क़सीदा अरबी शब्द, जिसका अर्थ है, भरा हुआ, ठोस, गूदेदार। शायरी की भाषा में क़सीदा उस नज़्म (कविता) को कहते हैं जिसके शेर हमवज़न और हमकाफ़िया हों और विषय क्रमबद्ध हो। इसके क़सीदे में शेरों की संख्या कम से कम १५ अनिवार्य है, अधिक की कोई सीमा नहीं है। अरब में कविता क़सीदों से शुरू हुई और ईरान ने उसका अनुगमन किया। इसलिए फ़ारसी में भी क़सीदों से ही काव्य का आंरभ है। क़सीदे का पहला शेर, जिसके दानों मिस्रे हमकाफ़या हों, 'मल्ला' कहलाता है। मल्ले के बादवाला शेर, जिसके दोनों मिस्रे हमकाफ़िया हों ज़ेब-ए-मल्ला (मतले का भूषण) या हुस्न-ए-मतला (मतले का सौंदर्य) कहलाता है। मल्ले के दानों मिस्रों का हमकाफ़िया होना जरूरी है, बाकी शेरों का सिर्फ़ दूसरा मिस्रा हमकाफ़िया होता है। क़सीदा तीन भागों में विभक्त होता है : (१) तशबीब, (२) गुरेज़, (३) दुआ। शुरू के कुछ शेर, जो तारीफ़ या हजो से पहले इश्किया तरीके (प्रेमव्यंजक शैली) पर लिखे जाते हैं, तशबीब या तम्हीद कहलाते हैं। गुरेज़ वह भाग है जहाँ से असीली मज़मून शुरू होता है और उस व्यक्ति का ज़िक्र आता है जिसकी तारीफ या हजो करनी है। इसी को तखल्लस भी कहते हैं। दुआ उस अंतिम भाग को कहते हैं जहाँ क़सीदा खत्म होता है। अंतिम शेर को मक़्ता कहा जाता है। क़सीदे के बहुत से प्रकार हैं जिनमें अधिकतर मदहिया (प्रशंसात्मक), हजविया (निंदात्मक), इश्किया (प्रमात्मक), मरसिया (शोकात्मक) और बहारया (वसंत वर्णनात्मक) इत्यादि हैं। क़सीदे के इतिहास में अबूतमाम (अरबी), अनवरी, ख़ाकानी, रशीद वत्वात (फ़ारसी), सौदा और ज़ौक़ (उर्दू) आदि के नाम अति प्रसिद्ध हैं। (मु.म.)