कवक (फ़ंगस, क़द्वदढ़द्वद्म) जीवों का एक विशाल समुदाय है जिसे साधारणतया वनस्पतियों में वर्गीकृत किया जाता है। इस वर्ग के सदस्य पर्णहरिम (क्लोरोफ़ल, chlorophyll) रहित होते हैं और इनमें प्रजनन बीजाणुओं (स्पोर, spore) द्वारा होता है। ये सभी सूकाय (थेलॉयड, thalloid) वनस्पतियाँ हैं, अर्थात् इनके शरीर के ऊतकों (टिशूज़, tissues) में कोई भेदकरण नहीं होता; दूसरे शब्दों में, इनमें जड़, तना और पत्तियाँ नहीं होतीं तथा इनमें अधिक प्रगतिशील पौधों की भाँति संवहनीयतंत्र (वैस्क्युलर सिस्टम, vascular system) नहीं होता। पहले इस प्रकार के सभी जीव एक ही वर्ग कवक के अंतर्गत परिगाणित होते थे, परंतु अब वनस्पति विज्ञानविदों ने कवक वर्ग के अतिरिक्त दो अन्य वर्गों की स्थापना की है जिनमें क्रमानुसार जीवाणु (बैक्टीरिया, bacteria) और श्लेष्मोर्णिका (स्लाइम मोल्ड, slime mold) हैं। जीवाणु एककोशीय होते हैं जिनमें प्रारूपिक नाभिक (टिपिकल न्यूक्लियस, typical nucleus) नहीं होता तथा श्लेष्मोर्णिक की बनावट और पोषाहार (न्यूट्रिशन, nutrition) जंतुओं की भाँति होता है। कवक अध्ययन के विज्ञान को कवक विज्ञान (माइकॉलोजी, mycology) कहते हैं।

कुछ लोगों का मत है कि कवक की उत्पत्ति शैवाल (ऐलजी, algae) में पर्णहरिम की हानि होने से हुई है। यदि वास्तव में ऐसा हुआ है तो कवक को पादप सृष्टि (प्लांट किंग्डम, Plant kingdom) में रखना उचित ही है। दूसरे लोगों का विश्वास है कि इनकी उत्पत्ति रंगहीन कशाभ (फ़्लैजेलेटा, flagellata) या प्रजीवा (प्रोटोज़ोआ, protozoa) से हुई है जो सदा से ही पर्णहरिम रहित थे। इस विचारधारा के अनुसार इन्हें वानस्पतिक सृष्टि में न रखकर एक पृथक सृष्टि में वर्गीकृत किया जाना चाहिए।

वास्तविक कवक के अंतर्गत कुछ ऐसी परिचित वस्तुएँ आती हैं, जैसे गुँधे हुए आटे (dough) से पावरोटी बनाने में सहायक एककोशीय खमीर (यीस्ट, yeast), बासी रोटियों पर रूई की भाँति उगा फफूँद, चर्म को मलिन करनेवाले दाद के कीटाणु, फसल के नाशकारी रतुआ तथा कंडुवा (रस्ट ऐंड स्मट, rust and smut) और खाने योग्य एव विषैली खुंभियाँ (मश्रूम्स, mushrooms)।

पोषाहार (न्यूट्रिशन, nutrition)पर्णहरिम की अनुपस्थिति के कारण कवक कार्बन डाइ-ऑक्साइड और जल द्वारा कार्बोहाइड्रेट निर्मित करने में असमर्थ होते हैं। अत: अपने भोज्य पदार्थो की प्राप्ति के लिए अन्य वनस्पतियों, जंतुओं तथा उनके मृत शरीर पर ही आश्रित रहते हैं। इनकी जीवनविधि और संरचना इसी पर आश्रित हैं। यद्यपि कवक कार्बन डाइ-ऑक्साइड से शर्करा निर्मित करने में पूर्णतया असमर्थ होते हैं तथापि ये साधारण विलेय शर्करा से जटिल कार्बोहाइड्रेट का संश्लेषण कर लेते हैं, जिससे इनकी कोशिकाभित्ति (सेल वॉल, cell wall) का निर्माण होता है। यदि इन्हें साधारण कार्बोहाइड्रेट और नाइट्रोजन यौगिक (नाइट्रोजेनस कंपाउंड, nitrogenous compound) दिए जाएँ तो कवक इनसे प्रोटीन और अंतत: (प्रोटोप्लाज्म़ protoplasm) निर्मित कर लेते हैं।

मृतोपजीवी (सैप्रोफ़ाइट, saprophyte) के रूप में कवक या तो कार्बनिक पदार्थों, उत्सर्जित पदार्थ (वेस्ट प्रॉडक्ट, waste product) या मृत ऊतकों को विश्लेषित करके भोजन प्राप्त करते हैं। परजीवी (parasite) के रूप में कवक जीवित कोशों पर आश्रित रहते हैं। सहजीवी (सिमबाइऑण्ट, symbiont) के रूप में ये अपना संबंध किसी अन्य जीव से स्थापित कर लेते हैं, जिसके फलस्वरूप इस मैत्री का लाभ दोनों को ही मिल जाता है। इन दिनों प्रकार की भोजनरीतियों के मध्य में कुछ कवक आते हैं जो परिस्थिति के अनुसार अपनी भोजनप्रणाली बदलते रहते हैं।

रहन-सहन और वितरण कवक की जातियों की संख्या लगभग ८० से ९० हजार तक है। संभवत: कवक सबसे अधिक व्यापक हैं।

जलीय कवक में एकलाया (Achlaya), सैप्रोलेग्निया (Saprolegnia), मिट्टी में पाए जानेवाले म्यूकर (Mucor), पेनिसिलियम (Penicillium), एस्परजिलस (Aspergillus), फ़्यूज़ेरियम (Fusarium) आदि; लकड़ी पर पाए जानेवाले मेरूलियस लैक्रिमैंस (Merulius lachrymans); गोबर पर उगनेवाले पाइलोबोलस (Pilobolus) तथा सॉरडेरिया (Sordaria); वसा में उगनेवाले यूरोटियम (Eurotium) और पेनिसिलियम की जातियाँ हैं। ये वायु तथा अन्य जीवों के शरीर के भीतर या उनके ऊपर भी पाए जाते हैं। वास्तव में विश्व के उन सभी स्थानों में कवक की उत्पत्ति हो सकती है जहाँ कहीं भी इन्हें कार्बनिक यौगिक की प्राप्ति हो सके। कुछ कवक तो लाइकेन (lichen) की संरचना में भाग लेते हैं जो कड़ी चट्टानों पर, सूखे स्थान में तथा पर्याप्त ऊँचे ताप में उगते हैं, जहाँ साधारणतया कोई भी अन्य जीव नहीं रह सकता।

कवक की अधिकाधिक वृद्धि विशेष रूप से आर्द्र परिस्थितियों में, अँधेरे में या मंदप्रकाश में होती है। इसीलिए छत्रक अधिक संख्या में आर्द्र और उष्ण तापवाले जंगलों में उगते हैं।

वानसतिक शरीर की संरचना कुछ एककोशिकीय जातियों, उदाहरणार्थ खमीर, के अतिरिक्त अन्य सभी जातियों का शरीर कोशिकामय होता है, जो सूक्ष्मदर्शीय (माइक्रोस्कोपिक) रेशों से निर्मित होता है और जिससे प्रत्येक दिशा में शाखाएँ निकलकर जीवाधार (substratum) के ऊपर या भीतर फैली रहती हैं। प्रत्येक रेशे को कवकतंतु (hypha) कहा जाता है और इन कवकतंतुओं के समूह को कवकजाल (माइसीलियम, mycelium) कहते हैं। प्रत्येक कवकतंतु एक पतली, पारदर्शी नलीय दीवार का बना होता है जिसमें जीवद्रव्य का एक स्तर होता है या जो जीवद्रव्य से पूर्णतया भरा होता है। ये शाखी या अशाखी रहते हैं और इनकी मोटाई ०.५ म्यू से लेकर १०० म्यू तक होती है (१ म्यू उ एक मिलीमीटर का हजारवाँ भाग)।

जीवद्रव्य या तो अटूट पूरे कवकतंतु में फैला रहता है जिसमें नाभिक (nucleus) बिना किसी निश्चित व्यवस्था के बिखरे रहते हैं, अन्यथा कवकतंतु दीवारों का पट (सेप्टम, septum) द्वारा विभाजित रहते हैं जिससे संरचना बहुकोशिकीय होती है। पहली अवस्था को बहुनाभिक (सीनोसिटिक, coenocytic) तथा दूसरी को पटयुक्त (सेप्टेंट, septate) अवस्था कहते हैं। प्रत्येक कोशिका में एक, दो या अधिक नाधिक हो सकते हैं।

अधिकांश कवक के तंतु रंगहीन होते हैं, किंतु कुछ में ये विभिन्न रंगों से रँगे होते हैं।

साधारण कवक का शरीर ढीले कवकतंतुओं से निर्मित होता है किंतु कुछ उच्च कवकों के जीवनवृत्त की कुछ अवस्थाओं में उनसे कवकजाल घने होकर सघन ऊतक बनाते हैं जिसे संजीवितक (प्लेक्टेनकिमा, plectenchyma) और कूटजीवितक (स्यूडोपैरेंकिमा, preudoparenchyma)।

दीर्घितक ढीला ऊतक होता है, जिसमें प्रत्येक कवकतंतु अपना अपनत्व बनाए रखता है। कूटजीवितक में सूत्र काफी घने होते हैं तथा वे अपना ऐकात्म्य खो बैठते हैं और काटने पर उच्चवर्गीय पौधों के जीवितक कोशों (पैरेंकिमा सेल्स Parenchyma cells) के समान दिखाई पड़ते हैं। इन ऊतकों से विभिन्न प्रकार के वानस्पतिक और प्रजनन विन्यास (रिप्रॉडक्टिव स्ट्रक्चर, reproductive structure) का निर्माण होता है। कवक की बनावट चाहे कितनी ही जटिल क्यों न हो, पर वे सभी कवकतंतुओं द्वारा ही निर्मित होते हैं। ये तंतु इतने सघन होते हैं कि वे ऊतक के रूप में प्रतीत होते हैं, किंतु कवकों में कभी भी वास्तविक ऊतक नहीं होता।

कोशिकाभित्ति (सेल वाल, ड़ड्ढथ्थ् ्ध्रaथ्थ्) की रासायनिक संरचना एवं कोशिका विज्ञान (साइटॉलोजी, ड़न्र्द्यदृथ्दृढ़न्र्)–कुछ जातियों को छोड़कर कवकों की कोशिकाभित्तियों की रासायनिक व्याकृतियाँ (केमिकल कंपोज़िशन, chemical composition) विभिन्न जातियों में भिन्न-भिन्न होती हैं। कुछ जातियों की कोशिकाभित्तियों में सेलुलोस या एक विशेष प्रकार का कवक सेल्यूलोस पाया जाता है तथा अन्य जातियों में काइटिन (ड़ण्त्द्यत्द) कोशिकाभित्ति के निर्माण के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी होता हैं। कई कवकों में कैलोस (ड़aथ्थ्दृद्मड्ढ) तथा अन्य कार्बनिक पदार्थ भी कोशिकाभित्ति में पाए गए हैं।

कवकतंतु में नाभिक के अतिरिक्त कोशिकाद्रव्य (साइटोप्लाज्म, cytoplasm) तैलविंदु तथा अन्य पदार्थ उपस्थित रहते हैं, उदाहरणार्थ कैल्सियम ऑक्सलेट, (calcium oxalate) के रवे, प्रोटीन कण इत्यादि। प्रत्येक जाति में प्रोटोप्लास्ट (protoplast) हरिमकणक (क्लोरोप्लास्ट, chloroplast) रहित होता है। यद्यपि कोशिकाओं में स्टार्च का अभाव होता है, तथापि एक दूसरा जटिल पौलिसैकेराइड ग्लाईकोजन (polysaccharide glycogen) पाया जाता है।

मृतोपजीवी (सैप्रोफ़ाइट, saprophyte) कवक के कवकतंतु आधार के निकट संस्पर्श में आकर अपना भोजन अपने रेशों की दीवार से विसरण (डिफ़्यूज़न, diffusion) द्वारा प्राप्त करते हैं।

पराश्रयी (पैरासाइट, parasite) कवक जंतुओं और वनस्पतियों की कोशिकाओं से पोषित होते हैं और इस प्रकार ये अपने पोषक को हानि पहुँचाने हैं, जिसके कारण वनस्पतियों एवं जंतुओं में व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। कवकजाल प्राय: पोषकों के धरातल पर अथवा पोषकों के भीतरी स्थानों में अंत: कोशिका (इंटरसेलुलर, intercellular) या पोषकों के कोशों को छेदकर (कोशिकाभ्यंतरी, इंट्रासेलुलर, intracellular) उगते हैं कवकतंतु के अग्रभाग से एक प्रकार के एंज़ाइम (enzyme) का स्राव होता है जिससे इन्हें कोशकाभित्ति के बेधन तथा विघटन में सहायता प्राप्त होती है। अंत: कोशिकतंतु एक विशेष प्रकर की शाखाओं को पोषक कोशिकाओं में भेजते हैं जिन्हें आशोषांग (हॉस्टोरिआ, haustoria) कहते हैं। ये आशोषांग अति सूक्ष्म छिद्रों द्वारा कोशिकाभित्ति (सेल वॉल, cell wall) में प्रवेश करते हैं। ये विशेषित अवशोषक अंग (ऐब्ज़ॉरबिंग ऑर्गन्स, absorbing organs) होते हैं, जो विभिन्न जातियों में विभिन्न प्रकार के होते हैं। जंतुओं में पाए जानेवाले पराश्रयी कवकों में अवशोषकांग नहीं पाए गए हैं।

सदा पराश्रयी (ऑब्लिगेट पैरासाइट, obligate parasite) अपना भोजन कोशिकाओं के जीवित जीवद्रव्य से ही प्राप्त करते हैं, किंतु वैकल्पिक पराश्रयी (फ़ैक्ल्टेटिव पैरासाइट, facultative parasite) अधिकतर पराश्रयी जीवन व्यतीत करते हैं परंतु कभी-कभी मृतोपजीवी रूप से भी अपना भोजन प्राप्त करते हैं।

विभिन्न कवकों के लिए विभिन्न खाद्य सामग्री की आवश्यकता होती है। कुछ कवक सर्वभोजी होते हैं तथा किसी भी कार्बनिक पदार्थ से अपना भोजन प्राप्त कर सकते हैं, जैसे ऐस्परजिलस (Aspergillus) और पेनिसिलियम। अन्य कवक अपने भोजन में विशेष दुस्तोष्य होते हैं। कुछ सदा पराश्रयी के पोषण के लिए जीवित प्रोटोप्लाज्म़ की ही नहीं वरन् किसी विशेष जाति के आधार की भी आवश्यकता होती हैं।

कीटों द्वारा कवक की खेतीदक्षिणी अफ्रीका में कुछ चींटियाँ तथा दीमकें कवकों का केवल आहार ही नहीं करतीं वरन् उनको उगाती भी हैं। ये जीव विशेष प्रकार के कार्बनिक पदार्थो को इकट्ठा कर अपने घोसलों में बिछाते हैं जिनपर कवक अच्छी तरह उग सकें। कुछ दशाओं में ये कवकों का रोपण करते हैं। विद्वानों का ऐसा विचार है कि एक जाति की चींटी अपना विशेष कवक उत्पन्न करती हैं।

कीटों पर उगनेवाले कवक (कीटपरजीवी, एटोमोजीनस फ़ंजाई, Entomogenous fungi)अनेक कवक कीटों पर ही उगते हैं। एंटोमॉफ़्थोरा (Entomophthora) की कई जातियाँ कीटाश्रयी हैं। एंटोमॉफ़्थोरा मस्की (Entomophthora muscae) साधारण मक्खियों पर आक्रमण करता है। कवकजाल से मक्खियों को पूरा शरीर भर जाता है और बीजाणओं के परिपक्व होने पर वे प्रक्षिप्त होकर मृत मक्खी के चारों और वृत्ताकार क्षेत्र में फैल जाते हैं। कॉर्डिसेप्स (Cordyceps) की कई जातियाँ कीटों पर ही आश्रित रहती हैं। कॉडिसेप्स मिलिटैरिस (Cordyceps militaris) प्यूपा (pupa) और इल्ली (कैटरपिलर, caterpillar) पर आश्रित रहता है। एक कवक बोवेरिया बैसियाना (Beauveria bassiana) रेशम के कीड़े की मुख्य व्याधि श्वेतमारी (मस्करडीन, Muscardine) के लिए उत्तरदायी है।

हिंसाजीवी कवक (प्रिडेशस फ़ंजाइ, Predaceous fungi)कवक की कुछ जातियाँ मिट्टी और जल में रहती हैं। ये जातियाँ अपने भोजन के लिए अमीबा, सूत्रकृमि (नेमाटोड्स, Nematodes) एवं अन्य छोटे-छोटे भूमीय जंतुओं को ग्रहण करती हैं। जैसे ट्राइकोथेसियम साइटॉस्पोरियम (Trichothecium cytosporium)में, परंतु कुछ दूसरे कवक अपने शिकार को पकड़ने के लिए विशेष प्रकार की युक्तियों का उपयोग करते हैं; उदाहरणार्थ डेक्टीलेरिया रिंग्स, (Dactylaria gracilis) में संकुचित वलय (काँस्ट्रिक्टिंग रिंग्स, Constricting rings) तथा सोमरस्टोर्फ़िया (Sommerstorffia) में चिपकनेवाली खूँटियाँ होती हैं। कवकतंतु कुंडली बनाकर सूत्रकृमि के चारों और चिपट जाते हैं और उसे चूस डालते हैं। कवक विज्ञान में कवकतंतुओं द्वारा प्रचूषण का यह एक विचित्र और आश्चर्यजनक उदाहरण है।

सहजीवन (सिंबिऑसिस, Symbiosis)–कवक उच्च वनस्पतियों से सहजीवन का संबंध स्थापित कर कवकमूलता (माइकोरिज़ा, Mycorrhiza) बनाते हैं। इस सहजीवन संबंध की स्थापना पेड़ों, झड़ियों तथा पर्णागोद्भिद (टेरिडोफ़ाइट्स, Pteridophytes) और हरितोभ्द्दि (ब्रायोफ़ाइट्स, Bryophytes)से भी होती है।

कवक नीले तथा हरे शैवाल (ऐलजी, Algae) के साहचर्य से लाइकेन की स्थापना करते हैं। कवक और इन जीवों का यथार्थ संबंध अभी तक स्पष्ट ज्ञात नहीं हो सका है।

प्रतिजीविता (ऐंटिबायोसिस, Antibiosis)कवक प्राय: ऐसे जटिल कार्बनिक (ऑर्गेनिक, organic) उत्सर्गी पदार्थों (मल आदि) का उत्पादन करते हैं, जो दूसरों की वृद्धि पर प्रभाव डालते हैं। इसकी क्रिया कभी-कभी उत्तेजक होती है, जैसे कैण्वक (बायॉस, डत्दृद्म) नामक पदार्थ की, परंतु अधिकतर इनका कार्य निरोधी होता है। इस दिशा को प्रतिजीविता (antibiosis) कहते हैं। इस क्रिया के ज्ञान से ही रोगाणनाशी पदार्थों (antibiotics) का आविष्कार हुआ है।

प्रजनन (Reproduction)कवकों में प्रजनन कार्य विशेष रूप से अलैंगिक (asesual) और लैंगिक (sexual) दोनों रीतियों से होता है, किंतु अधिकांश कवकों में इनमें से केवल एक ही रीति से होता है।

प्रजननांग के निर्माण में या तो संपूर्ण सूकाय (शरीर) एक या अनेक प्रजनन अंग में परिवर्तित हो जाता है या केवल इसका कोई भाग। इनमें से पूर्व भाग को एकफलिक (होलोकार्पिक, holocarpic) और अपर भाग को बहुफलिक (यूकार्पिक, eucarpic) कहते हैं।

अलैंगिक प्रजनन (Asexual reproduction)सबसे साधारण प्रकार के जनन में एक या अधिक कोशिकाएँ पृथक होकर स्वतंत्र रूप से बढ़ती हैं और नए कवकसूत्र को जन्म देती हैं। यद्यपि दैहिक रूप से ये बीजाणुओं के समान आचरण करती हैं, तथापि उनसे भिन्न होती हैं और इनको चिपिटो-बीजाणु (औइडिया, oidia) या खमीर (यीस्ट) में कुड्म (बड, bud) या कुड्मलाणु (जेम्मा, gemma) नाम दिया जाता है।

बीजाणु (Spores) सूक्ष्म होते हैं और इनके आकार तथा संरचनाएँ भिन्न-भिन्न जातियों के लिए विभिन्न होती हैं। ये बीजाणु जन्म देनेवाले सूत्रों से आकार प्रकार, रंग, उत्पत्तिस्थान और ढंग में भिन्न होते हैं। फिर, ये बीजाणु स्वयं अलग-अलग आकार, प्रकार और रंग के होते हैं तथा पटयुक्त (सेप्टेट septate) वा पटरहित (असेप्टेट, aseptate) रहते हैं। प्राय: ये अति सूक्ष्म होते हैं और बहुत कम दशाओं में ये बिना सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) के देखे जा सकते हैं।

बीजाणु एक विशेष प्रकार के थैले या आवरण में निर्मित होते हैं जिन्हें बीजाणुधानी (स्पोरेंजिअम, sporangium) कहते हैं। जब ये बीजाणु चर (मोटाइल, motile) होते हैं तब इन्हें चलजन्यु (जूस्पोर्स, zoospores) कहते हैं। इनमें एक या दो कशाभ (फ़्लैजेलम, flagelum) हो सकते हैं। यदि बीजाणु किसी कवकसूत्र (हाइफ़ा, ण्न्र्द्रण्a) के शीर्ष से कटकर पृथक होते हैं तब ये कणी (कोनिडिआ, conidia) कहलाते हैं और सूत्र तब कणीधर (कोनिडिओफ़ोर, conidiophore) कहलाता है।

कणीधरों में बहुत भिन्नता होती है। यह बहुत छोटे तथा सरल से लेकर लंबे तथा शाखित तक होते हैं। ये व्यवस्थाहीन, एक दूसरे से पूर्णतया स्वतंत्र होते हैं अथवा विशेष रूप से विभिन्न संरचनाओं में संघटित रहते हैं।

(१)जब ये कणीधर इकट्ठे होकर विस्तीर्ण तल्सप (गद्दी, cushion) का निर्माण करते हैं तब मृतोपजीवी कवक में ये स्पोरोडोकिया (Sporodochia) और परोपजीवी कवक में प्रगुच्छक (एसरव्युलस, acervulus) कहलाते हैं। जिस ऊतक से इनका जन्म होता है उसे घनकाय (स्ट्रोमा, stroma) कहते हैं।

(२)दूसरी दशा में संजीवितक (प्लेक्टेनकाइमा, plectenchyma) एक खोखली गुहा बनाता है जिसकी आंतरिक दीवाल से कणी निकले रहते हैं। इस पिंड को पलिघा (पिक्निडिआ, pycnidia) कहते हैं और उन बीजाणुओं को पलिघाबीजाणु (पिक्निडिओस्पोर, pycnidiospore) कहते हैं।

(३) जब कणीधर एक समूह में युक्त होते हैं तब इन्हें मार्जनीकाय (कोरिमीआ, coremia) कहते हैं।

पूर्वोक्त सभी प्रकार के बीजाणुओं की उत्पत्ति एकल कवकजाल (हैप्लॉयड माइसीलिअम, haploid mycelium) पर होती है और ये बीजाणु उचित वातावरण में प्रजनन का कार्य करते हैं। इनकी उत्पत्ति बहुत अधिक संख्या में होती हैं और ये वायु, जल, कीटाणु और अन्य साधनों द्वारा दूर-दूर तक वितरित हो जाते हैं।

एक प्रारूपिक बीजाणु एक या दो परतों से आवृत्त होता है जिसके कोशिकाद्रव्य (साइटोप्लाज्म़, cytoplasm) में साधारणतया एक नाभिक होता है तथा खाद्य सामग्री तैलबिंदु के रूप में एकत्रित रहती है। अंकुरण के समय आवरण का एक भाग निकलकर एक अंकुरनाल (जर्म टयूब, germ tube) बनाता है जो बढ़कर एक सूत्र बन जाता है। यह सूत्र विभाजित होकर कवकजाल (mycelium) को जन्म देता है।

कभी-कभी मोटे और बड़े आवरण के बीजाणु भी बनते हैं। इन्हें कंचुक बीजाणु (क्लैमाइडोस्पोर्स, chlamydospores) कहते हैं।

लैंगिक प्रजनन (Sexual reproduction)–लैंगिक प्रजनन में दो अनुरूप नाभिकों का सम्मेल होता है। इस विधि में तीन अवस्थाएँ होती हैं : १. जीवद्रव्य-सायुज्यन (प्लाज्म़ोगामी, plasmogamy) : इस क्रिया से दो एकल नाभिक (हैप्लॉयड न्यूक्लियस, haploid nucleus) एक कोशिका में आ जाते हैं। २. नाभिक-सायुज्यन (कैरिओगामी, karyogamy) : इसमें दोनों एकल नाभिक मिलकर एक द्विगुणित निषेचनज (डिप्लॉइड ज़ाइगोट, diploid zygote) नाभिक का निर्माण करते हैं। ३. अर्धसूत्रण (मायोसिस, ्थ्रड्ढत्दृद्मत्द्म) इसके द्वारा द्विगुणित युक्त नाभिक विभाजित होकर चार एकल नाभिकों को जन्म देते हैं।

कवकों के लैंगिक अंगों को युग्मकधानी (गैमिटैंजिआ, gametangia) कहते हैं। ये युग्मकधानी विभिन्न लैंगिक कोशिकाओं को निर्मित करते हैं, जिन्हें युग्मक (गैमीट, ढ़a्थ्रड्ढद्यड्ढ) कहते हैं या कभी-कभी इनमें केवल युग्मक नाभिक (गैमीट न्यूक्लिअस, gamet nucleus) ही होता है। जब युग्मकधानी और युग्मक आपस में आकार प्रकार में समान होते हैं तब इस प्रकार की दशा को समयुग्मकधानी (आइसोगैमीट, isogamete) कहते हैं। जब ये बनावट, आकार प्रकार में भिन्न होते हैं तब इन्हें विषमयुग्मकधानी (हेटेरोगैमिटैजिआ, heterogametangia) और विषमयुग्मक (हेटेरोगैमीट, heterogamete) कहते हैं। पुरुष युग्मकधानी (मेल गैमिटेंजिअम, male gametangium) को पुंधानी (ऐंथेरिडियम, Antheridium) और स्त्री युग्मकधानी को स्त्रीधानी (ओओगोनियम, Oogonium) कहते हैं।

निम्नलिखित कई साधनों द्वारा लैंगिक नाभिक एक कोशिका में आ जाते हैं जिससे नाभिक सायुज्य हो सके :

  1. दो युग्मक, जो आकार में समान या भिन्न होते हैं और जिनमें दोनों ही या एक चलायमान होता है, मिलकर निषेचनक (ज़ाइगोट, Zygote) का निर्माण करते हैं।

२. लिंगसंगम (ओओगैमी, oogamy) : इसमें पुंधानी (ऐंथेरिडियम, antheridium) पुरुष नाभिक को एक छिद्र या निषेचन नाल (फ़र्टिलाइज़ेशन टयूब, fertilzation tube) द्वारा स्त्रीधानी (ओओगोनियम, oogonium) में भेजता है।

३. युग्म संगम (ज़ाइगोगैमी, Zygogamy) : इसमें दो अभिन्न अखंड कोशिकाओं (सीनोसाइटिक गैमिटैजिआ, coenocytic gametangia) का योजन होता है।

४.प्रशुक्र जन्युता (स्परमैटाइज़ेशन, spermatisation) : इसमें पुंजन्यु, जो सूक्ष्म, एकनाभिक नर पिंड होता है, किसी भी स्त्री युग्मकधानी (फ़ीमेल गैमिटैंजिआ, female gametangia) या विशेष संग्रहणशील (रिसेप्टिव, receptive) कवकतंतु अथवा दैहिक (सोमैटिक, somatic) कवकतंत्रों तक ले जाए जाते हैं और वहाँ पुंजन्यु की अंतर्वस्तुएँ एक छिद्र द्वारा स्त्री इंद्रिय में पहुँचती हैं।

५. दैहिक संगम (सोमैटोगैमी, somatogamy) : उच्चवर्गीय कवकों में लैंगिक अंग नहीं होते, उनमें देहकोशिका (सोमैटिक सेल, somatic cell) ही लैंगिक कार्य करती हैं।

अधिकतर शेवल कवकों (फ़ाइकोमाइसिटिज़, Phycomycetes) में नाभिक संगम (कैरियोगैमी, Karyogamy) जीवद्रव्य संगम (प्लाज्मागैमी, plasmogamy) के तुरंत बाद होता है और इससे शुक्रांड (ओओस्पोर, oospore) या युग्मनज (ज़ाइगोस्पोर्स, Zygospores) बनते हैं। इनके उदेभदन के समय अर्धसूत्रणा (मायोसिस, meiosis) होती है और फिर या तो सीधी देह (सोमा, च्द्थ्रृa) बनती हैं या एक बीजाणुधानी (स्पोरेंजिअम, sporangium)। इसमें बीजाणु बनते हैं जिनके उद्भदेन से देह बनती हैं।

उच्चवर्गीय कवक अर्थात् ऐस्कोमाइसिटीज़ (Ascomycets) तथा 'बेसिडिओमाइसिटीज़' (Basidiomycetes) में नाभिक संगम के लिए जो नाभिक निकट आते हैं वे तुरंत संगमित नहीं होते, बल्कि वे जोड़े के रूप में साथ रहते हैं जिसे युग्माष्टि (डाइकैरियन, dikaryon) कहते हैं। इनमें क्रमिक संयुग्मित कोशिका भाजन (conjugate cell division) होता है जिसके फलस्वरूप युग्माष्टिक कोशिकाएँ (डाइकैरियॉटिक सेल्स, dikaryotic cells) बनती हैं।

कुछ कवकों में नाभिकों का सायुज्यन एक विशेष कोशिका में होता है। ऐस्कोमाइसीटीज़ में यह विशेष अंग एक थैले के रूप में विकसित होता है जिसे ऐस्कस (Ascus) कहते हैं। ऐस्कस में अर्धसूत्रणा (meiosis) होती है जिसके फलस्वरूप पहले चार बाद में आठ नाभिक होते हैं जो आठ धानीबीजाणुओं में आयोजित होते हैं। ये ऐस्कस बीजाणु एकल (haploid) होते हैं और ऐस्कस में व्यवस्थित होते हैं।

बेसीडिओमाइसीटीज़ में वे कोशिकाएँ, जिनमें नाभिक सायुज्यित होते हैं, बेसीडियम (basidium) का रूप धारण करती हैं जिसमें अर्धक (माइऑटिक, meiotic) विभाजन के पश्चात् चार नाभिक बनते हैं। इसी समय बेसिडियम में से चार कणीवृंत (स्टेरिगमेटा, sterigmata) निकलते हैं जिनके सिरे पर एक नाभिक चला जाता है और वहीं बेसिडियम बीजाणु (बेसिडिओस्पोर, basidiospore) का निर्माण होता है। इस प्रकार ये बेसिडियम बीजाणु बाह्यत: बेसिडियम पर आयोजित होते हैं। कुछ अधिक उच्च बेसिडियोमाइसीटीज़ अपने बेसिडियम एक विशेष फलन काय में बनाते हैं जिसे बेसीडिओ काय (बेसीडिओकार्प, basidiocarp) कहते हैं।

वर्गीकरण–अधिकांश लेखक कवकों को निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटते हैं :

१. फ़ाइकोमाइसिटीज़ (Phycomycetes)इसमें कवकसूत्र बहुनाभिक एवं अखंड कोशिकावाले (coenocytic) होते हैं तथा परिपूर्ण अवस्था या तो शुक्रांड (ओओस्पोर, oopore) या युग्मनज (ज़ाइगोस्पोर, zygospore) वाली होती हैं।

२. ऐस्कोमाइसिटीज़ (Ascomycetes)इसमें कवकसूत्र पटयुक्त (सेप्टेट, septate) होते हैं। कोशिका एकनाभिक या बहुनाभिक तथा इनकी परिपूर्ण अवस्था ऐस्कस होती है जिसमें ऐस्कस बीजाणु होते हैं।

३. बेसिडियोमाइसीटीज़ (Basidiomycetes)इसमें कवकसूत्र पटयुक्त, कोशिका प्राय: द्विनाभिक तथा परिपूर्ण अवस्था बेसिडियम होती हैं जिसपर बेसिडियम बीजाणु (बेसिडियोस्पोर) होते हैं।

४. डयूटेरोमाइसीटीज़ (Deuteromycetes)यह एक कृत्रिम वर्ग है जिसके सदस्यों का पूरा जीवनवृत्त ज्ञात नहीं है। इसमें प्राय: लैंगिक अवस्था की जानकारी नहीं रहती।

आर्थिक महत्वकवकों के आहारपोषाण को देखने से ज्ञात होता है कि इनकी तथा हमारी आवश्यकताओं में असाधारण समानता है। ये न केवल मनुष्य के भोज्य पदार्थ पर हाथ साफ करते हैं, वरन् मनुष्य, जीवजंतु तथा पौधों पर आक्रमण कर उन्हें रुग्ण कर देते हैं। परंतु कई दशाओं में ये मनुष्य के लिए लाभदायक भी सिद्ध होते हैं।

कवकों के जो गुण मनुष्य के लिए लाभदायक सिद्ध हुए हैं वे निम्नलिखित हैं :

१. औषधि के रूप में प्राचीन काल में कवकों का प्रयोग बहुत अधिक होता था, परंतु वर्तमान भेषज विज्ञान में कुछ कम हो गया है। खमीर (यीस्ट) विटामिन 'बी' तथा एरगेस्ट्रॉल (ergastrol) के कारण प्रयोग में लाया जाता है। इसी प्रकार परप्यूरिया (claviceps purpurea) के जलाश्म (sclerotium) का प्रयोग प्रसूति विषयक कार्यो में होता आया है। हाल ही में जीवाणुद्वेषी ओषधियाँ (Penicillin), क्लोरोमाइसिटिन (chloromycetin) तथा टेरामाइसिन, (terramycin) सब कवकों द्वारा ही निकाली गई हैं।

२. कवक औद्यौगिक कार्यो में भी प्रयोग में आते हैं। पावररोटी, मदिरा, अन्य आसवों तथा अम्लों के बनाने में किण्वन (फ़रमेंटेशन्, fermentation) किया जाता है जो कवकों द्वारा ही संपन्न होता है, उदाहरणत: सैकारामाइसीज़ सेरेविसी (Saccharomyces cerevisiae) रोटी बनाने में प्रयुक्त होता है, म्यूकर ओराइज़ी (Mucor oryzea) मदिरा बनाने में। इसके अतिरिक्त कवक कई प्रकार के पनीर की उत्पत्ति में तथा तंतुवेचन (retting) में भी काम आते हैं।

३. भोजन के रूप में भी कवकों का विशेष महत्व रहा है। अधिकतर तो ये जंगलों से एकत्र किए जाते हैं और इनमें मौरकेला एस्क्यूलेंटा (Morchella esculenta) और ऐगेरिकस केंपेस्ट्रिस (Agaricus campestris) मुख्य हैं। परंतु वर्तमान काल में बहुत से देशों में खुंभी की खेती की जाने लगी हैं।

कवकों से मनुष्यों को होनवाली हानियाँ :

१. इनसे मनुष्यों में कई प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। बच्चों में कंठपाक रोग (mɶ�, thrush) मोनिलिया ऐलबिकैंस (Monilia albicans) द्वारा, गदाक दोष (अरगोटिज्म, ergotism) जिसमें अंग अकड़ जाते या निर्जीव हो जाते हैं क्लेविसेप्स परप्यूरिया (Claviceps perpurea) द्वारा, दाद, खाज आदि त्वचा के रोग ट्राइकोफ़ाइटोन टोनस्यूरेंस (Trichophyton tonsurans) द्वारा तथा कवकरुजा रोग (माइकोसिस, mycosis) अन्य कवकों द्वारा होते हैं।

२. जंतुओं में कवक द्वारा उत्पन्न रोग केवल पालतू पशओं में ही ज्ञात हैं। आदारुण (फ़ेवस, ढaध्द्वद्म) नामक चर्मरोग अकोरिऑन शौनलिनाई (Achorion Sehonleinil) द्वारा पक्षी, खरगोश तथा बिल्ली में उत्पन्न होता है। दाद बैल, घोड़ा तथा कुत्ते को होता है। ऐक्टिनोमाइसीज़ बोविस (Actinomyces bovis) द्वारा उत्पन्न 'गँठीला जबड़ा' तथा 'कड़ी जिह्वा' नामक रोग गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सुअर आदि पशुओं में होते हैं। मछलियाँ जलकवकों द्वारा रुग्ण हो जाती हैं। इन कवकों में सैप्रोलेग्निया फ़ेरैक्स (Saprolegnia ferax) मुख्य हैं।

३. पौधों में रोग उत्पन्न करनेवाले कवक बहुत अधिक हैं तथा उनका प्रभावक्षेत्र भी विस्तृत है। आयरलैंड के १८४६ ई. वाले अकाल का कारण एक कवक फ़ाइटोफ़्थोरा इन्फ़ेस्टैंस (Phytophthora infestans) द्वारा आलू की फसल का सड़ जाना था। गेहूँ का रतुआ (Rust) तथा कंडुवा (Smut), गन्ने का लाली रोग (रेड रॉट, ङड्ढड्ड द्धदृद्य), रुई तथा अरहर के पौधों का उक्ठा (विल्ट, ्ध्रत्थ्द्य) एवं सरसों का श्वेत रतुआ, ये सब कवकों द्वारा ही होते हैं। कुछ फलों की सड़ान भी कवकों द्वारा होती है। इन तथा अन्य पौधों के रोगों से प्रति वर्ष मनुष्य के धन तथा श्रम की अपरिमित हानि होती है।

४. कवकों द्वारा हानि हमारे अनुमान से कहीं अधिक होती है। औद्योगिक हानियों में लकड़ी की सड़न मेरुलियस लेक्राइमैंस (Merulias lochrymans) तथा पोरिया वैपोरेरिया (Poria vaporaria) द्वारा, तांत्विक क्षय ऐस्परजिलस (aspergillus), पेनिसिलियम (Penicillium) तथा क्लैडोस्पोरियम (cldosporium) द्वारा होते हैं। अन्य वस्तुओं के कल्क भी अनेक प्रकार के कवकों द्वारा होते हैं।

५. पूर्वोक्त के अतिरिक्त खाद्य पदार्थों के विनाश के मूल कारण भी कवक हैं। मांस कल्क स्पोरोट्राइकम कार्निस (Sporotrichum coarnis) द्वारा फलों के कल्क ग्लोमेरेला (Glomerella) अथवा पेनिसिलियम या म्यूकर (Mucor) इत्यादि द्वारा, रोटी की फफूँद राइज़ोपस (Rhizopus) तथा पेनिसिलियम द्वारा होते हैं। (का.स.भा.)

खाद्य कवक कुछ कवक स्वाद में अच्छे होते हैं और इनका प्रयोग प्राय: भोजन को स्वादिष्ट और आकर्षक बनाने में होता है। भारतवर्ष में वर्षा के दिनों में पहाड़ अथवा पहाड़ के नीचे जंगलों में सड़ी और मृत वनस्पतियों के ढेरों पर अथवा जंतुओं के मृत अवशेषों पर कुछ खाद्य कवकों की जातियाँ उगी हुई पाई गई हैं। कुछ खाद्य कवक भारत के पहाड़ी और उत्तर तथा पूर्वी भारत के मैदानों में भी उगते हैं। इनका वृंत सफेद, चिकना और किंचित् छोटा होता है जिसके मध्य या शीर्ष के पास एक पतला वलय होता है।

इन खाद्य कवकों में से खुंबी के कृत्रिम संवर्धन के लिए उपर्युक्त समय मैदानों में अगस्त से मार्च तक और पहाड़ों पर मार्च से अक्टूबर तक माना गया है।

खुंबी ताजी अथवा सुखाकर दोनों तरह से पकाई जाती है। डंठल सहित छत्रकों को प्रौढ़ होने के पूर्व ही तोड़ लिया जाता है, पानी से अच्छी तरह धोकर इनके छोटे-छोटे टुकड़े काटकर धूप में सुखा लिए जाते हैं। संपूरकों के साथ प्रोटीन स्रोत के रूप में खुंबी का उपयोग कभी-कभी किया जाता है।

उद्योग और कवक कुछ कवकों का उपयोग खाद्य उद्योगों में तथा कुछ अन्य कार्बनिक अम्लों और एंज़ाइमों के उत्पादन में किया जाता है। उद्योग की दृष्टि से ऐस्पर्जिलस, पेनसिलियम और म्यूकर वंश का महत्व अधिक है। (नि.सिं.)