एलिज़ाबेथ प्रथम (१५५८-१६०३) ट्यूडर शासकों में अंतिम, हेनरी अष्टम तथा बोलिन की पुत्री एलिज़ाबेथ १५५८ ई. में २६ वर्ष की अवस्था में इंग्लैंड में शासनारूढ़ हुई। १५३४ ई में उत्तराधिकार नियम के अनुसार उसका गद्दी पर अधिकार सुरक्षित था। उसे माता पिता की प्रवृत्तियाँ दाय संस्थाओं से प्राप्त हुई थीं। उसमें पिता की धृष्टता, साहस, स्वार्थपरता अशिष्टता और ओछापन तथा माता की चारित्रिक क्षुद्रता, आडंबर, हल्कापन और कामुक चापल्य इत्यादि सभी प्रवृत्तियों एवं गुणों का अनुपम सम्मिश्रण था। ट्यूडर वंश का वह वैचित््रय जो राजा के वैयक्तिक तथा राष्ट्रीय स्वार्थो में निकटता लाता था, उसमें पूर्णतया विद्यमान था। विवादग्रस्त उत्तराधिकार, सुधार-आंदोलन-जन्य धार्मिक विभीषिका, इंग्लैंड पर फ्रांस और स्पेन जैसे शक्तिशाली राष्ट्रों की लोलुप दृष्टि एवं महत्वाकांक्षा इत्यादि कठिनाइयों के बीच एलिज़ाबेथ का राज्यरोहण हुआ था। सभी समस्याएँ इतनी जटिल थीं कि किसी भी अभिनव शासक को किंकर्तव्यविमूढ़ कर देतीं। किंतु प्रोटेस्टेंट मत के उदय से उसे एक अनुकूल प्रजाभक्ति मिल गई थी। अपने योग्य सलाहकारोंमुख्यत: सर विलियम सेसिल, सर निकोलस बेकन तथा सर फ्ऱांसिस बालसिंघमकी सहायता से स्वयं शासनसंचालन एलिज़ाबेथ को सर्वथा वांछनीय लगा।

एलिज़ाबेथ ने शीघ्र ही अनुभव किया कि साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान करने में, धार्मिक शांति तथा स्काटलैंड की ओर आक्रमणों की संभावना का उन्मूलन, प्रधानतम आवश्यकताएँ हैं। अत: उसने सर्वप्रथम अपना ध्यान चर्च व्यवस्था को अनुशासित करने में लगाया। एलिज़ाबेथ इस तथ्य को हृदयंगम कर चुकी थी कि एडवर्ड छठा तथा मेरी ट्यूडर अपनी धार्मिक नीति को अतिवाद की ओर ले जाने के कारण असफल रहीं और उसकी पुनरावृत्ति सर्वथा अहितकर होगी; धार्मिक समस्या का निदान मध्यम मार्ग से ही श्रेयस्कर होगा। अतएव एलिज़ावेथ की धार्मिक नीति तत्कालीन प्रचलित मतों का समन्वय थी जो इतनी उदार थी कि विभिन्न मतावलंबियों को विभिन्न प्रतिच्छाया का आभास कराती थी। सभी मतों के प्रमुख तत्वों को एक अद्भूत कौशल से संपादित करने की चेष्टा की गई थी। एलिज़ाबेथ ने राष्ट्रीय ऐक्य की शिला पर ही धर्म का प्रासाद उठाना चाहा था और इसी दृष्टि से १५५९ का सर्वोच्चता एवं एकरूपता का विधान प्रयुक्त किया गया जिसमें एलिज़ाबेथ को शुद्ध चर्च की, जिसे आगे चलकर ऐग्लिकन की संज्ञा मिली, अधिष्ठात्री घोषित किया गया था, यद्यपि उसने इस पदवी के प्रति अपनी बाह्य अनिच्छा प्रकट की। एलिज़ाबेथ जैसी क्षमताशालिनी कुशल राष्ट्रनेत्री की दूरदर्शिता की यह धार्मिक अभिव्यक्ति अतिवाद के पोषकों को संतुष्ट न कर सकी और शनै: शनै: प्यूरिटनों द्वारा इस व्यवस्था को ग्राह्य सिद्ध करने के लिए दमनचक्र का आश्रय लेना पड़ा। एक स्थायी धार्मिक न्यायालय (कोर्ट ऑव हाई कमीशन) की स्थापना की गई जो मृत्युदंड की कारा का संकेत देकर रानी को सर्वोच्च मान्य बना सके।

प्रारंभ से ही स्काटलैंड इंग्लैंड की सारी आपत्तियों का आगार बना हुआ था। स्काटलैंड और फ्रांस की रानी मेरी स्टुअर्ड इंग्लैंड के शासन पर अपना वंशपरंपरागत अधिकार स्थापित कर रही थी। इंग्लैंड में फ्रांस का आंतक भी पूर्णत: फैला था क्योंकि फ्रांस से कैथोलिक मत की दीक्षा लेकर रानी स्काटलैंड को रोम का भक्त बनाना चाहती थी। उपर्युक्त प्रश्नों का क्रियात्मक उत्तर एलिज़ाबेथ को स्काटलैंड के कवेनैंटर की सहायता में निहित था। मेरी का वैधव्य तथा असंतुष्ट उमंगों से उत्पन्न सत्वर विवाहों का तारतम्य रानी एलिज़ाबेथ के लिए मुँहमाँगा वरदान सिद्ध हुआ। प्रोटेस्टेंट जनता, रानी की धार्मिक एवं वैयाक्तिक जीवन संबंधी दोनों नीतियों के विरुद्ध विद्रोह के लिए अग्रसर हुई। रानी को अपदस्थ किया गया। १५६८ ई. में मेरी ने एक गुप्त संदेशवाहक द्वारा एलिज़ाबेथ से शरणप्रार्थना की। एलिज़ाबेथ ने विलंब और हिचकिचाहट की नीति ग्रहण की तथा भावी परिस्थितियों के अनुकूल व्यवहार करने की उपादेयता को वांछनीय समझकर उसे नजरबंद करवा दिया। इस प्रकार स्पेन और पोप द्वारा उकसाए गए विद्रोहों और षड्यत्रों का वह १८ वर्षीय युग आया जिसमें एलिज़ाबेथ का वध करके मेरी का राज्यरोहण कराने की योजना निहित थी। अंतत: दरबारियों द्वारा लगाए गए षड्यंत्र के अभियोग में, एलिज़ाबेथ को स्वेच्छा का अतिकमण करते हुए १५८७ ई. में मेरी को मृत्युदंड देना पड़ा और इंग्लैंड की भीषणतम आंतरिक कठिनाइयाँ समाप्त हुई।

धार्मिक नीति की ही भाँति एलिज़ाबेथ की वैदेशिक नीति उसकी उच्चतम राष्ट्रीय भावना की सराहनीय अभिव्यक्ति थी। स्पेन और फ्रांस को शिष्टाचार एवं शालीनता से आकृष्ट करना तथा इंग्लैंड के विरुद्ध उनको एक गुट में आने से रोकना उसका प्रधान लक्ष्य था। अपने यौवन की गरिमा और वैवाहिक-संबंध-स्थापन की मोहिनी ने, दोनों राष्ट्रों के शासकों में एक घोर प्रतिद्वंद्विता का कारण खड़ा कर दिया था। स्काटलैंड से पार्थक्यप्राप्त, आंतरिक धार्मिक युद्धों से विच्छिन्न तथा अपने शासक के भाई अंजाहु के एलिज़ाबेथ से विवाह की संभावना के प्रलोभन से दबा फ्रांस इंग्लैंड का मित्र ही बना रहा। स्पेन भी अपने धनी प्रदेश नीदरलैंड के विद्रोह तथा प्रतिरोध आंदोलन में पूर्णत: खो जाने के कारण शक्ति ्ह्रास का घोर अनुभव कर रहा था। इस भय से कि कहीं फ्रांस और इंग्लैंड एक न हो जाएँ, स्पेन एलिज़ाबेथ की धार्मिक नीति और व्यापारिक क्षेत्र के नित्य के अपमानों को सहन करता गया । इसी बीच पोप पीयस पंचम ने धार्मिक आदेश प्रचारित कर एलिज़ाबेथ को ईसाई समाज से बहिष्कृत घोषित कर दिया जिसका प्रतिकार एलिज़ाबेथ ने पोप के विरुद्ध कई कदम उठाकर किया।

मेरी के षड्यंत्रों को विफल करने में एलिज़ाबेथ ने यह सावधानी बरती थी कि ऐसा कदम न उठाया जाए, जो स्पेन को क्रुद्ध करने में सहायक बने। फिर भी मेरी के कारावास के अंतिम दिनों में दोनों देशों में पारस्परिक संबंध कटु हो चले थे। प्रतिरोध आंदोलन के सेनानी के रूप में फ़िलिप द्वितीय इंग्लैंड से एलिज़ाबेथ और प्रोटेस्टेंट मत दोनों का उन्मूलन चाहता था। अत: वह अनेक षड्यंत्रों एवं गुप्त मंत्रणाओं का प्रमुख शिल्पी था। स्काटलैंड और आयरलैंड दोनों ही उसके कार्यक्षेत्र थे। इस परिस्थिति से पूर्णत: अवगत एलिज़ाबेथ ने भी पहले नीदरलैंड के विद्रोहियों को गुप्त सहायता और फिर स्पष्ट रूप से अर्ल ऑव लीस्टर की अध्यक्षता में एक सैनिक टुकड़ी भेजी। व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता तथा साहसिक जलसेनानी रैले, ड्रेक और हाकिन्स की स्पेन के जहाजों पर छापेमारी, जो वेस्टइंडीज़ तक हो रही थी, उस सुलगती शत्रुता को और भी प्रज्वलित कर चली। जान हाकिन्स के संकेत पर राजकीय जलसेना का पुनस्संगठन पूर्ण हो ही गया था। दोनों देशों के अमर्ष का पात्र भर चुका था। मेरी के प्राणदंड के उपरांत इंग्लैंड पर एक कैथोलिक शासक के न आने की संभावना भी मिट चुकी थी। अत: आर्मेडा का प्रकोप अवश्यंभावी हो गया। ऐसी परिस्थिति में प्रकृति ने भी इंग्लैंड का साथ दिया। सामयिक भयंकर तूफान के सामने आर्मेडा ठहर न सका तथा जिस संघर्ष को पोप और फिलिप ने पावन धर्मयुद्ध घोषित किया था उसे एलिज़ाबेथ ने अपूर्व सफलता के साथ राष्ट्रीय कहकर इंग्लैंड और प्रोटेस्टेंट मत दोनों की रक्षा की।

एलिज़ाबेथ अंत तक आंतरिक कठिनाइयों से संघर्ष करती रही। बाह्य वातावरण अनुकूल होने पर भी उसकी आंतरिक कठिनाइयों में कोई न्यूनता परिलक्षित न हुई। वह कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट दोनों को नूतन धार्मिक व्यवस्था के विरुद्ध आंदोलन खड़ा करने के कारण दबाती रही। रानी और पार्लियामेंट के संबंध भी प्रारंभ में तो स्निग्ध और सहयोगपूर्ण रहे, किंतु शासन के उत्तरकाल में वह पार्लियामेंट के सामान्य समर्थन से वंचित रही और कभी कभी उसे कठिनाइयाँ भी उठानी पड़ीं। उसके विवाह एवं वैदेशिक नीति के प्रश्न विवादग्रस्त और व्यग्रतापूर्ण बन गए थे। अप्रत्याशित और अवांछनीय संघर्ष से बचने के लिए रानी ने अपने संपूर्ण शासन में संसद् के केवल तेरह अधिवेशन बुलाए। कौशल, हास्य, धमकी और भर्त्सना इत्यादि द्वारा वह १५९७ तक पार्लियामेंट से गंभीर संघर्ष बचाने में सफल रही। जब कामन्स ने रानी द्वारा स्वीकृत एकाधिकार अनुदान (मोनोपोली ग्रांट) के विरुद्ध विरोध प्रकट किया, तब रानी को झुकना पड़ा। पार्लियामेंट के अधिकार शांतिपूर्वक बढ़ते गए।

शताब्दी के अंत तक वे व्यक्ति जो रानी के राज्यरोहण काल से ही इंग्लैंड का शासन करते आए थे, जिनमें लीस्टर, बालसिंघम तथा सेसिल प्रसिद्ध हैं, एक एक करके चल बसे, और आर्मेडा के विनाश के उपरांत १५ वर्ष तक नए व्यक्ति राजनीतिक मंच पर रहे। रैले, ड्रेक और एसेक्स ऐसे साहसी नवयुवक रोमांचकारी कार्यो की होड़ में आए। यह उग्र नाविक तथा औपनिवेशिक क्षमता का युग था। ड्रेक की विश्वयात्रा, अमरीका में नीग्रो व्यापार की नींव, उत्तरी अमरीका की प्रमुख भूमि पर अँगरेजों के प्रथम उपनिवेश वर्जीनिया की स्थापना तथा ईस्ट इंडिया कंपनी की भाँति अनेक व्यापारिक कंपनियों का आविर्भाव एलिज़ाबेथ युग की विशेषताओं में से हैं। इस अवधि में ब्रिटेन की एकता को वास्तविकता की ओर ले जाने के महत्वपूर्ण कदम उठाए जा रहे थे। प्रथम बार वेल्स और इंग्लैंड एक सामान्य धर्म के अंतर्गत एकता की ओर अग्रसर हुए। आयरलैंड, जो प्रतिरोध आंदोलन का गढ़ बन गया था और जहाँ चार प्रमुख विद्रोह हुए थे, अंतत: १६०३ ई. में विजित कर लिया गया।

एलिज़ाबेथ ने युग के अंतिम वर्षो में अनुपम भौतिक समृद्धि देखी। विदेशों से व्यापार के फलस्वरूप व्यापारिक वर्ग का प्राचुर्य हुआ। ऊन के व्यापार में महान् वृद्धि हुई। आलू की कृषि के साथ महाद्वीप से हरी फसलें, फल और तरकारियाँ लाई गई। चरागाह खेतिहर प्रदेश में परिवर्तित किए गए। निर्धनों को विधिवत् सहायता देने के लिए निर्धन कानून बनाए गए। राष्ट्र की साधारण समृद्धि, स्तरीय उच्च जीवन तथा सभ्यता में अभिव्यक्त हुई। नई जागृति का जनसाधारण में संचार एवं शिक्षाप्रसार द्रुत गति से हुआ। स्थापत्य कला ने गोथिक आवरण को त्यागकर नूतन एलिज़ाबेथी परिधान ग्रहण किया। युग का महान् साहित्यिक अभियान इतिहास में अद्वितीय था। एलिज़ाबेथ कालीन साहित्य निश्चित राष्ट्रीय चरित्र रखता था। युगात्मा मारलो तथा शेक्सपियर के राष्ट्रीय नाट्य साहित्य, स्पेंसर के काव्य तथा हूकर और बेकन के अभिनव गद्य में अवतरित हुई। यह महान् शौर्य और यश का शासन था। मार्च, १६०३ ई. में अपने शासन के ४६वें वर्ष ७० वर्ष की अवस्था में एलिज़ाबेथ की मृत्यु ने एक महान् युग का पटाक्षेप किया।

सं.ग्रं.एस.आर.गार्डिनर : इंग्लैंड का इतिहास; ए.डी. ईन्स : इंग्लैंड टयूडर शासकों के अंतर्गत; रौमज़े म्योर : ब्रिटिश कामनवेल्थ का संक्षिप्त इतिहास; टी. एफ. टाउट : ग्रेट ब्रिटेन का बृहत् इतिहास; जी. एम. ट्रैवेलियन : इंग्लैंड का इतिहास; क्रीटन : रानी एलिज़ाबेथ; लिटेन स्ट्रैची : एलिज़ाबेथ ऐंउ एसेक्स। (गि.शं.मि.)