औद्योगिक श्रमिक औद्योगिक श्रमिक के अंतर्गत, जैसा इन शब्दों से ध्वनित होता हैस, विभिन्न देशों के औद्योगिक प्रतिष्ठानों में कार्य करनेवाले सभी कर्मचारी आ जाते हैं। 'विश्व के औद्योगिक श्रमिक' नाम सर्वसाधारण के अतिरिक्त संयुक्त राज्य अमरीका, के एक क्रांतिकारी संघ को भी दिया गया है। सन् १९०५ में शिकागों में हुए समाजवादियों और मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं के सम्मेलन के परिणामस्वरूप इसकी व्यवस्था हुई थी।
उस समय अमरीका में क्रांतिकारी श्रमिकों की यह तीव्र भावना थी कि पूँजीपतियों से असहाय श्रमिकों की रक्षा का एकमात्र उपाय स्वतंत्र राजनीतिक कार्रवाई ही है। तत्कालीन श्रमिक संगठन इतना ही था कि विविध कारखानों या उद्योगों में विभिन्न शिल्प संगठन या दलीय संगठन थे। मालिकों तथा 'अमरीकी श्रमिक संघ' में परस्पर घोर विरोध होते हुए भी संयुक्त राज्य अमरीका के खनकों के पश्चिमी संघ ने एक शक्तिशाली संगठन की स्थापना के उद्देश्य से एक सम्मेलन बुलाया। उक्त सम्मेलन में रेवरेंड हैगर्टी द्वारा प्रस्तुत योजना सभी श्रमिकों को स्वीकृत हुई, जिसके फलस्वरूप 'विश्व के औद्योगिक श्रमिक' (इंडस्ट्रियल वर्कर्स ऑव द वर्ल्ड) नामक संघ की स्थापना हुई। संघ ने कम से कम समय और धन व्यय द्वारा अभीसिप्त लक्ष्य की प्राप्ति के लिए 'कोई एक या सभी युक्तियों' से कार्य करने की विधि अपनाई। इस संघ ने प्रत्येक औद्योगिक प्रतिष्ठान में एक ही संघ की स्थापना का प्रयास किया। संघ के प्रयत्नों से प्रत्येक स्थान के विभिन्न संघ एक में मिलकर स्थानीय औद्योगिक संघ का स्वरूप ग्रहण कर लेते थे, और वह संघ 'विश्व के राष्ट्रीय औद्योगिक श्रमिक' नामक बृहत् संघ का एक विभाग बन जाता था।
राजनीतिक विचारों में मतभेदों के कारण १९०७ ई. में उक्त संस्था बिखर सी गई, परंतु उसके बाद भी कुछ समय तक वह अपना प्रभाव बनाए रख सकी और सन् १९०२ में संयुक्त राज्य अमरीका, के सूती मिल मजदूरों को उसने विजयश्री दिलाई। प्रथम विश्वयुद्ध के समय यही एकमात्र संघ था जिसने युद्ध का विरोध किया, किंतु १९१७ के दमनात्मक कानून के कारण उसके कार्यकर्ताओं पर १९१८ ई. में सामूहिक रूप से मुकदमे चले और ९३ कर्मचारियों को २०-२० वर्ष का कारावास दिया गया। १९२० ई. तक इसने अपनी सामाजिक शक्ति खो दी। फिर भी संयुक्त राज्य अमरीका, में कतिपय श्रमिक १९४९ ई. तक अपने उद्देश्यों के लिए उसी कार्यविधि से संघर्षरत थे और इसकी स्थानीय शाखाएँ ग्रेट ब्रिटेन के कतिपय आस्ट्रेलियाई बंदरगाहों में विद्यमान थीं।
सामान्य धारणा के अनुसार विभिन्न देशों में श्रमिक अधिकतर संघाधिपत्यवाद तथा अराजकतावाद के सिद्धांत से प्रभावित होते रहते हैं। संघाधिपत्यवाद के सिद्धांत की प्रस्थापना सर्वप्रथम १९वीं शताब्दी के अंत में फ्रांसीसी नेताओं द्वारा की गई थी, यद्यपि इसके कुछ चिह्न इसके पूर्व १८३३ ई. में ग्रेट ब्रिटेन में भी देखे गए थे। वस्तुत: इसका विकास फ्रांस के मजदूर वर्ग की उग्र संसद्विरोधी परंपरा से हुआ था। १८६९ ई. में बास्ले में हुई अंतर्राष्ट्रीय श्रमिकों की कांग्रेस में एक फ्रांसीसी प्रतिनिधि ने यह भविष्वाणी की थी कि संघाधिपत्यवाद श्रमिकों तथा प्रबंधसंचालकों के संबंधों को और देशों की राजनीति को नियंत्रित करता रहेगा। सन् १८९० तक यह प्रवृत्ति यूरोपीय देशों में प्रबल रूप से विद्यमान थी। संयुक्त राज्य अमरीका, में विश्व के औद्योगिक श्रमिकों का आंदोलन ठीक इसी के समान था। ग्रेट ब्रिटेन में श्रमिकगण संघाधिपत्यवाद और समाजवाद से एक साथ ही प्रभावित थे। बाद में संघाधिपत्यवाद का स्थान समाजवाद ने ले लिया। इटली में आज भी यत्र-तत्र इसके प्रभाव मिलते हैं, यद्यपि स्पेन में यह स्वतंत्र रूप से अराजकतावाद से विकसित हुआ।
संघाधिपत्यवाद और अराजकतावाद का भारतीय श्रमिकों पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं है, क्योंकि इस देश में श्रमिक आंदोलन बहुत बाद में प्रारंभ हुआ। यद्यपि ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देशों में श्रमिक आंदोलनों ने इस देश के श्रमिक आंदोलन को भी प्रभावित किया, तथापि भारतीय श्रमिकों का प्रेरक सिद्धांत अंतत: समाजवाद ही था।साम्यवाद का भी कुछ प्रभाव यहाँ पाया गया है, परंतु स्वतंत्र भारत के श्रमिकों को तथा देश के विकास को सरकार की ओर से जो महत्व प्रदान किया जा रहा है तथा समाजवादी समाजरचना के अंतर्गत औद्योगिक श्रमिकों के विविध हितों को जो पूर्ण संरक्षण प्राप्त है, उनके कारण यह अपना सामाजिक प्रभाव खोता जा रहा है।
सं.ग्रं.-जे.एस. गैंब्स : डिक्लाइन ऑव दि आई.डब्ल्यू.डब्ल्यू., कोलंबिया युनिवर्सिटी, १९३२। (दु.च.स.)