कला शब्द का प्रयोग शायद सबसे पहले भरत के 'नाट्यशास्त्र' में ही मिलता है। पीछे वात्स्यायन और उशनस् ने क्रमश: अपने ग्रंथ 'कामसूत्र' और 'शुक्रनीति' में इसका वर्णन किया।

कला का अर्थ अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है, यद्यपि इसकी हजारों परिभाषाएँ की गई हैं। प्रगट है कि यह शब्द इतना व्यापक है कि विभिन्न विद्वानों की परिभाषाएँ केवल एक विशेष पक्ष को छूकर रह जाती हैं। भारतीय परंपरा के अनुसार कला उन सारी क्रियाओं को कहते हैं जिनमें कौशल अपेक्षित हो। यूरोपीय शास्त्रियों ने भी कला में कौशल को महत्वपूर्ण माना है।

'कामसूत्र', 'शुक्रनीति', जैन ग्रंथ 'प्रबंधकोश', 'कलाविलास', 'ललितविस्तर' इत्यादि सभी भारतीय ग्रंथों में कला का वर्णन प्राप्त होता है। अधिकतर ग्रंथों में कलाओं की संख्या ६४ मानी गई है। 'प्रबंधकोश' इत्यादि में ७२ कलाओं की सूची मिलती है। 'ललितविस्तर' में ८६ कलाओं के नाम गिनाए गए हैं। प्रसिद्ध कश्मीरी पंडित क्षेमेंद्र ने अपने ग्रंथ 'कलाविलास' में सबसे अधिक संख्या में कलाओं का वर्णन किया है। उसमें ६४ जनोपयोगी, ३२ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, संबंधी, ३२ मात्सर्य-शील-प्रभावमान संबंधी, ६४ स्वच्छकारिता संबंधी, ६४ वेश्याओं संबंधी, १० भेषज, १६ कायस्थ तथा १०० सार कलाओं की चर्चा है। सबसे अधिक प्रामाणिक सूची 'कामसूत्र' की है।

यूरोपीय साहित्य में भी कला शब्द का प्रयोग शारीरिक या मानसिक कौशल के लिए ही अधिकतर हुआ है। वहाँ प्रकृति से कला का कार्य भिन्न माना गया है। कला का अर्थ है रचना करना अर्थात् वह कृत्रिम है। प्राकृतिक सृष्टि और कला दोनों भिन्न वस्तुएँ हैं। कला उस कार्य में है जो मनुष्य करता है। कला और विज्ञान में भी अंतर माना जाता है। विज्ञान में ज्ञान का प्राधान्य है, कला और विज्ञान में भी अंतर माना जाता है। विज्ञान में ज्ञान का प्राधान्य है, कला में कौशल का। कौशलपूर्ण मानवीय कार्य को कला की संज्ञा दी जाती है। कौशलविहीन या भोंड़े ढंग से किए गए कार्यो को कला में स्थान नहीं दिया जाता।

'कामसूत्र' के अनुसार ६४ कलाएँ निम्नलिखित हैं :

(१) गायन, (२) वादन, (३) नर्तन, (४) नाटय, (५) आलेख्य (चित्र लिखना), (६) विशेषक (मुखादि पर पत्रलेखन), (७) चौक पूरना, अल्पना, (८) पुष्पशय्या बनाना, (९) अंगरागादिलेपन, (१०) पच्चीकारी, (११) शयन रचना, (१२) जलतंरग बजाना (उदक वाद्य), (१३) जलक्रीड़ा, जलाघात, (१४) रूप बनाना (मेकअप), (१५) माला गूँथना, (१६) मुकुट बनाना, (१७) वेश बदलना, (१८) कर्णाभूषण बनाना, (१९) इत्र यादि सुगंधद्रव्य बनाना, (२०) आभूषणधारण, (२१) जादूगरी, इंद्रजाल, (२२) असुंदर को सुंदर बनाना, (२३) हाथ की सफाई (हस्तलाघव), (२४) रसोई कार्य, पाक कला, (२५) आपानक (शर्बत बनाना), (२६) सूचीकर्म, सिलाई, (२७) कलाबत्, (२८) पहेली बुझाना, (२९) अंत्याक्षरी, (३०) बुझौवल, (३१) पुस्तकवाचन, (३२) काव्य-समस्या करना, नाटकाख्यायिका-दर्शन, (३३) काव्य-समस्या-पूर्ति, (३४) बेंत की बुनाई, (३५) सूत बनाना, तुर्क कर्म, (३६) बढ़ईगरी, (३७) वास्तुकला, (३८) रत्नपरीक्षा, (३९) धातुकर्म, (४०) रत्नों की रंगपरीक्षा, (४१) आकर ज्ञान, (४२) बागवानी, उपवनविनोद, (४३) मेढ़ा, पक्षी आदि लड़वाना, (४४) पक्षियों को बोली सिखाना, (४५) मालिश करना, (४६) केश-मार्जन-कौशल, (४७) गुप्त-भाषा-ज्ञान, (४८) विदेशी कलाओं का ज्ञान, (४९) देशी भाषाओं का ज्ञान, (५०) भविष्यकथन, (५१) कठपुतली नर्तन, (५२) कठपुतली के खेल, (५३) सुनकर दोहरा देना, (५४) आशुकाव्य क्रिया, (५५) भाव को उलटा कर कहना, (५६) धोखा धड़ी, छलिक योग, छलिक नृत्य, (५७) अभिधान, कोशज्ञान, (५८) नकाब लगाना (वस्त्रगोपन), (५९) द्यूतविद्या, (६०) रस्साकशी, आकर्षण क्रीड़ा, (६१) बालक्रीड़ा कर्म, (६२) शिष्टाचार, (६३) मन जीतना (वशीकरण) और (६४) व्यायाम।

'शुक्रनीति' के अनुसार कलाओं की संख्या असंख्य है, फिर भी समाज में अति प्रचलित ६४ कलाओं का उसमें उल्लेख हुआ है। वात्स्यायन के 'कामसूत्र' की व्याख्या करते हुए जयमंगल ने दो प्रकार की कलाओं का उल्लेख किया है–(१) कामशास्त्र से संबंधित कलाएँ, (२) तंत्र संबंधी कलाएँ। दोनों की अलग-अलग संख्या ६४ है। काम की कलाएँ २४ हैं जिनका संबंध संभोग के आसनों से है, २० द्यूत संबंधी, १६ कामसुख संबंधी और ४ उच्चतर कलाएँ। कुल ६४ प्रधान कलाएँ हैं। इसके अतिरिक्त कतिपय साधारण कलाएँ भी बताई गई हैं।

'शुक्रनीति' के अनुसार गणना इस प्रकार है :-

नर्तन (नृत्य), (२) वादन, (३) वस्त्रसज्जा, (४) रूपपरिवर्तन, (५) शैय्या सजाना, (६) द्यूत क्रीड़ा, (७) सासन रतिज्ञान, (८) मद्य बनाना और उसे सुवासित करना, (९) शल्य क्रिया, (१०) पाक कार्य, (११) बागवानी, (१२) पाषाणु, धातु आदि से भस्म बनाना, (१३) मिठाई बनाना, (१४) धात्वोषधि बनाना, (१५) मिश्रित धातुओं का पृथक्करण, (१६) धातुमिश्रण, (१७) नमक बनाना, (१८) शस्त्रसंचालन, (१९) कुश्ती (मल्लयुद्ध), (२०) लक्ष्यवेध, (२१) वाद्यसंकेत द्वारा व्यूहरचना, (२२) गजादि द्वारा युद्धकर्म, (२३) विविध मुद्राओं द्वारा देवपूजन, (२४) सारथ्य, (२५) गजादि की गतिशिक्षा, (२६) बर्तन बनाना, (२७) चित्रकला, (२८) तालाब, प्रासाद आदि के लिए भूमि तैयार करना, (२९) घटादि द्वारा वादन, (३०) रंगसाजी, (३१) भाप के प्रयोग-जलवाटवग्नि संयोगनिरोधै: क्रिया, (३२) नौका, रथादि यानों का ज्ञान, (३३) यज्ञ की रस्सी बटने का ज्ञान, (३४) कपड़ा बुनना, (३५) रत्नपरीक्षण, (३६) स्वर्णपरीक्षण, (३७) कृत्रिम धातु बनाना, (३८) आभूषण गढ़ना, (३९) कलई करना, (४०) चर्मकार्य, (४१) चमड़ा उतारना, (४२) दूध के विभिन्न प्रयोग, (४३) चोली आदि सीना, (४४) तैरना, (४५) बर्तन माँजना, (४६) वस्त्रप्रक्षालन (संभवत: पालिश करना), (४७) क्षौरकर्म, (४८) तेल बनाना, (४९) कृषिकार्य, (५०) वृक्षारोहण, (५१) सेवाकार्य, (५२) टोकरी बनाना, (५३) काँच के बर्तन बनाना, (५४) खेत सींचना, (५५) धातु के शस्त्र बनाना, (५६) जीन, काठी या हौदा बनाना, (५७) शिशुपालन, (५८) दंडकार्य, (५९) सुलेखन, (६०) तांबूलरक्षण, (६१) कलामर्मज्ञता, (६२) नटकर्म, (६३) कलाशिक्षण, और (६४) साधने की क्रिया।

प्रगट है कि इन कलाओं में से बहुत कम का संबंध ललित कला या फ़ाइन आर्ट्स से है। ललित कलाअर्थात् चित्रकला, मूर्तिकला आदिका प्रसंग इनसे भिन्न और सौंदर्यशास्त्र से संबंधित है। (उसकी सामग्री के लिये देखें 'ललित कला' लेख)। (रा.चं.शु.)