एर्लिक, पॉल (Ehrlich, Paul; १८५४-१९१५) जर्मन जीवाणु-वैज्ञानिक का जन्म जर्मनी राज्य के साइलेशिया प्रांत में सन् १८५४ ई. के मार्च में हुआ। ये जाति के यहूदी थे। इन्होंने आरंभिक शिक्षा ब्रेसलॉ नामक नगर के जिमनेशियम में पाई। पुस्तकों के पठन पाठन में इनकी विशेष रुचि न थी। तदनंतर कई मेडिकल स्कूलों में चिकित्साशास्त्र के अध्ययन के हेतु गए। इनके विषय में ब्रेसलॉ, स्ट्रासबुर्ग फ़ीडबुर्ग तथा लाइप्ज़िक के मेडिकल स्कूलों के अध्यापक कहा करते थे कि यह साधारण छात्र नहीं हैं। इनकी विशेष रुचि विभिन्न प्रकार के रंग बनाने तथा उनसे वस्तुओं को रँगने में थी। इन्होंने रॉबर्ट कॉख को, जो आयु तथा अनुभव में इनसे दस वर्ष बड़े थे, क्षयरोग के दंडाणुओं (बी. टुबरकुलोसिस) को रँगने की विशेष विधि बताई तथा सूक्ष्म जीवाणुओं का अध्ययन करने के लिए स्वयं अपने शरीर में क्षय दंडाणुओं को प्रविष्ट कर लिया और १८८६ ई. में क्षयरोग से आक्रांत हो गए। उस समय इनकी अवस्था केवल ३२ वर्ष की थी।
सन् १८८८ ई. में ये मिस्र देश (ईजिप्ट) से विशूचिका विषयक अनुसंधान करके लौटे तथा बर्लिन में ''रॉबर्ट कॉख इंस्टीटयूट'' में रहकर कार्य करने लगे।
सन् १८९६ ई. बर्लिन के निकट स्टेगलित्स नामक नगर में अपनी प्रयोगशाला स्थापित की, जिसका नाम ''लसी-परीक्षण राजकीय प्रशियन संस्था'' था, और उसके अध्यक्ष तथा निर्देशक हो गए। १८९९ ई. में फ्ऱांकफ़ुर्ट आन माइन में निवास करने के लिए आ बसे। यहाँ रहकर ये प्रतिरक्षा (इम्यूनिटी) पर अनुसंधान करते रहे।
१९०२ ई. में जापानी अन्वेषक डॉक्टर शिगा द्वारा आविष्कृत फिरंग चक्राणु (टी. पैलिडा) पर अपनी प्रतिरक्षक औषधों का प्रभाव देखने के लिए प्रयोग करने लगे। १९०६ ई. में इन्होंने एटोक्सिल नामक औषध में कुछ रासायनिक परिवर्तन कर उसका प्रयोग फिरंग चक्राणुओं पर किया तथा उनके विनाश में सफलता प्राप्त की। इस नई आविष्कृत औषध का नाम इन्होंने ''६०६'' रखा। १९०८ ई. में इन्हें इल्या मैक्मिकोव के साथ संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
३१ अगस्त, सन् १९०९ ई. को इन्होंने ६०६ नामक औषध का प्रयोग फिरंग रोग (सिफ़लिस, उपदंश) से ग्रस्त खरहों पर किया और अपूर्व सफलता प्राप्त की। सन् १९१० ई में इन्होंने अपनी ६०६ का प्रयोग फिरंग ग्रस्त मनुष्य पर किया तथा सफलता पाई। इस औषध का नाम पीछे साल्वार्सन पड़ा, जो आगे चलकर ''बेयर २०५'' के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस औषध ने सहस्रों फिरंग ग्रस्त रोगियों को रोगमुक्त कर नवजीवन प्रदान किया। इनकी मृत्यु सन् १९१५ ई. में हुई।
सं.ग्रं.–डब्ल्यू. बुलॉख : द हिस्ट्री ऑव बैक्टीरिऑलोजी (ऑक्सफ़र्ड, १९३८)।