कलीम अथवा मिर्ज़ा अबू तालिब १७वीं शती ई. का भारतवर्ष का अत्यंत प्रसिद्ध फारसी कवि हुआ है। उसका जन्म हमदान में हुआ किंतु वह अधिक समय काशन में रहा, अत: उसे काशानी तथा हमदानी दोनों ही कहा जाता है। मुगल शाहंशाह सम्राट् जहाँगीर (१६०५-१६२७ ई.) के समय में वह दक्षिणी भारत के कई स्थानों की सैर करता हुआ उत्तरी भारत पहुँचा किंतु १६०९ ई. में वह पुन: अपने देश चला गया। परंतु भारत की याद उसके हृदयपट से कभी न मिट सकी और वह शीघ्र ही भारत लौट आया और आजीवन यहीं निवास करता रहा।
जहाँगीर के दरबार में तो उसे अधिक उन्नति न प्राप्त हो सकी क्योंकि नूरजहाँ बेगम उसकी शायरी से प्रभावित न थी; किंतु शाहजहाँ (१६२८-१६५६ ई.) ने उसे अत्यधिक आश्रय प्रदान किया। शाहजहाँ के साथ १६४५ ई. में वह कश्मीर पहुँचा और वह प्रदेश उसे इतना पसंद आया कि उसने वहीं निवास करने की अनुमति ले ली और १६५२ ई. में वहीं उसकी मृत्यु हुई। शाहजहाँ ने उसे मलिकुश्शुअरा (कवियों के सम्राट्) की उपाधि प्रदान की। उसने शाहजहाँ के दरबार की अनेक छोटी-छोटी घटनाओं के संबंध में कविताएँ लिखीं और 'पादशाहनामा' अथवा 'शाहजहाँनामा' नामक एक बृहत् काव्य की भी रचना की जिसमें शाहजहाँ के राज्य का संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण दिया है।
कलीम को भारतवर्ष से तो अत्यधिक प्रेम था ही, हिंदी से भी उसे बड़ी रुचि थी। उसने अपनी कविताओं में अनेक हिंदी शब्दों का प्रयोग किया है। धोबी, चंपा, गुडहल, नीम जैसे शब्द के प्रयोग उसने अपने शेरों में बड़ी सुंदरता से किए है। भारत के अनेक व्यवसायों, कारीगरियों, फूलों, तथा फलों के विषय में भी उसने कविताओं की रचना की। उसके दीवान में गजल, कसीदे तथा मसनवियाँ, सभी प्रकार की कविताएँ मिलती हैं और उसके शेरों की संख्या लगभग २४ हजार बताई जाती है। उसका दीवान नवलकिशोर प्रेस (लखनऊ) से १८७८ ई. में प्रकाशित हो चुका है।
सं.ग्रं.–मौलाना शिबली नोमानी : शेरुल अज़म, भाग ३; स्प्रैंगर : ए कैटलाग ऑव द मैनस्क्रिप्ट्स ऑव द लाइब्रेरीज़ ऑव किंग ऑव अवध; रियु : कैटलाग आव द परशियन मैनस्क्रिप्ट्स इन द ब्रिटिश म्युज़ियम। (सै.अ.अ.रि.)