कर्वे, धोंडो केशव (महिर्ष) महाराष्ट्र के मुरुड नामक कस्बे में १८ अप्रैल, १८५८ ई. को एक गरीब परिवार में जन्म। पिता का नाम केशवपंत और माता का लक्ष्मीबाई। आरंभिक शिक्षा मुरुड में हुई। पश्चात् सतारा में दो ढाई वर्ष अध्ययन करके बंबई के राबर्ट मनी स्कूल में दाखिल हुए। १८८४ ई. में उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय से गणित विषय लेकर बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। बी.ए. करने के बाद वे एलफिंस्टन स्कूल में अध्यापक हो गए। कर्वे का विवाह १५ वर्ष की आयु में ही हो गया था और बी.ए. पास करने तक उनके पुत्र की अवस्था ढाई वर्ष हो चुकी थी। अत: खर्च चलाने के लिए स्कूल की नौकरी के साथ-साथ लड़कियों के दो हाईस्कूलों में वे अंशकालिक काम भी करते थे। गोपालकृष्णन गोखले के निमंत्रण पर १८९१ ई. में वे पूना के प्रख्यात फ़र्ग्युसन कालेज में प्राध्यापक बन गए। यहाँ लगातार २३ वर्ष तक सेवा करने के उपरांत १९१४ ई. में उन्होंने अवकाश ग्रहण किया।

भारत में हिंदू विधवाओं की दयनीय और शोचनीय दशा देखकर कर्वे, बंबई में पढ़ते समय ही, विधवा विवाह के समर्थक बन गए थे। उनकी पत्नी का देहांत भी उनके बंबई प्रवास के बीच हो चुका था। अत: ११ मार्च, १८९३ ई. को उन्होंने गोड़बाई नामक विधवा से विवाह कर, विधवा विवाह संबंधी प्रतिबंध को चुनौती दी। इसके लिए उन्हें घोर कष्ट सहने पड़े। मुरुड में उन्हें समाजबहिष्कृत घोषित कर दिया गया। उनके परिवार पर भी प्रतिबंध लगाए गए। कर्वे ने 'विधवा विवाह संघ' की स्थापना की। किंतु शीघ्र ही उन्हें पता चल गया कि इक्के-दुक्के विधवा विवाह करने अथवा विधवा विवाह का प्रचार करने से विधवाओं की समस्या हल होनेवाली नहीं है। अधिक आवश्यक यह है कि विधवाओं को शिक्षित बनाकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा किया जाए ताकि वे सम्मानपूर्ण जीवन बिता सकें। अत: १८९६ ई. में उन्होंने 'अनाथ बालिकाश्रम एसोसिएशन' बनाया और जून, १९०० ई. में पूना के पास हिंगणे नामक स्थान में एक छोटा सा मकान बनाकर 'अनाथ बालिकाश्रम' की स्थापना की गई। ४ मार्च, १९०७ ई. को उन्होंने 'महिला विद्यालय' की स्थापना की जिसका अपना भवन १९११ ई. तक बनकर तैयार हो गया।

काशी के बाबू शिवप्रसाद गुप्त जापान गए थे और वहाँ के महिला विश्वविद्यालय से बहुत प्रभावित हुए थे। जापान से लौटने पर १९१५ ई. में गुप्त जी ने उक्त महिला विश्वविद्यालय से संबंधित एक पुस्तिका कर्वें को भेजी। उसी वर्ष दिसंबर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का बंबई में अधिवेशन हुआ। कांग्रेस अधिवेशन के साथ ही 'नैशनल सोशल कानफ़रेंस' का अधिवेशन होना था जिसके अध्यक्ष महर्षि कर्वे चुने गए। गुप्त जी द्वारा प्रेषित पुस्तिका से प्रेरणा पाकर कर्वे ने अपने अध्यक्षीय भाषण का मुख्य विषय 'महाराष्ट्र में महिला विश्वविद्यालय' को बनाया। महात्मा गांधी ने भी महिला विश्वविद्यालय की स्थापना और मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने के विचार का स्वागत किया। फलस्वरूप १९१६ ई. में, कर्वे के अथक प्रयासों से, पूना में महिला विश्वविद्यालय की नींव पड़ी, जिसका पहला कालेज 'महिला पाठशाला' के नाम से १६ जुलाई, १९१६ ई. को खुला। महर्षि कर्वें इस पाठशाला के प्रथम प्रिंसिपल बने। लेकिन धन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने अपना पद त्याग दिया और धनसंग्रह के लिए निकल पड़े। चार वर्ष में ही सारे खर्च निकालकर उन्होंने विश्वविद्यालय के कोष में दो लाख १६ हज़ार रुपए से अधिक धनराशि जमा कर दी। इसी बीच बंबई के प्रसिद्ध उद्योगपति सर विट्ठलदास दामोदर ठाकरसी ने इस विश्वविद्यालय को १५ लाख रुपए दान दिए। अत: विश्वविद्यालय का नाम श्री ठाकरसी की माता के नाम पर 'श्रीमती नत्थीबाई दामोदर ठाकरसी (एस.एन.डी.टी.) विश्वविद्यालय रख दिया गया और कुछ वर्ष बाद इसे पूना से बंबई स्थानांतरित कर दिया गया। ७० वर्ष की आयु में कर्वे उक्त विश्वविद्यालय के लिए धनसंग्रह करने यूरापे, अमरीका और अफ्रीका गए।

सन् १९३६ ई. में गांवों में शिक्षा के प्रचार के लिए कर्वे ने 'महाराष्ट्र ग्राम प्राथमिक शिक्षा समिति' की स्थापना की, जिसने धीरे-धीरे विभिन्न गाँवों में ४० प्राथमिक विद्यालय खोले। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद यह कार्य राज्य सरकार ने सँभाल लिया।

सन् १९१५ ई. में कर्वे द्वारा मराठी भाषा में रचित 'आत्मचरित' नामक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी। १९४२ ई. में काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने उन्हें डा. लिट्. की उपाधि प्रदान की। १९५४ ई. में उनके अपने महिला विश्वविद्यालय ने उन्हें एल.एल.डी. की उपाधि दी। १९५५ ई. में भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मविभूषण' से अलंकृत किया और १०० वर्ष की आयु पूरी हो जाने पर, १९५७ ई. में बंबई विश्वविद्यालय ने उन्हें एल.एल.डी. की उपाधि से सम्मानित किया। १९५८ ई. में भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान 'भारतरत्न' से विभूषित किया। भारत सरकार के डाक तार विभाग ने इनके सम्मान में एक डाक टिकट निकालकर इनके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की थी। देशवासी आदर से उन्हें महर्षि कहते थे१ ९ नवंबर, १९६२ ई. को १०४ वर्ष की आयु में 'महर्षि' कर्वें का शरीरांत हो गया। (कै.चं.श.).