलग-अलग पहचानना सरल नहीं। कच्छी कसीदे को 'कनबी' काम या 'भरत' कहते हैं। खेतिहर लोग (जिन्हें 'कनबी' कहते हैं) इस काम को ज्यादा करते हैं। भुज इसका प्रधान केंद्र है। आम तौर से कच्छी कसीदे में बहुत बारीक जंजीर के टाँकों का प्रयोग अधिक होता है जिनके बीच कभी-कभी शीशे भी जड़े रहते हैं। कच्छी कसीदा साटन, रेशमी या सूती कपड़े पर ही होता है। जमीन सफेद, केसरिया, काली या अधिकतर लाल होती है।

काठियावाड़ी कसीदे में मुरमुरे और जंजीर के टाँकों का प्रयोग तोरण,ओढ़ने, चोलियाँ, लहँगे और जानवरों की झूल आदि बनाने के लिए होता है। अच्छी काम की अपेक्षा यह काम मोटा होता है।

४. उत्तर प्रदेश की चिकनकारी-यह सफेद मलमल पर सफेद सूती धागे से की जाती है तथा लखनऊ, रामपुर और बनारस में अधिक होती है। तरहों में फूल पत्तियों की बूटियों का ही प्रयोग किया जाता है। इसमें तेपची (स्टम स्टिच), बखिया (बैक स्थ्चि), मुर्री या मरोड़ी (नाटेड) और जाली आदि टाँके बरते जाते हैं। उत्तर भारत की ग्रीष्म ऋतु के लिए यह है भी बहुत हलका-फूलका कसीदा। कुर्ते, टोपियाँ, कुरतियाँ और साड़ियाँ ही इस कसीदे से सजाई जाती हैं।

५. कर्नाटक की कसूती-'कसूती' शब्द का अर्थ कसीदा है। कर्नाटक में घर-घर 'कसूती' की जाती है। बेलगाँव, धारवाड़ और बीजापुर इसके केंद्र हैं। कसूती में अनेक रंगों का प्रयोग होता है। तरहों से पालना, नंदी, तुलसी का थाँवला, हाथी, हिरन, मोर, हंस और तोते आदि अधिक रहते हैं। गहरे रंग की जमीन पर ही इसे बनाया जाता है। कवंती (स्ट्रोक स्टिच), नेगी (स्ट्रेट स्टिच) और मेथी (क्रास स्टिच) आदि टाँकों का ही प्रयोग इसमें विशेषकर होता है।

६. कारचोबी काम-यह दो प्रकार का होता है : १. जरदोजी : यह काम सबसे कीमती होता है। इसमें कारीगरी और काम अधिक रहता है, २. कामदानी : इसमें काम घना नहीं होता। कारचोबी में सोने चाँदी के धागे, जैसे 'कलाबत्तू' तथा 'सलमा', और आकृतियाँ, जैसे 'बादला'-जिसमें चाँद सितारे बने होते हैं, प्रयुक्त होता है। शामियाने, हाथी घोड़ों की झूल, चोगे, कुरतियाँ, टोपियाँ, आसन, छत्तर और जूते आदि वैभवसूचक वस्तुएँ ही इस कसीदे में बनाई जाती हैं। दिल्ली, बनारस, लखनऊ, पटना सूरत और हैदराबाद इसके मुख्य केंद्र हैं।

उपर्युक्त शैलियों के अतिरिक्त बंगाल का काँथा, जिसमें पुरानी साड़ियों को आपस में सीकर सूती धागों से कसीदा किया जाता है, चंबा (हिमाचल प्रदेश) और काँगड़ा के रुमाल, जिनमें सूती कपड़े पर रेशम से विवाह, रास और शिकार आदि के चित्र इस प्रकार काढ़े जाते हैं कि काम दोनों तरफ एक सा दीखे; बंजारों का शीशेदार अथवा मनको का काम और बिहार का 'दोमुँहा' का भी प्रसिद्ध है। बिहार, उड़ीसा और रामपुर का कटवाँ काम (ऐप्लीक वर्क) भी महत्वपूर्ण है। इसमें विभिन्न आकृतियों को काटकर दूसरे कपड़े पर सिल दिया जाता है। दक्षिण भारत में कसीदा बहुत कम किया गया।

कुछ काल पूर्व तो भारतीय कसीदा यूरोपीय प्रभाव के कारण कला की दृष्टि से बड़ी दयनीय अवस्था में पहुँच गया था पर इधर उसके सुधारने का भरपूर प्रयास हो रहा है।

(ज.मि.)