कव्वाली एक विशेष प्रकार की गायनपद्धति अथवा धुन जिसमें कई प्रकार के काव्यविधान या गीत, यथा कसीदा, गजल, रुबाई आदि गाए जा सकते हैं। कव्वाली के गायक कव्वाल कहे जाते हैं और इसे सामूहिक गान के रूप में अक्सर पीरों के मजारों या सूफियों की मजलिसों में गाया जाता है। कव्वाली जातिगत पेशा नहीं, बल्कि कर्मगत है, अत: कव्वालों की कोई विशेष जाति नहीं, बल्कि कव्वाली पेशा होता है। कुछ विद्वान् 'कव्वाल' शब्द की व्युत्पत्ति अरबी की 'नक्ल' धातु से मानते हैं जिसका अर्थ 'बयान करना' होता है। लेकिन विद्वानों की अधिक संख्या इसका मूल अरबी के 'कौल' शब्द से मानती है जिसका अर्थ 'कहना' अथवा 'प्रशंसा करना' है। भारत में कव्वाली गायन का आरंभ ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के कारण हुआ बताया जाता है, जो १०वीं मुहर्रम, ५६१ हिजरी को अजमेर पहुँचे थे और जिन्होंने सर्वप्रथम फारसी में गजलें कही थीं। परंतु डा.भगवतशरण उपाध्याय के अनुसार (हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास, प्रथम भाग, पृ. ७२८, ना.प्र. सभा, काशी) अमीर खुसरो (जन्म ६५२ हि.) ने भारत में सर्वप्रथम कव्वाली गायन का प्रचलन किया था। कव्वाली की लोकप्रियता सूफियों के कारण हुई। उपासना सभाओं में सूफी संत समवेत स्वर में कव्वाली गाना आरंभ करते थे और कुछ समय बाद ही, भावावेश में आकर, झूम झूमकर गाने लगते थे। सभा में उपस्थित शेष सारा समाज उनका अनुकरण करता था। पश्चात् आवेश उत्पन्न करने के साधन और माध्यमरूप में कव्वाली को स्वीकृति मिली। धीरे-धीरे कव्वाली गानेवालों के दल संगठित होने लगे जो आगे चलकर पेशेवर हो गए। विषय के अनुसार कव्वाली के कई भेद होते हैं; यथा, हम्द, नात, मनकवत आदि। हम्द में ईश्वर की प्रशंसा के गीत रहते हैं, नात में रसूल की शान का बखान होता है और मनकवत में औलिया के संबंध में वर्णन किया जाता है।

(कै.चं.श.)