कर्णिकार एक वृक्षविशेष का नाम है जो पुष्पित होने पर वनश्री की शोभा बढ़ाता है और जिसके पुष्पों एवं मंजरियों को महिलाएँ कर्णाभरण के रूप में प्राचीन काल से उपयोग करती रही हैं। साहित्य में इसीलिए इसका जहाँ-तहाँ उल्लेख मिलता है।

आयुर्वेदीय संहिताओं में कर्णिकार का नाम नहीं मिलता, परंतु निघंटुओं में यह प्राय: आरग्वध (अमलतास) का एक भेद अथवा पर्याय माना गया है। अमरकोष के टीकाकारों ने इसकी लोकसंज्ञा 'कंठचंपा' बतलाई है, जो मुकचंद अथवा कचनार दोनों ही हो सकता है। भावप्रकाश के रचयिता 'पांगारा इति लोके प्रसिद्ध:' कहकर पारिभद्र (फरहद) को कर्णिकार मानते हैं। इस प्रकार विभिन्न मतों के अनुसार चार वृक्ष जातयों-अमलतास, कचनार, मुकचंद और फरहद-को कर्णिकार माना जा सकता है।

काव्य में कर्णिकार के जिस रूपरंग की ओर संकेत किया गया है उससे ज्ञात होता है कि इसके पुष्पों को 'हेमद्युति' अर्थात् स्वर्णवत् पीतवर्ण होना चाहिए। अमलतास की मंजरियों में पीतवर्ण के सुकोमल पुष्प रहते हैं, जिन्हें कर्णाभरण के रूप में पहन भी सकते हैं। कचनार, पारिभद्र और मुचकंद के पुष्प भी कर्णफूल के सदृश प्रयुक्त होते रहे हैं। संभव है, उपयोगसादृश्य के कारण उन्हें भी 'कर्णिकार' कह दिया गया हो, क्योंकि कहीं-कहीं इसे 'हुतहुताशनदीप्ति' भी कहा गया है। कचनार तथा पारिभद्र के पुष्पों को यह विशेषण दिया जा सकता है। सभी बातों पर विचार करने अमलतास को ही वास्तविक कर्णिकार कहना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। (ब.सिं.)