ऐडम्स, जॉन क्विंसी (१७६७-१८४८) ११ जुलाई, १७६७ को पैदा हुए। उनके पिता जॉन ऐडम्स अमरीका के दूसरे राष्ट्रपति थे। (द. 'ऐडम्स, जॉन') जॉन क्विंसी ने अपने पिता के साथ संपूर्ण यूरोप का भ्रमण किया। १७७८ में पेरिस में शिक्षा ली ओर दो साल तक लाइडन में पढ़े। १७८७ में हावर्ड कालेज से डिग्री लेकर तीन साल बाद वकालत की परीक्षा देकर बोस्टन में वकालत शुरू कर दी। वशिंगटन ने उनको नीदरलैंड में अमरीकी राजूदत बनाकर भेजा। १७९६ में वे पुर्तगाल में राजदूत बनाए गए। १७९७ में बर्लिन में राजूदत बने। १८०१ में अपने देश लौट आए।
पहले फ़ेडरलिस्ट (संघीय) दल के सदस्य रहे फिर रिपब्लिकन दल में आ गए। १८०६ से १८०९ तक तीन साल हार्वर्ड विश्वविद्यालय में वाक् शास्त्र के प्रोफ़ेसर रहे। १८१७ में मनरो के काल में राज्यमंत्री हुए।
मनरो के सिद्धांत को स्थापित करनेवाले ऐडम्स ही थे। यह उनका ही बनाया हुआ सिद्धांत था जो मनरो के नाम से प्रसिद्ध हुआ। फ़्लोरिडा पर अमरीकी अधिकार उनके ही कारण हुआ। जब राष्ट्रपति पद से मनरो अलग होने लगे तब इनका नाम उस पद के लिए मनोनीत किया गया। ये राष्ट्रपति चुने गए। १८२८ से १८२९ के बीच उनके साथियों और ऐडम्स के साथियों में लड़ाई हो गई, जो एक राजनीतिक मोड़ पर आ गई। १८२९ में ऐडम्स इस पद से अलग हुए और १८३० में अपने नगर से सिनेट के लिए सदस्य चुने गए। जब उनसे कहा गया कि राष्ट्रपति पद पर रह चुकने पर साधारण सदस्य होना हेठी की बात होगी तब उन्होंने उत्तर दिया कि जब मैं सभा के लिए सदस्य चुन लिया गया हूँ तब मुझे तो वहाँ बैठना ही चाहिए। जनता की सेवा मेरा कर्तव्य है और मैं इस प्रकार की सेवा करना अपना अपमान नहीं समझता।
१८३१ के बाद का काल उनकी सेवाओं का है। इस बीच सदस्य के रूप में उन्होंने बहुत से काम किए। वह गुलामों के उस अधिकार के लिए लड़ते रहे जिसके अनुसार वे सभा के किसी भी सदस्य द्वारा अपना प्रार्थनापत्र दे सकें। इस अधिकार को छीननेवाला एक कानून बनाया गया था जो बाद को 'गला घोटनेवाला' कानून कहलाने लगा। ऐडम्स इस कानून का विरोध करते रहे। १८४४ में यह कानून उन्हीं के अध्यवसाय से रद्द हुआ और गुलामों को प्रार्थनापत्र देने का अधिकार मिल गया।
उनकी सबसे बड़ी देन वह डायरी है जिसे उन्होंने अपने प्रारंभिक जीवन से ही लिखना शुरू किया था और आखिरी समय तक लिखते रहे। इस डायरी में उन्होंने अपने जमाने के प्रसिद्ध लोगों और मुख्य घटनाओं के संबंध में काफी लिखा है।
२१ फरवरी, १८४८ में सिनेट के अधिवेशन के बीच ही वह बेहोश होकर गिर पड़े और २३ फरवरी, १८४८को उनका देहांत हो गया। (मु.अ.अं.)