ओरिजेन (१८५-२५४ ई.) संत अगस्तिन के बाद ईसाई गिरजे के प्रथम पाँच शताब्दियों के सबसे महान् आचार्य। इनका जन्म सिकंदरिया के एक सुशिक्षित एवं भक्त ईसाई परिवार में हुआ था जिससे यह लौकिक तथा धार्मिक विषयों की अच्छी शिक्षा पा सके। सन् २०२ ई. में इनके पिता लेओनिदस को ईसाई होने के कारण प्राणदंड की आज्ञा मिली और परिवार की समस्त संपत्ति जब्त कर ली गई। एक धनी महिला की सहायता से ओरिजेन अपनी पढ़ाई पूरी कर सके; बाद में वह अपनी विधवा माँ और अपने छह छोटे भाइयों के निर्वाह के लिए व्याकरण सिखलाने लगे। इसके कुछ समय बाद ओरिजेन के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। दीक्षार्थियों को ईसाई धर्म सिखलाने के लिए सिकंदरिया में एक ईसाई शिक्षा संस्था थी। बिशेप ने ओरिजेन को इसका अध्यक्ष नियुक्त किया। ओरिजेन ने व्याकरण का अध्यापन छोड़ दिया तथा बाइबिल को अपने अध्ययन का केंद्र बनाकर आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने का निश्चय किया। ओरिजेन ने शीघ्र ही साधारण दीक्षार्थियों की शिक्षा का भार दूसरों को सौंपकर बाइबिल के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए ईसाई शिक्षा संस्था का एक नवीन विभाग खोल दिया जो धीरे-धीरे विश्वविद्यालय के रूप में परिणत हुआ, जहाँ शिक्षित गैर ईसाई भी बड़ी संख्या में कला, विज्ञान और दर्शन पढ़ने आए। बाइबिल के वैज्ञानिक अध्ययन तथा धर्म के तर्कसंगत प्रतिपादन के लिए ओरिजेन इन विषयों को आवश्यक समझते थे। इस संस्था के माध्यम से ओरिजेन की ख्याति समस्त रोमन साम्राज्य में फैल गई। व्याख्यान देने के अतिरिक्त वह अपनी पुस्तकें भी प्रकाशित करने लगे तथा चारों ओर से आए हुए निमंत्रण स्वीकार कर इन्होंने कई देशों की यात्रा की। एक बार रोमन सम्राट् अलेक्ज़ैंडर सेवेरस की माता ने ईसाई धर्म की जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से ओरिजेन को बुला भेजा था।
सन् २३० ई. में फिलिस्तीन की यात्रा के समय ओरिजेन ने वहाँ के बिशपों के हाथ से पुरोहिताभिषेक ग्रहण किया जिसके फलस्वरूप सिकंदरिया के बिशप ने उनको स्थानीय ईसाई शिक्षा संस्था के अध्यक्ष के पद से अलग कर दिया। ओरिजेन सिकंदरिया छोड़कर फिलिस्तीन को लौटे; वहाँ के बिशपों ने इनका हार्दिक स्वागत किया। ओरिजेन ने कैसरिया में एक नई शिक्षा संस्था स्थापित कर सिकंदरिया का कार्यक्रम जारी रखा। इसके अतिरिक्त बिशप का अनुरोध स्वीकार कर प्राय: प्रति दिन गिरजाघर में वे बाइबिल पर प्रवचन देने लगे। सन् २४७ ई. में सम्राट् देसियस ईसाइयों को सताने लगा; ओरिजेन को प्राणदंड की आज्ञा तो नहीं मिली किंतु इनको सन् २५० ई में कारावास तथा घोर शारीरिक यंत्रणाएँ सहनी पड़ीं। इनका देहांत सन् २५४ ई. में तीर नामक नगर में हुआ।
ओरिजेन की रचनाओं की संख्या ६,००० बताई जाती है। अधिकांश प्राप्य ग्रंथ बाइबिल की व्याख्याएँ हैं। बाइबिल के वैज्ञानिक पाठनिर्धारण के विषय में इनकी हेक्साप्ला नामक पुस्तक में चार युनानी तथा दो इब्रानी पाठ समानांतर स्तंभों में प्रकाशित हैं। इनकी गंभीरतम रचना पेरी अरखोन है जिसमें पहले पहल समस्त ईसाई धार्मिक विश्वासों का सुव्यवस्थित सिद्धांतवादी प्रतिपादन किया गया है। ओरिजेन की मृत्यु के पश्चात् इनके कई दार्शनिक सिद्धांतों का विरोध अवश्य होने लगा किंतु धार्मिक विश्वासों के साथ मानव संस्कृति के मूल्यों का जो समन्वय आपकी रचनाओं में विद्यमान है, उसके लिए ओरिजेन चिरस्मरणीय हैं।
सं.ग्रं.–जे.दानियेलू : ओरिजेन, न्यूयार्क, १९५५। (का.बु.)