औषधनिर्माण चिकित्सा में प्रयुक्त द्रव्यों के ज्ञान को औषधनिर्माण अथवा भेषज विज्ञान भी कहते हैं। इसके अंतर्गत औषधों का ज्ञान तथा उनका संयोजन ही नहीं वरन् उनकी पहचान, संरक्षण, निर्माण, विश्लेषण तथा प्रमापण भी हैं। नई औषधों का आविष्कार तथा संश्लेषण भेषज (फ़ार्मेसी) के प्रमुख कार्य हैं। फार्मेसी उस स्थान को भी कहते हैं जहाँ औषधयोजन तथा विक्रय होता है।
जब तक भेषजीय प्रविधियाँ सुगम थीं तब तक भेषज विज्ञान चिकित्सा का ही अंग था। परंतु औषधों की संख्या तथा प्रकारों के बढ़ने तथा उनकी निर्माणविधियों के क्रमश: जटिल होते जाने से भेषज विज्ञान के अलग विशेषज्ञों की आवश्यकता पड़ी।
अध्ययन के लिए भेषज विज्ञान दो भागों में बाँटा जा सकता है क्रियात्मक तथा सैद्धांतिक भेषज।
सैद्धांतिक भेषज के अंतर्गत भौतिकी, रसायन, गणित और सांख्यिक विश्लेषण तथा वनस्पति विज्ञान, प्राणिशास्त्र, वनौषध परिचय, औषध-प्रभाव-विज्ञान, सूक्ष्म-जीव-विज्ञान तथा जैविकीय प्रमापण का भी ज्ञान आता है। साथ ही, इसमें भाषाज्ञान, भेषज संबंधी कानून, औषधनिर्माण, प्राथमिक चिकित्सा और सामाजिक स्वास्थ्य इत्यादि भी सम्मिलित हैं।
क्रियात्मक भेषज विज्ञान विज्ञान की वह शाखा है जिसमें भेषज के सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप में लाने के हेतु प्रयुक्त विधियों तथा निर्माण क्रियाओं का ज्ञान आता है। इसके अंतर्गत औषध संयोजन तथा भेषजीय द्रव्यों का निर्माण भी है।
क्रियात्मक भेषज विज्ञान के अध्ययन में छात्र को घोल, चूर्ण, कैपसूल, मलहल, गोलियाँ, लेप, वर्ती (सपोज़िटरी), टिकियाँ, इंजेक्शन आदि बनाना सीखना पड़ता है। साधारण उपकरणों से लेकर जटिल यंत्रों तक के प्रयोग की विधि विद्यार्थी को सीखनी पड़ती है। औषधों की सूची का संकलन तथा उनके गुण, प्रभाव आदि और निर्माणविधि का वर्णन जिस ग्रंथ में किया गया है उसको औषधकोष (फ़ारमेकोपिया) कहते हैं। कितने ही राष्ट्र मिलकर अथवा एक राष्ट्र स्वत: भी अपना औषधकोष विशेषज्ञों की समिति द्वारा प्रकाशित करवाता है जिसमें चिकित्सोपयोगी पदार्थो की सूची, उनकी निर्माणविधि, नाप तौल आदि दी रहती है। समय-समय पर इसको दोहराया जाता और प्रयोगानुसार औषधों को घटाया बढ़ाया जाता है। एक अंतरराष्ट्रीय फ़ारमेकोपिया भी बनती है। यह प्रथम बार सन् १९५१ में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू. एच.ओ.) द्वारा प्रकाशित हुई थी। इससे सब राष्ट्रों की फ़ारमेकोपियो का एकीकरण किया गया है।
पहली भारतीय फ़ारमेकोपिया (आई.पी.) सन् १९५५ में संकलित हुई और आजकल एक अतिरिक्त भाग संकलित हो रहा है। फ़ारमेकोपिया के अतिरिक्त कई देशों में अन्य प्रामाणिक पुस्तकें भी हैं। अमरीका में एक नैशनल पत्रावली (नैशनल फ़ारमुलरी) और एक न्यू ऐंड ऑफ़िशियल रेमेडीज़ नाम की पुस्तक है। इसी प्रकार की पुस्तकें अन्य राष्ट्रों ने भी तैयार की हैं।
अस्पतालों तथा औषधशालाओं में प्रयुक्त क्रियाओं में से कुछ ये हैं :
निस्सादन (लेविगेशन) औषध को जल के साथ घोटकर सुखा लेना तथा उसका महीन चूर्ण तैयार करना।
प्रोद्धावन (इल्यूशन) किसी अघुलनशील चूर्ण को पानी में मिलाकर भारी भाग को बैठ जाने देते हैं। फिर ऊपर के द्रव को निथार लेते हैं। ऐसा कई बार करने पर ऐसा द्रव मिल जाता है जिसमें वांछित महीन चूर्ण निलंबित रहता है।
मृदुभावन (मैसिरेशन) औषध के मोटे चूर्ण को किसी द्रव में भिगोकर समय-समय पर पात्र को हिलाते रहते हैं। अंत में परिणामी घोल को निकाल लेते हैं। इस प्रकार प्राप्त घोल को सत्व या टिंक्चर कहते हैं।
च्यवन (परकोलेशन) किसी औषध के ऊपर कोई विलायक डालकर उसका विलेय भाग निकाल लेने को च्यवन कहते हैं। यह क्रिया एक शंक्वाकार पात्र में की जाती है तथा ऊपर विलायक छोड़कर नीचे के छिद्र से विलयन बूँद-बूँद करके इकट्ठा कर लिया जाता है। अनेक सत्व तथा टिंक्चर इसी प्रकार बनते हैं।
प्रमापण क्रिया (स्टैंडर्डाइज़िंग) फ़ार्माकोपिया का आदेश है कि कुछ निमित्त ओषधियाँ प्रमापित की जाएँ, अर्थात यह देखा जाए कि उनमें उनकी प्रमुख औषधि एक निर्धारित अनुपात में अवश्य विद्यमान रहे।
जैविकीय प्रमापण (बायोलॉजिकल स्टैंडर्डाइज़ेशन) यदि कोई औषधि रसायनविशेष हो तो ओषधि को रासायनिक विधियों द्वारा प्रमापित किया जा सकता है। परंतु कुछ ओषधियों की माप घटा बढ़ाकर जीवित प्राणी पर उसके प्रभाव की न्यूनाधिकता से ही उसका प्रमापण संभव है; उदाहरणार्थ हारमोन, हीपेरिन, पेनिसिलिन आदि। ऐसे प्रमापण को जैविकीय प्रमापण कहते हैं।
साधारणत: प्रयुक्त भैषज पदार्थो का वर्गीकरण निम्नलिखित है :
वारि (ऐक्वी) ये प्राय: सौरभिक तेलों को जल के साथ हिलाकर बनते हैं; स्रवित जल भी इसी सूची में है।
क्रीम त्वचा पर लगानेवाली ओषधि को क्रीम कहते हैं।
पायस (इमलशन) यदि दो न मिल सकनेवाले द्रव्यों को इस प्रकार मिश्रित कर दिया जाता है कि वे पर्याप्त समय तक अलग नहीं होते ता पायस प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ, मछली के तेल का पायस
सार (एक्स्ट्रैक्ट) वनस्पति या अन्य पदार्थ से किसी विलायक द्वारा विलेय भाग निकालकर उसे गाढ़ा कर लेते या सुखा लेते हैं। इस तरह तरल अथवा शुष्क निस्सार बन जाता है।
अंत:क्षेप (इंजेक्शन) त्वचा के नीचे, पेशी में या नस में सुई द्वारा प्रवेश करने योग्य ओषधि को इंजेक्शन कहते हैं।
मृदय (लिनिमेंट) ये तैलीय या मद्यसारयुक्त लेप हैं जो त्वचा पर रगड़े जाते हैं।
विलयन (लिकर) प्राय: जल में या मद्यसार में किसी रसायनविशेष के घोल को लिकर कहते हैं।
अवनेग (लोशन) किसी ओषधि को जल के साथ मिलाकर किसी अंगविशेष को धोने के लिए या पट्टी भिगोकर रखने के लिए बनाई गई ओषधि को लोशन कहते हैं।
गोली (पिल) एक या कई ओषधियाँ मिलाकर गोली के रूप में बना दी जाती हैं तथा निगलने के लिए दी जाती है। दु:स्वाद छिपाने के लिए प्राय: इन पर शर्करादि का लेप कर दिया जाता है।
मिश्रण (मिक्स्चर) कई ओषधियों को जल अथवा अन्य किसी पेय में मिलाकर नियमित मात्रा में पिलाने के लिए बनी ओषधि को मिक्सचर कहते हैं।
चूर्ण (पाउडर) यह एक ओषधि अथवा कई ओषधियों का चूर्ण होता है।
प्रासव (स्पिरिट) यह सौरभिक तैलों अथवा अन्य किसी द्रव का मद्यसार में घोल होता है।
वर्ती (सपोज़िटरी) किसी नरम पदार्थ से छोटी पेंसिल के समान बनी वस्तु है, जिसमें ओषधि मिली रहती है तथा जो गुदाद्वार या योनि में प्रविष्ट करा दी जाती है।
टिकिया (टैब्लेट) ये प्राय: मशीन से बनती हैं तथा इनमें एक या कई ओषधियाँ होती हैं।
निष्कर्ष (टिंक्चर) जैसा पहले लिखा जा चुका है, यह वनस्पति पदार्थो के ऊपर कोई विलायक (प्राय: मद्यसार) छोड़कर बनाई जाती है। घुलनशील तत्व इस प्रकार विलायक में आ जाते हैं।
मलहम (अंग्वेंट) ये वैसलीन आदि में किसी ओषधि को फेंटकर बनाए जाते हैं तथा त्वचा पर लगाने के काम आते हैं।
सं.ग्रं. इयर बुक ऑव फ़ारमेसी (प्रति वर्ष छपता है), फ़ार्मासूटिकल जनरल (पत्रिका); एच.वी. आर्नी : प्रिंसिपल्स ऑव फ़ार्मेसी (१९२६); एडवर्ड क्रेमर्स और जॉर्ज उरडांग : हिस्ट्री ऑव फ़ार्मेसी। (मो.ला.गु.)