औद्योगिक क्रांति १८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इंग्लैंड में एक महान् सामाजिक तथा आर्थिक क्रांति हुई जिसकी व्याप्ति तथा परिणाम इतने महत्वपूर्ण थे कि उसका नाम ही 'औद्योगिक क्रांति' पड़ गया। 'औद्योगिक क्रांति' शब्द का इस संदर्भ में उपयोग सबसे पहले आरनोल्ड टायनबी ने अपनी पुस्तक 'लेक्चर्स ऑन दि इंड्स्ट्रियल रिवोल्यूशन इन इंग्लैंड' में सन् १८४४ में किया।

१६वीं तथा १७वीं शताब्दियों में यूरोप के कुछ देशों ने अपनी नौ-शक्ति के आधार पर दूसरे महाद्वीपों में आधिपत्य जमा लिया। उन्होंने वहाँ पर धर्म तथा व्यापार का प्रसार किया। उस युग में मशीनों का आविष्कार बहुत कम हुआ था। जहाज लकड़ी के ही बनते थे। जिन वस्तुओं का भार कम परंतु मूल्य अधिक होता उनकी बिक्री सात समुद्र पार भी हो सकती थी। उस युग में नए व्यापार से धनोपार्जन का एक नया प्रबल साधन प्राप्त किया और कृषि का महत्व कम होने लगा। व्यक्तियों में किसी सामंत की प्रजा के रूप में रहने की भावना का अंत होने लगा। अमरीका के स्वाधीन होने तथा फ्रांस में 'भ्रातृत्व, समानता, और स्वतंत्रता' के आधार पर होनेवाली क्रांति ने नए विचारों का सूत्रपात किया। प्राचीन शृंखलाओं को तोड़कर नई स्वतंत्रता की ओर अग्रसर होने की भावना का आर्थिक क्षेत्र में यह प्रभाव हुआ कि गाँव के किसानों में अपना भाग्य स्वयं निर्माण करने की तत्परता जाग्रत हुई। वे कृषि का व्यवसाय त्याग कर नए अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। यह विचारधारा १८वीं शताब्दी के अंत में समस्त यूरोप में व्याप्त हो गई। इंग्लैंड में उन दिनों कुछ नए यांत्रिक आविष्कार हुए। जेम्स के फ़्लाइंग शटल (१७३३), हारग्रीव्ज़ की स्पिनिंग जेनी (१७७०), आर्कराइट के वाटर पावर स्पिनिंग फ्ऱेम (१७६९), क्रांपटन के म्यूल (१७७९) और कार्टराइट के पावर लूम (१७८५) से वस्त्रोत्पादन में पर्याप्त गति आई। जेम्स वाट के भाप के इंजन (१७८९) का उपयोग गहरी खानों से पानी को बाहर फेंकने के लिए किया गया। जल और वाष्प शक्ति का धीरे-धीरे उपयोग बढ़ा और एक नए युग का सूत्रपात हुआ। भाप के इंजन में सर्दी, गर्मी, वर्षा सहने की शक्ति थी, उससे कहीं भी २४ घंटे काम लिया जा सकता था। इस नई शक्ति का उपयोग यातायात के साधनों में करने से भौगोलिक दूरियाँ कम होने लगीं। लोहे और कोयले की खानों का विशेष महत्व प्रकट हुआ और वस्त्रों के उत्पादन में मशीनों का काम स्पष्ट झलक उठा।

इंग्लैंड में नए स्थानों पर जंगलों में खनिज क्षेत्रों के निकट नगर बसे, नहरों तथा अच्छी सड़कों का निर्माण हुआ और ग्रामीण जनसंख्या अपने नए स्वतंत्र विचारों को क्रियान्वित करने के अवसर का लाभ उठाने लगी। देश में व्यापारिक पूँजी, साहस तथा अनुभव को नयाक्षेत्र मिला। व्यापार विश्वव्यापी हो सका। देश की मिलों को चलाने के लिए कच्चे माल की आवश्यकता हुई, उसे अमरीका तथा एशिया के देशों से प्राप्त करने के उद्देश्य से उपनिवेशों की स्थापना की गई। कच्चा माल प्राप्त करने और तैयार माल बेचने के साधन भी वे ही उपनिवेश हुए। नई व्यापारिक संस्थाओं, बैकों और कमीशन एजेंटों का प्रादुर्भाव हुआ। एक विशेष व्यापक अर्थ में दुनिया के विभिन्न हिस्से एक दूसरे से संबद्ध होने लगे। १८वीं सदी के अंतिम २० वर्षों में आरंभ होकर १९वीं के मध्य तक चलती रहनेवाली इंग्लैंड की इस क्रांति का अनुसरण यूरोप के अन्य देशों ने भी किया। हॉलैंड तथा फ्रांस में शीघ्र ही, तथा जर्मनी, इटली आदि राष्ट्रों में बाद में, यह प्रभाव पहुँचा। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में व्यापारियों ने अपने-अपने राज्यों में धन की वृद्धि की और बदले में सरकारों से सैन्य सुविधाएँ तथा विशषाधिकार माँगे। इस प्रकार आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में व्यापार तथा सेना का यह सहयोग उपनिवेशवाद की नींव को सुदृढ़ करने में सहायक हुआ। राज्यों के बीच, अपने देशों की व्यापारनीति को प्रोत्साहन देने के प्रयास में, उपनिवेशों के लिए युद्ध भी हुए। उपनिवेशों का आर्थिक जीवन 'मूल राष्ट्र' की औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति करनेवाला बन गया। स्वतंत्र अस्तित्व के स्थान पर परावलंबन उनकी विशेषता बन गई। जिन देशों में औद्योगिक परिवर्तन हुए वहाँ मानव बंधनों से मुक्त हुआ, नए स्थानों पर नए व्यवसायों की खोज में वह जा सका, धन का वह अधिक उत्पादन कर सका। किंतु इस विकसित संपत्ति का श्रेय किसी हो, और उसक प्रतिफल कौन प्राप्त करे, ये प्रश्न उठने लगे। २४ घंटे चलनेवाली मशीनों को सँभालनेवाले मजदूर भी कितना काम करें, कब और किस वेतन पर करें, इन प्रश्नों पर मानवता की दृष्टि से विचार किया जाने लगा। मालिक-मजदूर-संबंधों को सहानुभूतिपूर्ण बनाने की चेष्टाएँ होने लगीं। मानव मुक्त तो हुआ, पर वह मुक्त हुआ धनी या निर्धन होने के लिए, भरपेट भोजन पाने या भूखा रहने के लिए, वस्त्रों का उत्पादन कर स्वयं वस्त्रविहीन रहने के लिए। अतएव दूसरे पहलू पर ध्यान देने के लिए शासन की ओर से नए नियमों की आवश्यकता पड़ी, जिनकी दिशा सदा मजदूरों की कठिनाइयाँ कम करने, उनका वेतन तथा सुविधाएँ बढ़ाने तथा उन्हें उत्पादन में भागीदार बनाने की ओर रही।

इस प्रकार १८वीं शताब्दी के अंतिम २० वर्षों में फ्रांस की राज्यक्रांति से प्रेरणा प्राप्त कर इंग्लैंड में १९वीं शताब्दी में विकसित मशीनों का अधिकाधिक उपयोग होने लगा। उत्पादन की नई विधियों और पैमानों का जन्म हुआ। यातायात के नए साधनों द्वारा विश्वव्यापी बाजार का जन्म हुआ। इन्ही सबसे संबंधित आर्थिक एवं सामाजिक परिणामों का ५० वर्षों तक व्याप्त रहना क्रांति की संज्ञा इसलिए पा सका कि परिवर्तनों की वह मिश्रित शृंखला आर्थिक-सामाजिक-व्यवस्था में आधारभूत परिवर्तन की जन्मदायिनी थी।

संसार के दूसरे देशों तथा उपनिवेशों के स्वतंत्र होकर आगे बढने से इस क्रांति के प्रभाव धीरे-धीरे दृष्टिगत होने लगे। उनके समक्ष २०वीं शताब्दी में कृषि के स्थान पर उद्योगों को विकसित करने का प्रश्न है; किंतु उनके पास न तो गत दो शताब्दियों के व्यापार की एमत्रित पूँजी तथा अनुभव है और न उनमें यातायात तथा मूल उद्योगों का विकास ही हुआ है। ये राष्ट्र स्वाधीन होने के पश्चात् अन्य संपन्न राष्ट्रों से सीमित रूप में पूँजी तथा यांत्रिक सहायता प्राप्त करने की चेष्टाओं में लगे हैं, किंतु इस प्रकार की सहायता के बदले में वे किसी राजनीतिक बंधन में नहीं पड़ना चाहते। इन राष्ट्रों का मूलभूत उद्देश्य अपने यहाँ उसी प्रकार के परिवर्तन करना है जैसे परिवर्तन औद्योगिक क्रांति के साथ यूरोप में हुए। पर यह स्पष्ट है कि मूलत: इन नए राष्ट्रों को अपने लिए कच्चा माल प्राप्त करने तथा पक्के माल का विक्रय करने के साधन अपनी सीमाओं के अनुसार ही विकसित करना है।

(ब्र.रा.चौ.)

भारत में औद्योगिक क्रांति-प्राचीन काल में भारत एक संपन्न देश था। भारतीय कारीगरों द्वारा निर्यात माल अरब, मिस्र, रोम, फ्रांस तथा इंग्लैंड के बाजारों में बिकता था और भारतवर्ष से व्यापार करने के लिए विदेशी राष्ट्रों में होड़ सी लगी रहती थी। इसी उद्देश्य से सन् १६०० में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना इंग्लैंड में हुई। यह कंपनी भारत में बना हुआ माल इंग्लैंड ले जाकर बेचती थी। भारतीय वस्तुएँ, विशेषकर रेशम और मखमल के बने हुए कपड़े, इंग्लैंड में बहुत अधिक पसंद की जाती थी; यहाँ तक कि इंग्लैंड की महारानी भी भारतीय वस्त्रों को पहनने में अपना गौरव समझती थीं। परंतु यह स्थिति बहुत दिनों तक बनी न रह सकी। औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप इंग्लैंड में माल बड़े पैमाने पर तैयार होने लगा और यह उपनिवेशों में बेचा जाने लगा। अंग्रेज व्यापारियों को अपनी सरकार का पूरा-पूरा सहयोग प्राप्त था। भारतीय कारीगर निर्बल और बिखरे हुए थे; अतएव वे मशीन की बनी वस्तुओं से प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ रहे। फलत: उन्हें अपना पुश्तैनी पेशा छोड़कर खेती का सहारा लेना पड़ा। इस प्रकार औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप भारतीय उद्योग धंधों का नाश हो गया तथा लाखें कारीगर भूखों मरने लगे। औद्योगिक क्रांति, जो इंग्लैंड के लिए वरदान स्वरूप थी, भारतीय उद्योगों के लिए अभिशाप सिद्ध हुई।

आधुनिक रूप से भारतवर्ष का औद्योगीकरण १८५० ई. से प्रारंभ हुआ। सन् १८५३-५४ में भारत में रेल और तार की प्रणाली प्रारंभ हुई। यद्यपि रेल बनाने का मुख्य उद्देश्य कच्चे माल का निर्यात तथा निर्मित माल का आयात करना था, तो भी रेलों से भारतीय उद्योगों को विशेष सहायता मिली। प्रारंभ में भारतीय पूँजी से कुछ सूती मिलें और कोयले की खदानें स्थापित की गईं। धीरे-धीरे ये उद्योग बहुत उन्नत हो गए। कुछ समय के पश्चात् कागज बनाने और चमड़े के कारखाने भी स्थापित हो गए और १९०८ ई. में भारतवर्ष में प्रथम बार लोहे और इस्पात का कारखाना भी प्रारंभ हुआ। प्रथम महायुद्ध (१९१४-१९१८) के अनंतर उद्योगों की उन्नति में विशेष रूप से सहायक सिद्ध हुई। सन् १९२२ और १९३९ ई. के बीच सूती कपड़ों का निर्माण दुगुना और कागज का उत्पादन ढाई गुना हो गया। १९३२ ई. में शक्कर के कारखानों की स्थापना भी हुई और १९३५-३६ ई. में वे देश की ९५ प्रतिशत आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगे।

द्वितीय महायुद्ध काल में भारतीय उद्योगों ने और भी अधिक उन्नति की। पुराने उद्योगों की उत्पादन शक्ति बहुत अधिक बढ़ गई और अनेक नवीन उद्योगों की भी स्थापना हुई। भारत में डीज़ल इंजन, पंप, बाइसिकलें, कपड़ा सीने की मशीनें, कास्टिक सोडा, सोड ऐश, क्लोरिन, आदि का उत्पादन प्रारंभ हुआ तथा देश के इतिहास में पहली बार वायुयानों, मोटरकारों तथा जहाजों की मरम्मत करने का कार्य प्रारंभ हुआ। द्वितीय महायुद्ध के अंत तक भारतवर्ष की गणना विश्व के प्रथम आठ औद्योगिक राष्ट्रों में होने लगी। उस समय भारतीय कंपनियों में लगी हुई कुल पूँजी ४२४.२ करोड़ रु. थी तथा उद्योगों में २५ लाख मजदूर कार्य करते थे। भारत शक्कर, सीमेंट तथा साबुन के क्षेत्र में पूर्णत: आत्मनिर्भर था तथा जूट के क्षेत्र में तो उसका एकाधिपत्य था।

स्वतंत्रताप्राप्ति के उपरांत औद्योगिक उन्नति का नया अध्याय प्रारंभ हुआ। राष्ट्रीय सरकार ने देश की सर्वांगीण उन्नति के लिए पंचवर्षीय योजनाएँ बनाईं। प्रथम पंचवर्षीय योजनाकाल में सरकार ने १०१ करोड़ रुपए की राशि उद्योगों में विनियोजित की तथा रासायनिक खाद, इंजन, रेल के डिब्बे, पेनीसिलिन, डी.डी.टी. तथा न्यूज़प्रिंट (अखबारों का कागज) बनाने के कारखानों की स्थापना की। देश के पूँजीपतियों ने भी, इस काल में, ३४० करोड़ रुपए की पूँजी लगाकर अनेक नए कारखाने खोले तथा पुराने कारखानों की उत्पादन शक्ति बढ़ाई। द्वितीय पंचवर्षीय योजना का मुख्य उद्देश्य देश की औद्योगिक प्रगति को तीव्रतर करना था।

सं.ग्रं.-बारबैरा हैमंड : द राइज़ ऑव मॉडर्न इंडस्ट्री (१९२७); जे.ए. हॉबसन : दि इवोल्यूशन ऑव कैपिटलिज़्म (१९२६)। (विं.प्र.पां.)

द्वितीय पंचवर्षीय योजना-(१९५६-६१) उद्योगप्रधान योजना थी। अत: द्वितीय योजना में औद्योगिक विकास के लिए औद्योगिक नीति में परिवर्तन की आवश्यकता हुई और १९५६ में नई औद्योगिक नीति की घोषण की गई। द्वितीय योजना में सार्वजनिक क्षेत्र में बृहत् एवं लघु उद्योग तथा खनिज पर १,०७५ करोड़ रुपए व्यय किए गए। योजनाकाल में सार्वजनिक क्षेत्र में लोहा तथा इस्पात के तीन नए कारखाने स्थापित किए गए और दूसरे कारखानों का विस्तार किया गया। निजी क्षेत्र के संगठित उद्योगों के विकास को भी पर्याप्त महत्व दिया गया। द्वितीय योजना में किए गए प्रयत्नों के फलस्वरूप संपूर्ण औद्योगिक उत्पादन में दस वर्षों में ६४ प्रतिशत की वृद्धि हुई।

तृतीय योजनाकाल-(१९६१-६६) में भी उद्योग धंधों के विकास को पर्याप्त महत्व दिया गया था। योजना काल में उद्योग तथा खनिज पर सार्वजनिक क्षेत्र में कुल १,८०८ करोड़ रुपए व्यय का अनुमान था परंतु वास्तविक व्यय १,७२६ करोड़ रुपए ही हुआ। निजी क्षेत्र में भी १,०५० करोड़ रुपए व्यय का अनुमान था परंतु योजनाकाल में औद्योगिक विकास की प्रगति बहुत ही धीमी रही जिसका मुख्य कारण बाहरी आक्रमण था अत्यधिक मूल्यवृद्धि एवं भयानक सूखे से उत्पन्न आंतरिक अव्यवस्था थी।

तीन वार्षिक योजनाओं (१९६६-६९)-में उद्योग तथा खनिज के मद में १,५७५ करोड़ रुपए व्यय किए गए परंतु मुद्रास्फीति तथा उद्योगों के क्षेत्र में सुस्ती आ जाने के कारण औद्योगिक उत्पादन में बहुत ही कम वृद्धि हुई।

चतुर्थ योजनाकाल (१९६९-७४)-में उद्योग धंधों के विकास को पर्याप्त महत्व देने का आयोजन था। सार्वजनिक क्षेत्र में उद्योग तथा खनिज पर ३,०६० करोड़ रुपए तथा निजी क्षेत्र में २,४०० करोड़ रुपए विनियोग की व्यवस्था थी जिसके फलस्वरूप सात प्रतिशत वार्षिक वृद्धि की दर की आशा की गई थी।

पंचम पंचवर्षीय योजना (१९७४-७९)-में भी उद्योगों को काफी महत्व दिया है तथा ८.५ प्रतिशत की दर से वार्षिक वृद्धि का लक्ष्य रखा गया है।

अत: यह कहा जा सकता है कि पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से भारत ने अपने औद्योगिक विकास की गति को तीव्रता प्रदान की है और शीघ्र ही उसकी गणना औद्योगिक दृष्टि से विश्व के विकसित राष्ट्रों में की जाएगी। (उ.प्र.)