औषध-प्रभाव-विज्ञान (फ़ार्माकॉलोजी) शारीरिक अवयवों पर ओषधियों के प्रभाव को कहते हैं। प्राचीन काल में यह केवल उन वनस्पति पदार्थो का संकलन मात्र था जिनको रोगों में लाभ पहुँचानेवाला समझा जाता था। वर्षो तक इसका नाम मैटीरिया मेडिका रहा।
आधुनिक औषध-प्रभाव-विज्ञान अब १० शाखाओं में विभक्त हैं।
(१)फ़ार्मेको डायनैमिक्स, २. मैटीरिया मेडिका, ३. फ़ार्मेकोग्नोसी, ४. फ़ार्मेसी, ५. फ़ार्मास्युटिक्स, ६. थेराप्यूटिक्स, ७. केमोथेरैपी, ८. फ़ार्मेकोथेरैपी, ९. पोसोलाजी, १०. टाक्सिकॉलाजी।
फ़ार्मेको डायनैमिक्स के अंतर्गत ओषधियों के गुणों का प्रयोगात्मक एवं उनका जीवों के शरीर में जो अंतिम रूप होता है, उसका अध्ययन किया जाता है।
मैटीरिया मेडिका के अंतर्गत औषधियों के मूल पदार्थ तथा उनके बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया जाता है।
फ़ार्मेकोग्नोसी के अंतर्गत औषधियों के वानस्पतिक, रासायनिक तथा भौतिक लक्षणों का अध्ययन किया जाता है।
फ़ार्मेसी के अंतर्गत औषधियों को एकमित कर उन्हें मात्रक तथा मानक रूप दिय जाता है।
फ़ार्मास्युटिक्स के अंतर्गत औषधियों को रोगों हेतु प्रयोग किए जाने की विधि का वर्णन किया जाता है।
थेराप्युटिक्स के अंतर्गत औषध-प्रभाव-विज्ञान का रोग-निवारण-हेतु लक्षणों के आधार पर प्रयोग का वर्णन रहता है।
फ़ार्मेकोथेरैपी के अंतर्गत बाधक अवस्था में सूक्ष्म जीवों की रासायनिक संवेदनों के प्रति क्रियाशीलता का वर्णन रहता है।
कैमोथेरैपी के अंतर्गत रासायनिकों द्वारा रोगनिवारण तथा ज्ञात रासायनिक संरचना एवं संबंधित रासायनिक संरचना वाली ओषधियों के शरीर पर प्रभाव का अध्ययन किया जाता है।
पोसोलाजी के अंतर्गत औषधियों की उपयुक्त मात्राओं का अध्ययन किया जाता है।
टाक्सिकोलाजी के अंतर्गत लक्षण रासायनिक पुष्टीकरण तथा प्रतिबिंब के उपयोग आदि का अध्ययन किया जाता है। (र.प्र.ति.; शै.कु.त्रि.)
मनुष्य को प्राचीन काल से ही वनस्पतियों का ज्ञान रहा है क्योंकि वह सदा से उन्हीं के संपर्क में रहा है। रेचक एवं निद्राजनक द्रव्य वनस्पतियों में भी प्राय: होते हैं। इनका कभी मानव ने अचानक प्रयोग किया होगा, जिससे उनके परिणाम या प्रभाव का उसने अनुभव किया होगा। द्राक्षा के किण्वन से मद्य को उत्पन्न करने की रीति मनुष्य को अति प्राचीन काल से ज्ञात रही है। संज्ञाहारी तथा विषों में बुझे हुए बाणों का प्रयोग भी वह प्राचीन काल से करता आया है।
कई सहस्र वर्ष पूर्व उपचार के लिए ओषधियों के प्रयोग में मनुष्य की पर्याप्त रुचि हो चुकी थी। प्राचीन हिंदू पुस्तकों में ओषधियों के निर्माण में यंत्रमंत्रादि का विस्तृत उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में ऐसे अनेक विधानों का वर्णन है। कई सौ ओषधियों का सामूहिक विवरण चरक तथा सुश्रुतसंहिता एवं निघंटु में मिलता है। अन्य पूर्ववर्ती वनस्पतिसूचियों में मिस्र का इबर्स पैपरिस है जो लगभग १,५०० ई.पू. में संकलित हुआ था। हिप्पोक्रेटिस (४६०-३७७ ई.पू.) ने बृहत रूप से वानस्पतिक ओषधियों का प्रयोग किया तथा उसके लेखों में ऐसे ३०० पदार्थो का ब्योरा है। गैलेन (१३०-२०० ई.) ने, जो रोम का एक सफल चिकित्सक था, चिकित्सोपयोगी ४०० वनस्पतियों की सूची तैयार की थी। मध्ययुग में यह इस क्षेत्र में सर्वमान्य पुस्तक थी।
इब्न सीना ने अपना ओषधिज्ञान यूनान से प्राप्त किया था तथा आज भी इस देश में उसकी चिकित्साप्रणाली यूनानी प्रणाली के नाम से जानी जाती है।
पैरासेल्सस (१४९३-१५४१ ई.) बासेल विश्वविद्यालय में रसायन का अध्यापक था। इसने सर्वप्रथम चिकित्सा में धातुओं का प्रयोग किया। उपदंश (सिफ़िलिस) की चिकित्सा में पारद् के उपयोग का श्रेय इसी को है। प्राय: इसी काल में भारत में रसशास्त्र का विकास हुआ।
१७८३ ई. में अंग्रेज चिकित्सक विलियम विदरिंग ने अपना युगांतरकारी लेख प्रकाशित किया जिसमें डिजिटैलिस द्वारा हृदयरोग के उपचार का वर्णन था।
अब तक औषधियाँ वानस्पतिक पदार्थो से ही तैयार की जाती थीं। १८०७ ई. में जर्मन भैषजिक सरटुरनर ने अफीम में से मारफ़ीन नामक ऐलकलाएड निकाला तथा यह सिद्ध किया कि अफीम का प्रावसादक गुण इसी के कारण है। तदुपरांत वनस्पतियों से अनेक सक्रिय पदार्थ निकाले गए जिनमें स्ट्रिकनीन, कैफ़ीन, एमिटीन, ऐट्रोपीन तथा क्विनीन आदि ऐलकलाएड हैं।
१८२८ ई. में वलर (Wohler) ने यूरिया का संश्लेषण किया। इसके बाद तो कार्बन रासायनिकों द्वारा लाखों कार्बनिक यौगिक संशिलष्ट किए गए। इनमें से कितने ही आगे चलकर मनुष्य तथा पशुरोगों में बहुमूल्य सिद्ध हुए। सन् १९१० में पाल एर्लिख (Paul Ehrlich) ने आर्सफ़ेनामीन नामक औषध तैयार किया। यह उपदंश के उपचार के हेतु अन्वेषण की जानेवाली ६०६ वीं औषधि थी। यह औषधि न केवल वर्षो के अनुसंधान का अमूल्य फल थी, वरन् पहली कीटाणुनाशक संश्लिष्ट ओषधि थी, जो कीटाणुविशेष पर प्रभाव डालती थी। परवर्ती २५ वर्षो में रसायनचिकित्सा में विशेष प्रगति नहीं हुई, यद्यपि विटामिन तथा हारमोन के क्षेत्रों में बहुमूल्य अनुसंधान हुए।
१९३५ ई. में डोमाक ने सल्फ़ोनामाइड औषधियों का आविष्कार किया। बुड्स और फ़ाइल्ड्स ने इनकी प्रभावप्रणाली का विशदीकरण किया तथा जिस सिद्धांत का प्रतिपादन इन्होंने किया उसके आधार पर कई बहुमूल्य ओषधियाँ बनीं, जैसे मलेरियांतक, अमीबा नाशक तथा क्षयजीवाणु-नाशक द्रव्यादि। फ़्लेमिंग द्वारा पेनिसिलीन के आविष्कार ने फ़ारमाकॉलोजी में एक नया अध्याय आरंभ किया। आज हमें स्ट्रेप्टोमाइसीन, क्लोरोमाइसेटीन, सल्फ़ा ड्रग्स तथा टेट्रासाइक्लीन आदि कई उपयोगी प्रतिजैविक ओषधियाँ प्राप्त हैं। आधुनिक आविष्कारों में से प्राशांतक (ट्रैंक्विलाइज़र्स) तथा रेडियो सक्रिय समस्थानिक महत्वपूर्ण हैं।
पिछले २५ वर्षो में फ़ारमाकॉलोजी में जितनी प्रगति हुई वह पहले कई हजार वर्षो में भी नहीं हुई थी तथ यह प्रगति बढ़ ही रही है।
सं.ग्रं. टी. सालीनान : मैनुअल ऑव फ़ारमाकॉलोजी (फ़िलाडेल्फ़िया, १९२६)। (मो.ला.गु.)