द्रऔद्योगिक संबंध स्वामी और श्रमिक के निजी उद्देश्यों की भिन्नता ने औद्योगिक संबंधों की समस्या को जन्म दिया, जो अब विभिन्न देशों में होनेवाले औद्योगिक विकास के साथ अधिकाधिक जटिल होती जा रही है। मानव कल्याण के प्रसाधन के रूप में अब उद्योगों के समाजिक उद्देश्य भली भाँति स्वीकार कर लिया गया है। इसका अर्थ है, काम करने के लिए अधिक अनुकूल ऐसी अवस्थाओं का सृजन जिनके अंतर्गत उत्पादन को सुव्यवस्थित किया जा सके और उत्पादन के दो मुख्य प्रसाधनों, पूँजी और श्रम, के बीच होनेवाली क्रिया प्रतिक्रिया को सुविभाजित करने के लिए एक उपयुक्त सिद्धांत बन सके। कारखानों की पुरानी व्यवस्था के अंतर्गत पूँजीपति श्रमिकों के साथ एक विक्रेय वस्तु की भाँति व्यवहार करते थे और वे पारश्रमिक, काम के घंटों और नौकरी के प्रतिबंधों के लिए माँग एवं पूर्ति के नियम के अनुसार अनुशासित होते थे। आरंभ में तो श्रमिकों ने इसे टल जानेवाली विपत्ति समझा, किंतु बाद में उन्हें यह भान हुआ कि उनके ये दु:ख प्राय: स्थायी से हो चले हैं। स्वामी के अधिकारक्षेत्र में उनके सामाजिक एवं भौतिक अभाव दिन दूने रात चौगुने होते गए और इस प्रकार दोनों के संबंध इस ढंग के न रहे जिन्हें किसी भी प्राकर सद्भावनापूर्ण कहा जा सके। समस्या दिनों-दिन उग्र रूप धारण करती गई। अब औद्योगिक संबंधों का अर्थ केवल स्वामी श्रमिक का संबंध ही नहीं रहा, अपितु वैयक्तिक संबंध, सह परामर्श, समितियों के संयुक्त लेन-देन तथा इन संबंधों के निर्वाह कार्य में सरकार की भूमिका आदि सब कुछ है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूम्िा-मध्ययुग में व्यापारों का क्षेत्र छोटा था तथा स्वामी एवं श्रमिक अधिक निकट संपर्क में थे। श्रमिक स्वामियों से पृथक अपनी एक भिन्न जाति ही समझते थे। धीरे-धीरे उन्हें बोध हुआ कि उनकी व्यक्तिगत शक्ति कितनी अल्प थी। फिर उनकी स्थिति में और भी पतन हुआ जिससे वे क्रीतदास के समान हो गए और अंतत: स्वामी श्रमिक का संबंध इसी आधार पर स्थिर हुआ। उत्पादन कार्य में कारखानों की पद्धति प्रारंभ होने पर श्रमिक वर्ग ने अपना संघ स्थापित करना आरंभ किया। इस दिशा में सर्वप्रथम ब्रिटेन के श्रमिक १९वीं सदी में अग्रगामी सिद्ध हुए, यद्यपि उनके संघ १८२४ ई. तक गैरकानूनी प्रतिबंध लगा ही रहा। फिर भी, औद्योगिक संघटनों (ट्रेड यूनियन) के आंदोलन के विकास के साथ-साथ संयुक्त मोल भाव की प्रणाली शक्तिशाली बनती गई, और आज यह प्रणाली न केवल ब्रिटेन में, वरन् विश्व भर के देशों में, औद्योगिक संबंधों को सुनिश्चित करने की मुख्य प्रणाली के रूप में व्यवहृत हो रही है। इन संघटनों (यूनियन) का महत्व इतने से ही समझा जा सकता है कि १९०० ई. से इन्होंने कुछ देशों की राजनीति पर भी अपना प्रभाव डालना आरंभ कर दिया और उनके वर्तमान एवं भविष्य को अधिकाधिक प्रभावित करने लगे।
औद्योगिक-श्रम-संघटनों का अंतर्राष्ट्रीय संघ १९१९ ई. में स्थापित हुआ जिसमें ६० देशों के मालिकों, श्रमिकों एवं सरकारों के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। कुछ यूरोपीय देशों में मालिकों एवं श्रमिकों के संघटन सरकारी नियंत्रण में ले लिए गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान और उसके बाद भी अधिकांश देशों की सरकारों ने अपने मामलों में मालिकों एवं श्रमिकों के प्रतिनिधियों से परामर्श ग्रहण किया। अब सामान्यत: सभी श्रमिक देश के लिए अपना महत्व समझने लगे हैं और यह भी जान गए हैं कि उनकी सुखसुविधा अंतत: उत्पादन को विकसित करने पर ही अवलंबित है।
भारत में भी औद्योगिक श्रमिक वर्ग इन्हीं अवस्थाओं में से गुजरा और विपत्तियों का सामना करने को बाध्य हुआ। उस समय मालिक मजदूरों के बीच कटु मतभेदों के, जो प्राय: मद्रास, बंबई और अहमदाबाद जैसे बड़े नगरों में हड़ताल का रूप भी ले लेते थे, होते हुए भी सरकार ने सदैव तटस्थ रहने की नीति अपनाई। यह स्थिति प्रथम महायुद्ध के अंत तक क्रमश: उग्र होती ही गई, क्योंकि श्रमिकों की आर्थिक कठिनाइयाँ बहुत अधिक हो चली थीं और उनके सामूहिक जागर के चिह्न प्रकट हो चले थे। जीवनयापन के उन्नत स्तर एवं बढ़ती हुई मँहगाई की तुलना में भारतीय उद्योगों में पारिश्रमिक की दर बहुत कम पड़ रही थी। श्रमिकों ने उस प्रचुर लाभ में भी अपने भाग की माँग की जिसे उद्योगपतियों ने युद्धकाल में बटोरा था। इसी समय महात्मा गांधी राजनीति के क्षेत्र में आए। देश की बदलती राजनीतिक अवस्थाओं तथा 'अंतर्राष्ट्रीय श्रम संघ' की स्थापना ने उन्हें अपने राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक अधिकारों के प्रति सजग कर दिया था।देश में श्रमसंघटनों की एक लहर आ गई थी और औद्योगिक कलहों के १९२८ ई. में आनेवाले दूसरे दौर तक हुई प्राय: सभी हड़तालों को इन्हीं के कारण सफलता मिल पाई थी। भारत सरकार ने इन सबसे विवश होकर औद्योगिक कलह अधिनियम १९१९ में पारित किया, जिससे ये झगड़े शीघ्र सुलझाए जा सकें। सन् १९३७ में प्रदेशीय शासन हस्तगत करने के बाद उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार ने श्रमिक वर्ग की ठीक दशा जानने के लिए एक जाँच कमेटी नियुक्त की तथा बंबई में १९३८ का 'औद्योगिक कलह अधिनियम' इसी उद्देश्य से पारित हुआ कि ऐसे झगड़ों को निबटाने के लिए एक स्थायी साधन सुरक्षित रहे। सन् १९३९ में पुन: युद्ध छिड़ने के बाद मजदूरों की मजदूरी एवं रहन-सहन के खर्च के बीच की खाई चौड़ी होती गई। फलत: ऊँची मजदूरी और महँगाई भत्ते के लिए अनेक हड़तालें हुईं। इससे युद्धजनित पूर्ति का कार्य बाधित होने लगा और भारतरक्षा कानून, १९४२, के अंतर्गत कई पग उठाए गए जिनके कारण युद्धकाल में श्रमिकों को अनेक प्रकार के दु:ख झेलने पड़े।
१९४७ में भारत ने परतंत्रता का जुआ उतार फेंका। राजनीतिक परिवर्तनों, मुद्रास्फीति की कठिनाइयों, बाजार में वस्तुओं की कमी तथा अन्य युद्धोत्तर प्रभावों का लाभ उठाते हुए राजनीतिक दलों ने औद्योगिक उपद्रवों को प्रोत्साहित किया। देश के अनेक राज्यों में हड़तालों की बाढ़ सी आ गई। तब १९४७ का औद्योगिक कलह अधिनियम पारित हुआ। इसमें उद्देश्य यह रखा गया कि श्रम समितियों, मेलमिलाप पदाधिकारियों तथा औद्योगिक न्यायालयों की नियुक्ति द्वारा इन झगड़ों का निपटारा करने के लिए एक स्थायी विभाग स्थापित हो। इसके सद्भावपूर्ण निर्णय कानूनी तौर पर लागू होते थे। इन औद्योगिक अदालतों के निर्णयों में एकरूपता लाने के लिए १९५० ई. के औद्योगिक कलह अपील न्यायालय अधिनियम द्वारा मामलों पर पुनर्विचार के लिए एक श्रमिक अपील न्यायालय स्थापित हुआ। कुछ कानूनी दोषों को दूर करने की दृष्टि से १९४७ ई. के अधिनियम को सन् १९५२ में संशोधित किया गया। १९५३ ई. में मजदूरों की छँटनी करने अथवा उनसे कम समय तक काम लेने के मामले में क्षतिपूर्ति देने के लिए पुन: संशोधन उपस्थित किया गया। सबसे महत्वूपर्ण और नवीनतम संशोधन है 'औद्योगिक कलह संशोधन तथा विविध व्यवस्था अधिनियम, १९५६ ई।' इसके द्वारा 'श्रमजीवी' की परिभाषा ने विस्तार पाया और औद्योगिक न्याय ने अब श्रमिक न्यायालय, औद्योगिक न्यायालय तथा राष्ट्रीय निर्णयों का मिला-जुला रूप धारण किया। औद्योगिक संबंधों कीपूरी प्रक्रिया अब दो प्रमुख बातों के अंतर्गत आ गई, यद्यपि दोनों परस्पर सर्वथा पृथक नहीं थे। साधारण भाषा में, पहली स्थिति को 'वैयक्तिक संबंध' माना गया जिसके अंतर्गत उद्योग में व्यक्ति के आधार पर होनेवाले संबंधों को लिया गया है तथा दूसरा 'सामूहिक संबंध' समझा गया जिसमें सामूहिक रूप से निर्वाह किए जानेवाले संबंधों का समावेश था। इस प्रकर व्यक्तिगत संबंधों की सीमा में कार्य संबंधी नाते, लोगों की अलग-अलग व्यवस्था आदि रखे गए और सामूहिक मोल चाल, मालिकों एवं मजदूरों के संघों के पारस्परिक संबंध आदि श्रमजन्य संबंधों के क्षेत्र में।
मूल समस्या के इन दो पक्षों के अतिरिक्त सरकार का इन मामलों में भाग लेना भी एक प्रमुख घटना है। सरकार की भूमिका है मेल-मिलाप के कार्यों द्वारा सद्भावनापूर्ण संबंध बनाए रखने में सहायता करना, मामलों को सुलझाने में पंच बनना और कारखाने के मजदूरों की कार्यगत दशाओं को सुधारते हुए उन्हें विधिवत् संचालित करना।
वैयक्तिक संबंध-वैयक्तिक आधार पर औद्योगिक सद्भावना स्थापित करने के लिए कुछ उद्योगों में कार्यसमितियाँ (वर्क्स कमेटी) स्थापित की गईं। सन् १९४७ के औद्योगिक कलह अधिनियम के अंतर्गत ऐसी कार्यसमितियों को संघटित करने की छूट रखी गई जिनमें मालिकों और मजदूरों, दोनों के, प्रतिनिधियों की संख्या बराबर हो और कारखाने में कम से कम २०० श्रमिक कार्य करते हों। किंतु इन समितियों के प्रति मालिकों की भावना, एक सीमा तक मजदूरों की भावना भी, प्रतिकूल हो जाने के कारण इसे स्थापित करने का मुख्य उद्देश्य ही नष्ट हो गया। श्रमिकों के दु:खों के निवारण के लिए दूसरा उपाय कल्याण-अधिकारियों की संस्थापना के रूप में उपस्थित किया गया। इनकी नियुक्ति १९४८ के कारखाना अधिनियम के अनुसार विधिसम्मत थी। अधिनियम में ५०० या अधिक श्रमिकोंवाले कारखानों में इनकी नियुक्ति का विधान था। यद्यपि सौंपे गए कार्य में सफलता प्राप्त कर लेना इनके लिए कठिन था, तथापि यह अब स्पष्ट हो चला है कि ये अधिकारी बहुत प्रभावकारी सिद्ध हुए हैं और इन उद्योगों में औद्योगिक संबंधों की उल्लेखनीय प्रगति हुई है। कारखाने के मालिक एवं मजदूरों के संबंधों में वे परिस्थितियाँ महत्वपूर्ण प्रभाव डालती हैं जिनके अंतर्गत मजदूर काम करते हैं। इनके लिए मुख्य विचारणीय विषय हैं उनके काम के घंटे, अधिक थकावट से रक्षा, काम करते समय वातावरण का अनुकूल होना (यथा यथेष्ट प्रकाश, स्वच्छ वायु, शोरगुल की कमी आदि)। ये सभी बातें १९४८ के कारखाना अधिनियम के अंतर्गत आती हैं। दूसरा विषय है श्रमिकों के साथ किए गए संचालकों के व्यवहार। ये संचालक मालिकों और श्रमिकों के बीच मध्यस्थ का सा काम करते हैं, परंतु साधारणत: अच्छी सूझ-बूझ या शिक्षावाले नहीं होते। इन्हें वैयक्तिक ईर्ष्या द्वेष से मुक्त होना चाहिए। कार्यकुशल, निर्णायक एवं नेतृत्व के गुणों से युक्त होना इनके लिए आवश्यक है, जिसमें काम करनेवालों के लिए उत्साहवर्धक सिद्ध हो सकें। यह सुझाव रखा जा चुका है कि संचालन विभाग के सदस्यों को उद्योग में अपेक्षित मानवीय संबंधों का प्रशिक्षण दिया जाया करे।
सामूहिक संबंध-संयुक्त मोल चाल कीप्रणाली औद्योगिक-संबंध-स्थापन में अत्यंत महत्वूपर्ण है। इसके द्वारा वेतन तथा नौकरी की शर्तें एक सौदे के समान तय की जाती हैं और ये ही मालिक एवं मजदूरों के संघों के बीच हुए समझौते का रूप ले लेती हैं। औद्योगिक संबंधों में संयुक्त मोल चाल की यह प्रणाली, श्रमिकों के पक्ष में अत्यंत सफल सिद्ध हुई है, विशेषत: उन जगहों पर जहाँ के श्रमसंघटन शक्तिशाली हैं। भारत में अहमदाबाद के मिल मालिकों के संघ और कपड़ा उद्योग श्रमिक संघ के बीच १९५५ में हुआ ऐसा समझौता, ताता आयरन ऐंड स्टील कंपनी एवं ताता श्रमिक संघ, जमशेदपुर, के बीच १९५६ में हुआ समझौता, भत्ते के मामले में बंबई मिल मालिक संघ एवं राष्ट्रीय मिल मजदूर संघ के बीच हुआ समझौता तथा कुछ अन्य मामले औद्योगिक सुख शांति के लिए उत्तरदायी रहे हैं।
सरकार का हस्तक्षेप-श्रम-व्यवस्था-जन्य संबंधों के रुचि रखनेवाले एक तीसरे दल के रूप में सरकार की भूमिका सर्वविदित है। औद्योगिक सहयोगों के परिणामस्वरूप हड़ताल तथा तालेबंदी हो जाना सामान्य घटनाएँ हैं, जिनके परिणाम होते हैं, उत्पादन में ्ह्रास एवं बेरोजगारी। मेल कराना तथा मध्यस्थता करना, ये दो भूमिकाएँ इस मामले में सरकारी हस्तक्षेप के उदाहरण हैं जो औद्योगिक विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने में सहायक होती हैं।
मेल स्थापित कराने में दोनों दलों के प्रतिनिधियों को एक तीसरे के सम्मुख इस विचार से उपस्थित होना पड़ता है कि वे आपस में बहस तथा विचारविनिमय करके किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकें। भारत में १९४७ का औद्योगिक-विवाद-अधिनियम कुछ विशिष्ट प्रकार के विवादों में मेल अनिवार्य बताता है। भारत में इस मेल स्थापित कराने की एक संकुचित सीमा हो चली है जिससे यह दोषपूर्ण हो चला है। मेल-मिलाप-अधिकारी अपने को निर्णायक समझने लगते हैं और विवादों में अपने निर्णय का एहसान बाँटने को तैयार हो जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि मालिकों एवं मजदूरों के बीच वे एक कड़ी मात्र हैं जिसका काम किसी विशेष मामले में दोनों पक्षों को परस्पर ठीक-ठीक समझने में सहायता देना है।
मध्यस्थता की रीति वह रीति है जिसके अंतर्गत किसी विवादग्रस्त मामले का हल ढूँढ़ने के लिए दोनों पक्षों द्वारा एक तीसरे पक्ष के सम्मुख अपनी समस्याएँ उपस्थित की जाती हैं। यह वैकल्पिक भी हो सकती है, अनिवार्य भी। भारत में द्वितीय महायुद्ध काल में और बाद को १९४७ के औद्योगिक कलह नियम के दौरान में मेल स्थापन के लिए अध्यादेश (आर्डिनैन्सेज़) जारी किए गए। बाद के वर्षों में अधिनियमों को पुन: संशोधित किया गया जिससे उनकी त्रुटियों के शोधन की व्यवस्था की जा सके। सन् १९५६ के औद्योगिक कलह (संशोधन एवं विविध समस्याएँ) अधिनियम के द्वारा मेल स्थापना की मध्यस्थता का पूरा ढाँचा श्रम न्यायालयों, औद्योगिक पंचायतों एवं राष्ट्रीय पंचायतों में विभाजित कर दिया गया। ये सभी विभाग किसी भी विचाराधीन मामले से संबद्ध किसी भी दल अथवा गवाह को विचार कार्य के सहायतार्थ बुलाने के अधिकारी थे।
औद्योगिक मामलों में सरकारी हस्तक्षेप के कारण मिल मजदूरों के वेतन विषयक समस्या का जन्म हुआ। यह देखा जाता है कि जिन उद्योगकेंद्र में वेतन की व्यवस्था है वहाँ अच्छा औद्योगिक सौहार्द रहता है। मजदूरों के लिए न्यूनतम-वेतन-निर्धारण के सरकारी आश्वासन ने वेतन-निर्धारण-समिति (फ़ेयर वेजेज़ कमिटी) का रूप लिया। यह १९४७ के 'औद्योगिक संधिप्रस्ताव' का ही परिणाम थी। समिति ने उचित वेतन के सुझाव के अतिरिक्त इस विषय में एक विधान निर्मित करने का भी सुझाव दिया। संसद् का अधिवेशन स्थगित हो जाने के कारण सन् १९४८ का उचित-वेतन-विधेयक यों ही रह गया। तथापि १९४८ का न्यूनतम-वेतन-अधिनियम सरकार को किसी भी उद्योग के के लिए न्यूनतम-वेतन-निर्धारण का अधिकार देता है और वेतन के निर्धारण एवं संशोधनार्थ एक त्रिदलीय विभाग स्थापित करने की छूट भी देता है। वेतन के अतिरिक्त लाभ में श्रमिकों को हिस्सा मिलने की योजनाओं के कार्यान्वयन पर सरकार पूरी चौकसी रख रही है और श्रमिक संघों के साथ उन प्रबंधव्यवस्थाओं में भी, जो कुछ उद्योगों के साथ निर्धारित हैं, अपने कर्तव्य के प्रति सचेष्ट है।
अंत में, यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि औद्योगिक शांतिस्थापन का कार्य पंचवर्षीय योजनाआं की अवधि में, जिनके द्वारा भारत अपनी आर्थिक स्वतंत्रता के लिए उपयुक्त है, अधिक महत्वूपर्ण हो गया है। औद्योगिक संबंधों में किसी भी प्रकार असद्भावना हमारे उद्देश्यों को चौपट कर पंचवर्षीय योजनाओं को असफलता के गढ़े में ढकेल सकती है।
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