कश्मीरी भाषा और साहित्य क्षेत्रविस्तार १०,००० वर्ग मील; कश्मीर की वितस्ता घाटी के अतिरिक्त उत्तर में ज़ोजीला और बर्ज़ल तक तथा दक्षिण में बानहाल से परे किश्तवाड़ (जम्मू प्रांत) की छोटी उपत्यका तक। कश्मीरी जम्मू प्रांत के बानहाल, रामबन तथा भद्रवाह में भी बोली जाती है। कुल मिलाकर बोलनेवालों की संख्या १५ लाख से कुछ ऊपर है। प्रधान उपभाषा किश्तवाड़ की 'कश्तवाडी' है।

नामकरण-कश्मीरी का स्थानीय नाम का शुर है; पर १७वीं शती तक इसके लिए 'भाषा' या 'देशभाषा' नाम ही प्रचलित रहा। संभवत: अन्य प्रदेशों में इसे कश्मीरी भाषा के नाम से ही सूचित किया जाता रहा। ऐतिहासिक दृष्टि से इस नाम का सबसे पहला निर्देश अमीर खुसरो (१३वीं शती) की नुह-सिपिह्न (सि. ३) में सिंधी, लाहौरी, तिलंगी औरमाबरी आदि के साथ चलता हे। स्पष्टत: यह दिशा वही है जो पंजाबी, सिंधी, गुजराती, मराठी, बँगला, हिंदी और उर्दू आदि भारतार्य भाषाओं की रही है।

उद्भव-ग्रियर्सन ने जिन तर्कों के आधार पर कश्मीरी के 'दारद' होने की परिकल्पना की थी, उन्हें फिर से परखना आवश्यक है; क्योंकि इससे भी कश्मीरी भाषा की गई गुत्थियाँ सुलझ नहीं पातीं। घोष महाप्राण के अभाव में जो दारद प्रभाव देखा गया है वह तो सिंधी, पश्तू, पंजाबी, डोगरी के अतिरिक्त पूर्वी बँगला और राजस्थानी में भी दिखाई पड़ता है; पर क्रियापदों के संश्लेषण में कर्ता के अतिरिक्त कर्म के पुरुष, लिंग और वचन का जो स्पर्श पाया जाता है उसपर दारद भाषाएँ कोई प्रकाश नहीं डालतीं। संभवत: कश्मीरी भाषा 'दारद' से प्रभावित तो है, पर उद्भूत नहीं।

लिपि-१५वीं शती तक कश्मीरी भाषा केवल शारदा लिपि में लिखी जाती थी। बाद में फारसी लिपि का प्रचलन बढ़ता गया और अब इसी का एक अनुकूलित रूप स्थिर हो चुका है। सिरामपुर से बाइबल का सर्वप्रथम कश्मीरी अनुवाद शारदा ही में छपा था, दूसरा फारसी लिपि में और कुछ संस्करण रामन में भी निकले। देवनागरी को अपनाने के प्रयोग भी होते रहे हैं।

ध्वनिमाला-कश्मीरी ध्वनिमाला में कुल ४६ ध्वनिम (फ़ोनीम) हैं।

स्वर : अ, आ; इ, ई; उ, ऊ; ए; ओ;

अ', आ'; उ'; ऊ'; ए'; ओ';

मात्रा स्वर : -इ, -उ्, -ऊ्

अनुस्वार : अं

अंत:स्थ स्वर : -य, -व

व्यंजन : क, ख, ग, ङ; च, छ, ज; च, छ़, ज़, ञ;

ट, ठ, ड; त, थ, द, न; प, फ, ब, म;

य, र, ल, व; श, स, ह

इ, ई, उ, ऊऔर ए के रूप पदारंभ में यि, यी, -वु, वू और ये' हो जाते हैं। च, छ, और ज़ दंततालव्य हैं और छ़ ज़ का महाप्राण हैं। पदांत अ बोला नहीं जाता।

कारक-कश्मीरी कारकों में संश्लेषणात्मकता के अवशेष आज भी दिखाई पड़ते हैं; जैसे-

सु ज़ोग्न र्ि।सो जनो र्ि।स जनो; तिम ज़'न्य र्ि।तें जने (ते जना:); त'म्य ज़'न्य र्ि।तें३ जनें३ (तेन जनेन); तिमव, जन्यव र्ि ।तैं जनै: (तै: जनै:); कर्म, संप्रदान, अपादान और अधिकरण में प्राय: संबंध के मूल रूप में ही परसर्ग जोड़कर काम निकाला जाता है; यद्यपि नपुं. के अधिकरण (एफ.) में प्राचीन रूपों की झलक भी मिलती है। संबंध का मूल रूप यों है-तस ज़'निस र्ि।तस्स जनस्स र्ि तस्य जनस्य; तिमन ज़न्यन र्ि । तेंणाँ जनेणां (तेषां जनानाम्)।

नपुं. में-तथ गरस र्ि ।तद् घरस्स; रु' र्ि ।तम्हादो घरदो; तमि गरुक र्ि ।घरको (गृहक:); तमि गरि र्ि ।घरे (गृहे)।

क्रियापद-कश्मीरी क्रियापदों में भारतीय अर्थविशेषताओं के ऊपर बहुत ही विलक्षण प्रभाव पड़ता गया है, जिनसे कुछ विद्वानों को उनके अभारतीय होने का भ्रम भी हुआ है। लिंग, वचन, पुरुष और काल के अनुसार एक-एक धातु के सैंकड़ों रूप बनते हैं; जैसे-

कुछ र्ि वीक्षस्व; वुछान छु र्ि वीक्ष (म) मण : अस्ति (वह देखता/देख रहा है); वुछान छुम (वह मुझे देखता/देख रहा है); वुछान छम (वह मुझे देखती/देख रही है।)-छुहम (तू मुझे . . . है); -छसथ (मैं तुम्हें. . . हूँ);-छुसन (में उसे . . .हूँ); वुछन (मैं उसे देखूँगा); वुछथ (मैं तुझे देखूँगा); वुछुथ (तुमने देखा); वुछथस (तुमने मुझे देखा)। तुमने उसके लिए देखा); वुछथन (तुमने उसे देखा); वुछिथ (तुमने उन्हें देखा); वुछु'थ (तुमने उस (स्त्री) को देखा); वुछ्यथ (तुमने उन (स्त्रियों) को देखा); वुछुथम (तुमने मेरा/मेरे लिए देखा); वुछ्यथम (तुमने मेरी/मेरे लिए देखीं), आदि-आदि।

क्रियापदों की यह विलक्षण प्रवृत्ति संभवत: मध्य एशियाई प्रभाव है जो खुरासान से होकर कश्मीर पहुँचा है।

साहित्यारंभ-कश्मीरी साहित्य का पहला नमूना 'शितिकंठ' के महानयप्रकाश (१३ वीं शती) की 'सर्वगोचर देशभाषा' में मिलता है। संभवत: शैव सिद्धों ने ही पहले कश्मीरी को शैव दर्शन का लोकसुलभ माध्यम बनाया और बाद में धीरे-धीरे इसका लोकसाहित्य भी लिखित रूप धारण करता गया। पर राष्ट्रीय और सांस्कृतिक आश्रय से निरंतर वंचित रहने के कारण इसकी क्षमताओं का भरपूर विकास दीर्घाकल तक रुका ही रहा। कुछ भी हो, १४वीं शती तक कश्मीरी भाषा बोलचाल के अतिरिक्त लोकदर्शन और लोकसंस्कृति का भी माध्यम बन चुकी थी और जब हम लल-वाख (१४०० ई.) की भाषा को 'बाणासुरवध' (१४५० ई.) की भाषा से अधिक मँजा हुआ पाते हैं तो मौखिक परंपरा की गतिशीलता में ही इसका कारण खोजना पड़ता है।

लोकसाहित्य-कश्मीरी लोकसाहित्य में संतवाणी, भक्तिगीत (लीला, नात आदि), अध्यात्मगीत, प्रणयगीत, विवाहगीत, श्रमगीत, क्रीडागीत, लडीशाह (व्यंग विनोद आदि), तथा लोककथाएँ विशेष रूप से समृद्ध हैं। 'सूफियाना कलाम' नाम की संगीत कृतियों में भी लोकसाहित्य का स्वर सुनाई पड़ता है।

अस्तु, विकासक्रम की दृष्टि कश्मीरी साहित्य के पाँच काल माने जा सकते हैं :

१. आदिकाल (१२५०-१४००) : इस काल में संतों की मुक्तक वाणी प्रधान रही जिसमें शैव दर्शन, तसव्वुफ़, सहजोपासना, सदाचार, अध्यात्मसाधना, पाखंडप्रतिरोध तथा आडंबरत्याग का प्रतिपादन और प्रवचन ही अधिक रहा, संवेदनशील अभिव्यक्ति कम। इस काम की रचनाओं में से शितिकंठ का महानयप्रकाश, किसी अज्ञात शैव संत का छुम्म संप्रदाय ललद्यद के वाख, नुंदर्यो'श के श्लोक तथा दूसरे ये'शों ('ऋषियों') के पद ही अब तक प्राप्त हो सके हैं। इनमें से भी प्रथम दो रचनाओं में कश्मीरी छंदों को संस्कृत के चौखटे में कसकर प्रस्तुत किया गया है; हाँ, छुम्मं संप्रदाय में कश्मीरी छंदों से अधिक कश्मीरी 'सूत्र' पाए जाते हैं जो शैव सिद्धों द्वारा कश्मीरी भाषा के लोकग्राह्य उपयोग की ओर निश्चित संकेत करते हैं।

२. प्रबंधकाल (१४००-१५५० ई.) : इस काल की इतिवृत्तप्रधान रचनाओं में पौराणिक तथा लौकिक आख्यानों को काव्य का आश्रय मिला। विशेषकर सुल्तान जैन-उल्-आबिदीन (बडशाह) (१४२०-७० ई.) के प्रोत्साहन से कुछ चरितकाव्य लिखे गए और संगीतात्मक कृतियों की रचना भी हुई। सुल्तान के जीवन पर आधारित एक खंडकाव्य और एक दृश्यकाव्य भी रचा गया था; पर खेद है, इनमें से अब कोई रचना उपलब्ध नहीं। केवल भट्टावतार का बाणासुरवध प्राप्त हुआ है जो हरिवंश में वर्णित उषा अनिरुद्ध की प्रणयगाथा पर आधारित होते हुए भी स्वतंत्र रचना है, विशेषकर छंदयोजना में। इस काल की एक ही और रचना मिलती है; सुल्तान के पोते हसनशाह के दरबारी कवि गणक प्रशस्त का सुख-दु:खचरित जिसमें आश्रयदाता की प्रशस्ति के पश्चात् जीवन की रीतिनीति का प्रतिपादन है।

३. गीतिकाल (१५५०-१७५० ई.)-लोकजीवन के हर्षविषाद का विश्वजनीन भावचित्रण इस गतिप्रधान काल की मनोरम विशेषता है। इसके 'अर्थ' और 'इति' 'अब' खातून (१६वीं शती) और अ'रिनिमाल (१८वीं शती) हैं जिनके वेदनागीतों में लोकजीवन के विरह मिलन का वह करुण मधुर सरगम सुनाई पड़ता है जो एक का होते हुए भी प्रत्येक का है। १६०० ई. के आसपास इस सरगम से सूफी रहस्यवाद का स्वर भी (विशेषकर हबीबुल्लाह नौशहरी) की गीतिकाओं में फूट पड़ा और १६५० ई. के लगभग (साहिब कौल के कृष्णावतार में) लालाकाव्य की भी उद्भावना हुई। 'सूफ़ियाना कलाम' का अधिकांश इसी काल में रचा हुआ जान पड़ता है। छंदोविधान में नए प्रयोग भी इस काल की एक विशेष देन हैं।

४. प्रेमाख्यान काल (१७५०-१९०० ई.)-इस काल में प्रबंध और प्रगीत के संयोजन से पौराणिक प्रणयकाव्य और प्रेममार्गा (सफी) मसनवी काव्य परिपुष्ट हुए। एक ओर रामचरित, कृष्णलीला, पार्वतीपरिणय, दमयंती स्वंयवर आदि आख्यानों पर मार्मिक लीलाकाव्य रचे गए तो दूसरी ओर फारसी मसनवियों के रूपांतरण के अतिरिक्त अरबी, उर्दू और पंजाबी प्रेमाख्यानों से भी सामग्री ली गई; साथ ही कुछ ऐसे धार्मिक प्रगीतों की भी रचना हुई जिनमें लौकिक तथा अलौकिक प्रेम के संश्लिष्ट चित्रण के साथ-साथ पारिवारिक वेदना का प्रतिफलन भी हुआ है। इस काल की रचनाओं में विशेष उल्लेखनीय ये हैं-रमज़ान बट का अकनंदुन; प्रकाशराम का रामायन; महमूद गामी के शीरीन खुसरव, लैला मजनूँ और युसुफ जुलेखा; परमानंद के रादा स्वयंवद, शेविलगन और सो'दामचर्यथ; वलीउल्लाह मत्तू तथा जरीफ़शाह की सहकृति होमाल; मक़बूल शाह क्रालवारी की गुलरेज; अज़ीज़ुल्लाह हक्कानी की मुमताज़ बेनज़ीर; कृष्ण राज़दान का श'वलगन; तथा ल'ख्ययन बठ नागाम 'बुलबुल' का नलदमन।

५. आधुनिक काल (१९००)-इस काल में कश्मीर के सामाजिक सांस्कृतिक जीवन ने भी आधुनिकता की अँगड़ाई ली और भारत के दूसरे प्रदेशों की (विशेषकर पंजाब की) साहित्यिक प्रगति से प्रभावित होकर यहाँ के कवियों ने भी नई जागृति का स्वागत किया। धीरे-धीरे कश्मीरी कविता का राष्ट्रीय स्वर ऊँचा होता गया और सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन की नई गतिविधि का सजीव संगीत भी गूँज उठा। वहाब परे के शाहनामा, मक़बूल के ग्रीस्त्यनामा और रसूल मीर की गजल ने इस जागरण काल की पूर्वपीठिका बाँधी, महजूर ने इसकी प्रभाती गाई और आजाद ने नवीन चेतना देकर इसे दूसरे प्रदेशों के भारतीय साहित्य का सक्रिय सहयोगी बना दिया।

उत्तरोत्तर विकास की दृष्टि से इस आधुनिक काल के चार चरण हैं : (१) १९००-१९२०; (२) १९२०-१९३१; (३) १९३१-१९४७; (४) १९४७-से आगे। पहले चरण में सूफी पदावली की घिसी पिटी परंपरा ने ही मानववाद की हल्की सी गँज पैदा की और ऐतिहासिक (इतिवृत्तात्मक) मसवनियों ने अपने युग का परोक्ष चित्रण भी प्रतिबिंबित किया। दूसरे चरण में देशभक्ति की भावना अँगड़ा उठी और तीसरे में राजनीतिक तथा राष्ट्रीय चेतना का निखार हुआ तथा मानववाद का स्वर ऊँचा होता गया। चौथे चरण में कश्मीरी कविता ने नई करवटें लीं। पहले दो वर्षों तक शत्रु के प्रतिरोध और नई आजादी के संरक्षण की उमंग ही गूँजती रही। उसके पश्चात् नए कश्मीर के निर्माण की मूलभूत अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए आर्थिक प्रजातंत्र की स्थापना और विश्वशांति की प्रतिष्ठा पर जोर दिया जाने लगा। ऐसे महत्वपूर्ण विषयों पर कविताएँ ही नहीं, गीतिनाट्य और नृत्यगीत भी रचे गए। लोकगीतों की शैली को अपनाने के नए-नए प्रयोग भी हुए और छंदोविधान में भारी परिवर्तन आया। दूसरे चरण में प्रकृतिचित्रण की जो प्रवृत्ति जाग उठी थी वह उस चौथे चरण में एक नई कलात्मकता के अनुप्राणित हुई और प्राकृतिक परिवेश में सामाजिक सांस्कृतिक चित्रण की एक संश्लिष्ट शैली का विकास हुआ। 'महजूर' और 'आजाद' के बाद 'मास्टर जी', 'आरिफ़', 'नादिम', 'रोशन', 'राही', 'कामी', 'प्रेमी', और 'अलमस्त' ने इस दिशा में विशेष योग दिया। आजकल 'फिराक़', 'चमन', 'बेकस', 'आज़िम', 'कुंदन', 'साक़ी' और 'ख़्याल' विशेष साधानाशील हैं। 'फ़ाज़िल', 'अंबारदार' और 'फ़ानी' भी अपने-अपने रंग में प्रगीतों की सर्जना कर रहे हैं।

कश्मीरी गद्य पत्रकारिता के अभाव से विकसित नहीं हो पा रहा है। रेडियों और कुछ (अल्पायु) मासिकों का सहारा पाकर यद्यपि नाटक, कहानी, वार्ता और निबंध अवश्य लिखे जा रहे हैं; पर जब तक कश्मीरी का कोई दैनिक सप्ताहिक नहीं निकलता, कश्मीरी गद्य का विकास संदिग्ध ही रहेगा। फिर भी, लिखनेवालों की कमी नहीं है। कहानीकारों में अख़्तर मुहीउद्दीन, अमीन कामिल, सोमनाथ जुत्शी, अली मुहम्मद लोन, दीपक काल, अवतारकृष्ण रहबर, सूफ़ी गुलाम मुहम्मद, हृदय कौल भारती, उमेश कौल और बनसी निर्दोष विशेष सक्रिय हैं। नाटककारों में 'रोशन', 'जुत्शी', 'लोन', पुश्कर भान और 'कामिल' तथा उपन्यासकारों में 'अख़्तर', 'लोन' और 'कामिल' के नाम लिए जा सकते हैं। प्रकाशन की सुविधा मिले तो बीसों उपन्यास छप जाएँ। कश्मीरी भाषा को स्कूलों के शिक्षाक्रम में अभी समुचित स्थान नहीं मिल सका है। कश्मीरी भाषा और साहित्य के समुचित विकास में यह एक बहुत बड़ी बाधा है।

सं.ग्रं.-कश्मीरीर भाषा और उसका (चतुर्दश-भाषा-निबंधावली, पृ. १२३-४४), बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, १९५७; कश्मीरी लिटरेचर (कंटेपोरेरी इंडियन लिटरेचन), साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, १९५७; कश्मीरी (आज का भारतीय साहित्य), साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, १९५८; कश्मीर शब्दामृतम, एशियाटिक सोसाइटी बंगाल, कलकत्ता, १८५८; लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया, खंड ८, भाग २; कश्मीरी लिरिक्स (राइन मिस्री), श्रीनगर, १९४५; कश्मीरी (भाषा तथा साहित्य), हिंदी साहित्य कोश, ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी, संवत् २०१५। (पृ.ना.पु.)