औरंगजेब (आलमगीर प्रथम) अबुलजफर मुहिद्दीन मुहम्मद औरंगजेब मुगल सम्राट् शाहजहाँ की छठी संतान और तीसरा बेटा था। रविवार, २४ अक्टूबर, सन् १६१८, ई. (१५ जीकादा, १०२७ हि.) को दोहद में उसका जन्म हुआ था, जो महाराष्ट्र राज्य के पंचमहाल ताल्लुके में है। शाहजहाँ इस समय मलिक अंबर के बलवे का दमन करने के लिए दकन गया हुआ था। औरंगजेब की माता मुमताज महल नूरजहाँ के भाई आसफ खाँ की बेटी थी।
इस घटना के कुछ ही समय बाद मुगल दरबार में राजनीति ने पलटा खाया और शाहजहाँ ने १६२२ में अपने पिता सम्राट् जहाँगीर के विरुद्ध बलवे का झंडा खड़ा कर दिया। इस संघर्ष में शाहजहाँ परास्त हुआ और उसने अपने दो बेटों, दारा और औरंगजेब को १६२६ में जहाँगीर के पास लाहौर में बंधक रखना पड़ा। वहाँ पर लगभग डेढ़ बरस रहने के बाद औरंगजेब दारा सहित फरवरी, १६२८ में, अपने पिता के पास आगरे आया। जहाँगीर की अक्टूबर, १६२७ में मृत्यु हो गई थी और शाहजहाँ राजगद्दी पर बैठ चुका था। इस समय मीरमुहम्मद हाशिम गीलानी के द्वारा औरंगजेब की शिक्षा आरंभ हुई। शुरू से ही उसने बड़ी तीव्र बुद्धि का परिचय दिया किंतु उसे कुरानी तथा अन्य इस्लामी साहित्य के सिवा और किसी विद्या में रुचि न थी। वास्तु, शिल्प, चित्रकारी, काव्य, संगीत आदि कलाओं से उसे अरुचि ही नहीं, घृणा थी, क्योंकि वह इन सबको इस्लाम का विरोधी समझता था।
औरंगजेब की योग्यता-औरंगजेब औरंगजेब अत्यंत साहसी, वीर तथा योद्धा था। १६३३ में, जब वह केवल १५ बरस का था, उसने एक बौराए मस्त हाथी का इतने अविचल भाव तथा निर्भीकता से सामना किया था कि शाहजहाँ तथा सब दरबारी चकित रह गए थे। १६ बरस की उम्र में सम्राट् ने उसे १० हजारी मंसबदार बनाया और जुझार सिंह बुंदेले का दमन करने के लिए भेजा। १६४५ में वह गुजरात का सूबेदार बना। अपने सुप्रबंध के लिए उसे बड़ी प्रशंसा प्राप्त हुई। इसके बाद उसे बलख और बदखशाँ की चढ़ाई परभेजा गया। इस सुदूर तथा शीतग्रस्त, बीहड़ प्रदेश में, जहाँ के दुर्धर्ष सैनिकों से लोहा लेना अत्यंत कठिन कार्य था, औरंगजेब ने ऐसी वीरता तथा अनुपम धैर्य का परिचय दिया किउसकी ख्याति मुस्लिम जगत् में फैल गई। दोनों दलों में जब घमासान युद्ध हो रहा था, औरंगजब अपने हाथी से उतरा और बड़ी शांति तथा निश्चिंत भाव से नमाज पढ़ने लगा। जब यह बात शत्रु पक्ष के सुलतान ने सुनी तब उसने कहा कि ऐसे मनुष्य से लड़ाई करना अपनी मौत बुलाना है। उसने तुरंत लड़ाई बंद कर दी।
१६५२ के अगस्त मास में औरंगजेब दुबारा दकन का सूबेदार नियुक्त हुआ। इस पद पर वह छह बरस तक रहा। इस अवकाश में एक सुयोग्य अर्थमंत्री, मुर्शिद कुली खाँ की सहायता से उसने बरसों की लड़ाइयों से उजड़े हुए दकन प्रदेश का उद्धार एवं पुनर्निर्माण किया। अनेक कठिनाइयों तथा अड़चनों का सामना करते हुए उसने इस कार्य को बड़ी तत्परता से संपन्न किया। दकन की सूबेदारी के ये छह बरस औरंगजेब के लिए अत्यंत महत्वूपर्ण लाभकारी सिद्ध हुए। राजकाज तथा सैनिक नीति आदि का जो अनुभव इस अवसर से उसे प्राप्त हुआ वह भविष्य में उसके लिए बहुत हितकर सिद्ध हुआ।
राजगद्दी के लिए संघषर्-१६५८ में शाहजहाँ की कष्टसाध्य बीमारी की सूचना पाते ही औरंगजेब यथाशक्य सेना एकत्रित कर राजगद्दी के लिए अपने भाइयों से संघर्ष करने को उत्तर की ओर रवाना हुआ। जून, १६५८ में दारा को परास्त कर उसने आगरे पर अधिकार किया और अपने पिता सम्राट् शाहजहाँ को किले में बंद कर दिया। तदनंतर अपने छोटे भाई मुराद को घोर कपट एवं विश्वासघातपूर्वक मरवाकर वह दिल्ली पहुँचा और वहाँ बड़े समारोह से सिंहासनारूढ़ हुआ। एक बरस बाद उसने अपना राज्याभिषेकोत्सव दुबारा मनाया।
शासन का पूर्वार्ध-औरंगजेब ने पूरे ५० बरस राज किया। उसके राज्यकाल को दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहले २५ बरस वह उत्तर भारत में रहा। इसमें उसने साम्राजय की नीति में मौलिक परिवर्तन किए और दक्षिण एवं उत्तर-पश्चिम की रक्षा की गहन समस्याओं का समाधान करने का भरसक प्रयत्न किया। साथ ही साम्राज्य का विस्तार दक्षिण की ओर करने के प्रयास में उसने कोई कसर न की। इसके अतिरिक्त उसने पतनोन्मुख मुसलमान जाति का पुररुत्थान करने के हेतु तथा अपने संकीर्ण धार्मिक विचारों को क्रियात्मक रूप देने के लिए हिंदुओं के प्रति अत्याचार एवं अन्याय की नीति का अनुसरण किया। उसने हिंदू धर्मस्थानों को ध्वस्त किया और जतिया आदि अनेक अन्यायपूर्ण कर हिंदुओं पर लगाए। इस प्रकार भेदभाव की नीति से तथा अनेक प्रलोभनों के द्वारा उसने हिंदुओं को मुसलमान बनाने का भरसक प्रयत्न किया। इस नीति का परिणाम यह हुआ कि साम्राज्य में असंतोष की ऐसी आग भड़क उठी जिसे वह जीवनभर अपनी समस्त शक्ति लगाकर दबाने का प्रयत्न करता रहा किंतु सफल न हुआ। उत्तर में सबसे भयानक विद्रोह उन्हीं राजपूतों का हुआ जो अकबर महान् के समय से ही साम्राज्य के स्तंभ रहे थे।
शासन का उत्तरार्ध-उसके शासनकाल का उत्तरार्ध १६८१ से आरंभ होता है, जब राजपूतों के साथ जल्दी से समझौता कर, औरंगजेब दकन पहुँचा। यहीं पर मराठे सैनिकों की छापामार टुकड़ियों के साथ संघर्ष करते-करते अंत समय में अपने कर्मों पर पश्चात्ताप करता हुआ ८९ बरस की आयु में यह मुगल सम्राट् औरंगाबाद में परलोक सिधारा।
मराठों से संघर्ष-शिवाजी की मृत्यु के बाद अपने संकल्पों की पूर्ति का सुअवसर समझकर औरंगजेब दकन गया था। लगभग आठ बरस के सतत संग्राम के बाद गोलकुंडा और बीजापुर की मृतप्राय रियासतों को जीतकर उसने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया और १६८९ में शिवाजी के अयोग्य एवं विलासी पुत्र शंभाजी का वध कर मराठा राज्य का भी बहुत सा भाग हस्तगत कर लिया। किंतु मराठा जाति इससे दबनेवाली न थी। तेज आँधी में जिस प्रकार जंगल की आग देखते-देखते फैलकर चारों ओर सबको भस्म करने लगती है, उसी प्रकार मराठा सैनिकों ने सम्राट् की महाकाय सेना को नष्ट करना आरंभ किया। इसका प्रतिकार औरंगजेब के बस का न था। मराठा जाति की उठती हुई बाढ़ में मुगल साम्राज्य का सारा वैभव बह गया। साम्राज्य का अपूर्व विस्तार तो हुआ पर उसकी जड़ें पहले से खोखली हो चुकी थी; वह स्वयं अपने बोझ के नीचे दबकर सम्राट् की आँख बंद होते ही छिन्न-भिन्न होने लगा।
चरित्र-औरंगजेब संसार के महान् सम्राटों में था। उसमें योग्य राजा, शासक तथा सैनिक के गुण विपुल मात्रा में विद्यमान थे। उसका निजी चरित्र पवित्र था और वह यथाशक्ति इस्लाम की शिक्षाओं का पालन करता था। रहन-सहन भी उसका सादा था। वह अत्यंत परिश्रमी, कार्यकुशल, तीव्रबुद्धि तथा विद्वान् था। मुगल सम्राटों में वह सबसे अधिक आयुष्मान् हुआ। किंतु उसकी संकीर्ण नीति, संकुचित सांप्रदायिक दृष्टि तथा अदूरदर्शी राजनीति ने उसके सब गुणों पर पानी फेर दिया और अंत में उसके साम्राज्य को नष्ट कर दिया।
परिवार-औरंगजेब ने दो विवाह किए थे और चार कनीजों को भी रखा था। उसके पाँच बेटे और चार बेटियाँ हुईं।
सं.ग्रं.-युदनाथ सरकार : ए ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑव औरंगजेब (१९३०); यदुनाथ सरकार : एनेक्डोट्स ऑव औरंगजेब (१९१२); एन्साइक्लोपीडिया ऑव इस्लाम। (प.श.)