कर्णचेदि लगभग सन् १०४१ में चेदीश्वर गांगेयदेव की मृत्यु और उसका पुत्र कर्ण गद्दी पर बैठा। राज्य के पहले सात वर्षों में उसने अनेक दिशाओं में विजय प्राप्त की। पूर्व में उसने बंगाल के राजा गोविंदचंद्र को हराया और उसके स्थान पर वीरवर्मा को बैठाकर उसके पुत्र जातवर्मा से अपनी कन्या वीरश्री का विवाह किया। दक्षिण में कांची प्रदेश को उसने लूटा। पश्चिमी चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रथम पर और गुजरात के राजा भीमदेव प्रथम पर भी इन्होंने सन् १०४८ से पूर्व आक्रमण किया।

सन् १०४८ के बाद उसने केवल विजय ही प्राप्त नहीं की, अपने राज्य का चारों ओर विस्तार भी किया। मालवे में उस समय परमार राजा भोज प्रथम का राज्य था। भोज के हाथों अपने पिता गांगेयदेव की पराजय का बदला लेने के लिए कर्ण ने गुजरात के राजा भीमदेव प्रथम से लिकर मालवे पर पूर्व और पश्चिम दिशाओं से आक्रमण किया। भोज की इसी समय मृत्यु हो गई। भीम और कर्ण ने इस स्थिति का लाभ उठाकर मालवे की राजधानी धारा को जीत लिया और भोज के उत्तराधिकारी जयसिंह परमार को भी संभवत: सिंहासन से उतार दिया। कर्ण ने मालवे की बहुत सी भूमि आत्मसात् कर ली। भीम को गज, अश्व, मंडपिकादि से संतुष्ट होना पड़ा। सन् १०५१ के आस पास कर्ण ने चंदेल राजा देववर्मा को भी परास्त किया और जिझौती को अपने राज्य में मिला लिया। उत्तर-पश्चिमी बंगाल में गौड़ाधिपति विग्रहपाल तृतीय उससे हारा। किंतु कर्ण ने अपनी कन्या यौवनश्री का विग्रहपाल से विवाह किया और इस प्रकार शत्रुता मित्रता में परिवर्तित हो गई। सन् १०५२ में भारत का बहुत सा भूभाग कर्ण के अधीन था और आसपास के राजा उससे मेलजोल बढ़ाने में अपनी कुशल समझते थे। इसी चक्रवर्तित्व की स्थापना के लिए संभवत: कर्ण ने अपना पुनरभिषेक किया।

जीवन के उत्तरार्ध में कर्ण की यह समृद्धि कुछ क्षीण हो गई। परमार राजा जयसिंह ने चालुक्यराज सोमेश्वर का शरण ग्रहण की और चालुक्य राजकुमार विक्रमादित्य ने कर्ण को हराकर जयसिंह का एक बार फिर गद्दी पर बिठाया। चंदेल राज्य भी कर्ण के हार्थों से निकल गया। देववर्मा के उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मा ने कर्ण को हराकर जिझौती की पराधीनता समाप्त की।

अपने राज के अंतिम दिनों में कर्ण के मालवे के परमार राज्य की समाप्ति का फिर प्रयत्न किया। सोमेश्वर प्रथम की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी सोमेश्वर द्वितीय ने मालवराज के मित्र अपने भाई विक्रमादित्य की बढ़ती शक्ति से शंकित होकर कर्ण से संधि की और मालवे पर आक्रमण कर दिया। जयसिंह परमार हारा और अपना राज्य खो बैठा। सोमेश्वर को शायद मालवराज्य का दक्षिणी भाग और अवशिष्ट भाग कर्ण को मिला हो। किंतु इस बार भी कर्ण अधिक समय तक मालवे को अपने अधिकार में न रख सका। उदयादित्य परमार ने सन् १०७३ के लगभग कर्ण को हराया और मालवे में पुन: परमार राज्य की स्थापना की। इसके कुछ समय बाद ही कर्ण ने राज्य का त्याग कर अपने पुत्र यश:कर्ण को सिंहासनारूढ़ किया।

कर्ण कलचुरि वंश का सबसे प्रतापी शासक था। उसने अनेक राजाओं को हराया। किंतु कर्ण केवल योद्धा ही नहीं, भारतीय संस्कृति का भी पोषक था। काशी में उसने कर्णमेरु नाम का द्वादशभूमिक मंदिर बनाया। प्रयाग में कर्णतीर्थ का निर्माण कर उसने अपनी कीर्ति को चिरस्थायी किया। उसने विद्वान् ब्राह्मणों के लिए कर्णावती नामक ग्राम की स्थापना की और काशी को अपनी राजधानी बनाया। ब्राह्मणों को उसने अनेक दान दिए और अपने कर्ण का नाम सार्थक किया। उसके दरबार के अनेक कवियों में विशेष रूप से वल्लण, नाचिराज, कर्पूर, विद्यापति और कनकामर के नाम उल्लेख्य हैं। कश्मीरी कवि विल्हण को भी उसने सत्कृत किया था।

सं.ग्रं.-वी.वी. मिराशी : कार्पस इंस्क्रिप्शनम् इंडिकेरम, प्रस्तावना भाग; एच.सी. राय : डाइनैस्टिक हिस्ट्री ऑव नार्दर्न इंडिया, जिल्द २; आर.डी. बैनर्जी : हैहयाज़ ऑव त्रिपुरी ऐंड देयर मान्यूमेंट्स; हीरालाल : मध्य प्रदेश का इतिहास, ना.प्र. सभा, काशी। (द.श.)