औद्योगिक परिषदें ब्रिटेन में सन् १९११ में संघटित मजदूरों और मालिकों की एक संयुक्त समिति के लिए पहले औद्योगिक परिषद् (इंडस्ट्रियल कोर्ट) नाम का उपयोग किया गया। इस परिषद् को केवल प्रतिप्रेषित विषयों पर ही विचार का अधिकार था; अनिवार्य रूप से व्यवहृत होनेवाले कोई अधिकार इसे प्राप्त नहीं थे। फलत: बाद में इसे समाप्त कर दिया गया। सन् १९१७ में ह्विटले कमेटी के प्रतिवेदन (रिपोर्ट) के प्रकाशन पर इसकी फिर चर्चा हुई। संघटित उद्योगों में श्रम संबंधों में सुधार के लिए औद्योगिक परिषदों के संघटन की सिफारिश प्रतिवेदन में की गई थी। प्रतिवेदन की सिफारिश का आशय यह था कि आर्थित और उद्योग संबंधी व्यापक समस्याओं पर इन परिषदों में संयुक्त रूप से विचार विमर्श हो। सन् १९१९ में हुए राष्ट्रीय औद्योगिक सम्मेलन ने पूरे ब्रिटेन के लिए 'राष्ट्रीय संयुक्त परिषद्' की स्थापना की माँग की, परंतु सन् १९२६ की हड़ताल के पहले इसका संघटन नहीं हो सका।

सन् १९३९ में इंग्लैंड के श्रममंत्री ने मालिकों के महासंघ तथा मजदूर कांग्रेस के प्रतिनिधियों का एक संयुक्त सम्मेलन किया, जिसने सन् १९४० में 'राष्ट्रीय संयुक्त परामर्शदात्री परिषद्' का संघटन किया। श्रम संबंधी विभिन्न विषयों पर सरकार को परामर्श देना इस संघटन का कार्य था।

भारत में इस परिषद् के बारे में दूसरी ही कल्पना रही है। भारतीय श्रमिक समस्या संबधी राजकीय आयोग (रॉयल कमिशन) ने मालिकों और मजदूरों के बीच संयुक्त समितियों के माध्यम से कारखाना स्तर पर संयुक्त विचार विमर्श की सिफारिश की थी। इन्हें वर्क्स कमेटी (मालिक-मजदूर-समिति) का नाम दिया गया। संचालकों और कर्मचारियों के परस्पर हित संबंधी दैनंदिन प्रश्नों पर ये समितियाँ विचार करती हैं तथा पूर्ण कार्य भी करती हैं।

इन समितियों के निर्माण की गति अत्यंत मंद रही। अहमदाबाद में कुछ समितियों के संघटन के अतिरिक्त भारत सरकार के मुद्रणालयों में सन् १९२० में, टाटा आयरन वर्क्स में सन् १९२२ में ऐसी समितियाँ संघटित हुईं। सन् १९४७ में औद्योगिक-विवाद-कानून में एकधारा जोड़कर उन सब औद्योगिक संस्थानों के लिए मालिक-मजदूर-समिति के संघटन की व्यवस्था की गई जिनमें १०० या १०० से अधिक कर्मचारी काम करते हैं। कानून में इन समितियों के निर्माण का उद्देश्य बताया गया-मालिकों और मजदूरों में सौहार्द और अच्छे संबंधों की स्थापना में सहायक उपायों को बढ़ावा देना, समान हित के विषयों पर विचार करना और तत्संबंधी मतभेदों को दूर करने का प्रयत्न करना।

इन समितियों में अधिक से अधिक १४ प्रतिनिधि होते हैं, जिनमें आधे संचालकों द्वारा मनोनीत किए जाते हैं और शेष आधे को मान्यताप्राप्त मजदूरसंघ या कर्मचारीगण चुनते हैं। पहले सभी चीनी मिलों में और बाद में ऐसे सभी औद्योगिक संस्थानों में, जिनमें २०० या इससे अधिक कर्मचारी काम करते हैं, ऐसी समितियों के निर्माण के लिए सन् १९४८ में आदेश जारी कर उत्तर प्रदेश सरकार ने इस दिशा में नेतृत्व किया। दूसरे राज्यों में भी, विशेषकर बड़े उद्योगों में, ऐसी समितियाँ बनीं।

ये समितियाँ केवल उत्पादन संबंधी जिम्मेदारियों से ही कर्मचारियों को अवगत नहीं कराती थीं, वरन् समान हित की समस्याओं की समाधान, उत्पादन, बोनस, वेतन, काम के घंटों में कमी, कार्य करने की स्थिति में सुधार और कर्मचारी कल्याण तथा आवास संबंधी सुविधा विषयक प्रश्नों को सुलझाने में भी पर्याप्त सहायता करती रही हैं। फिर भी इन समितियों को ऊपर से लादा हुआ समझते हैं और निपट उदासीनता और अनिच्छापूर्वक ही उन्होंने इन्हें स्वीकार किया है। उन्होंने इन समितियों का बनाया जाना पसंद नहीं किया है। अपने लिए अधिक से अधिक लाभ उठाने का ही उनका प्रयत्न रहा है। दूसरी ओर मजदूरों ने भी इस उपक्रम में सहयोग नहीं किया है। अपने संघीय नेताओं के प्ररेणा से उन्होंने इन समितियों को मात्र अपने हितों और अधिकारों के लिए लड़ने का मंच बनाने का प्रयत्न किया है। (दु.च.स.)