एक्सरे की प्रकृति जर्मनी में वुर्ट् सबर्ग विश्वविद्यालय के भौतिकी के प्राध्यापक विल्हेल्म कोनराड रंटजन ने १८९५ में एक्सरे का आविष्कार किया। यदि कांच की नलिका में से वायु को पंप से क्रमश: निकाला जाए और उसमें उच्च विभव का विद्युद्विसर्जन किया जाए, तो दाब के पर्याप्त अल्प होने पर वायु स्वयं प्रकाशित होने लगती है। इस घटना का प्रायोगिक अध्ययन करते समय रंटजन ने यह देखा कि वायु का दाब अत्यंत अल्प होने पर काच की नलिका में से जो किरणें आती हैं, उनसे बेरियम प्लैटिनोसाइनाइड के मणिभ प्रकाश देने लगते हैं और, नलिका को काले कागज से पूर्ण रूप से ढकने पर भी, पास में रखे मणिभ द्युतिमान होते रहते हैं। अत: यह स्पष्ट था कि विसर्जननलिका के बाहर जो किरणें आती हैं वे काले कागज में से सुगमता से पार हो सकती हैं और बेरियम प्लेटिनोसाइनाइड के परदे को द्युतिमान करने का विशेष गुण इन किरणों में है। विज्ञान में इस प्रकार की किरणें तब तक ज्ञात नहीं थीं। अत: इन नई आविष्कृत किरणों का नाम 'एक्सरेज़' (अर्थात् 'अज्ञात किरणें') रखा गया, किंतु रंटजन के संमान में, विशेषत : जर्मनी में, इन किरणों को 'रंटजन किरणें' ही कहा जाता है। रंटजन के आविष्कार के प्रकाशित होते ही संपूर्ण वैज्ञानिक विश्व का ध्यान एक्सरे की ओर आकृष्ट हुआ। अपारदर्शी ठोस पदार्थो में से पार होने का एक्सरे का गुणधर्म अत्यंत महत्वपूर्ण था और इस गुणधर्म का उपयोग विज्ञान के अनेक विभागों में हो सकता था। अत: अनेक भौतिकी प्रयोगशालाओं में एक्सरे के उत्पादन तथा उनके गुणधर्मो के अध्ययन के प्रयत्न होने लगे।

अल्प दाब पर वायु में जो विद्युद्विसर्जन होता है, उसके अध्ययन का आधुनिक भौतिकी के विकास में एक विशेष स्थान है। यदि कांच की एक लंबी नलिका को निर्वात पंप से जोड़कर भीतर की वायु में उच्च विभव की विद्युद्वारा प्रवाहित की जाए तो प्रारंभ में, जब दाब अधिक रहती है तब, कोई क्रिया दिखाई नहीं देती, किंतु वायु की दाब जब अल्प हो जाती है तब पहले दोनों विद्युदग्रद्युतिमान होते हैं। दाब को और कम करने पर संपूर्ण नलिका द्युतिमान हो जाती है। आधुनिक भौतिकी के अनुसार इसका कारण ऊर्जा प्राप्त होती है और वे धनाग्र की ओर अति वेग से जाते समय शेष वायु के अणुओं से संघात करते हैं। संघातों के कारण अणुओं के आयन बनते हैं और जब ये आयन पूर्व अवस्था को प्राप्त होते हैं तब प्रकाश का उत्सर्जन होता है। आयनों के अस्तित्व के कारण वायु में विद्युद्विसर्जन जारी रहता है। दाब के अत्यंत अल्प हो जाने पर इलेक्ट्रानों से संघात होने के लिए पर्याप्त अणु नहीं रहते; अत: इलेक्ट्रान ऋणाग्र से निकलकर अपनी संपूर्ण ऊर्जा से धनाग्र से सीधे टकराते हैं। इन संघातों के कारण इलेक्ट्रानों की तीव्र ऊर्जा धनाग्र के परमाणुओं को मिल जाती है और इसका एक परिणाम एक्सरे का उत्पादन होता है। इस पद्धति से एक्सरे का उत्पादन करने के लिए नलिका में एक क्रांतिक दाब की आवश्यकता होती है। वायु की दाब यदि इस क्रांतिक दाब से अधिक हो तो एक्सरे के उत्पादन के लिए पर्याप्त ऊर्जा इलेक्ट्रानों में नहीं रहती (क्योंकि इलेक्ट्रानों की ऊर्जा का अधिकांश परमाणुओं से लगातार संघात होने के कारण क्रमश: घटता जाता है और धनाग्र से संघात होते समय केवल स्वल्प ऊर्जा शेष रहती है)। दूसरी ओर, यदि दाब इस क्रांतिक दाब से कम हो तो इलेक्ट्रान उत्पन्न ही नहीं होते, अत: विद्युद्विसर्जन ही बंद हो जाता है। प्रारंभ में एक्सरे का उत्पादन इसी प्रकार की वायुनली का उपयोग करके किया जाता था और वायु की दाब को महत्प्रयास से इस क्रांतिक दाब के मान पर रखा जाता था।

एक्सरे के दो विशेष गुणधर्म अधिक महत्वपूर्ण हैं : (१) तीव्रता और (२) ठोस पदार्थो में प्रवेशक्षमता (जिसे एक्सरे की 'कठोरता' भी कहा जाता है)। तीव्रतामापन की तीन मुख्य विधियाँ हैं। प्रतिदीप्त परदे पर एक्सरे से जो दीप्ति आती है उसकी तीव्रता-मर्यादित दीप्ति तक-एक्सरे की तीव्रता की समानुपाती होती है। प्रतिदीप्ति की तीव्रता का अनुमान करके एक्सरे की तीव्रता की तुलना स्थूल रूप से हो सकती है। दूसरी विधि में फोटो पट्टिका के ऊपर एक्सरे की (प्रकाश के ही समान) जो क्रिया होती है, उसका उपयोग किया जाता है। एक्सरे के आपतन से फोटो पट्टिका पर जो कालापन आता है, वह एक्सरे की तीव्रता तथा आपतन काल पर निर्भर रहता है। इस पद्धति से दो एक्सरे पुंजों की तीव्रताओं की तुलना करने के लिए अधिक तीव्रता के एक्सरे पुंज से फोटो पट्टिका पर मर्यादित स्थान पर किसी उपयुक्त काल तक क्रिया होने दी जाती है और तत्पश्चात् उसी पट्टिका पर कुछ नीचे दूसरे एक्सरे पुंज की क्रिया काल , २, ३ आदि (t, 2t, 3t) तक होने दी जाती है। पट्टिका को विकसित (डेवेलप) करने के पश्चात् दोनों चित्रों के कालेपन की तुलना करने से दोनों पुंजों की सापेक्ष तीव्रता का ज्ञान हो जाता है। तीव्रतामापन की तीसरी रीति अधिक प्रचलित है, क्योंकि इस रीति से तीव्रता ठीक ठीक मापी जा सकती है। जब एक्सरे वायु में से जाती है तब वायु विद्युच्चालक हो जाती है और उसकी चालकता एक्सरे की तीव्रता पर निर्भर रहती है। एक्सरे की क्रिया से वायु के अणुओं के इलेक्ट्रान विस्थापित होते हैं और आयन उत्पन्न होते हैं। उचित विद्युद्विभव की उपस्थिति में आयनों से जो विद्युद्धारा प्राप्त होती है, वह संवेदी विद्युन्मापी से, अथवा अन्य उचित संवेदी उपकरणों से, मापी जा सकती है। एक्सरे की तीव्रता विद्युद्धारा की समानुपाती होती है। हाल में गुणक-प्रकाशनलिका (मल्टिप्लायर फोटो टयूब) और एक्सरे-संवेदी स्फुर के उपयोग से तीव्रता का मापन अत्यंत सुलभ हो गया है। उसी प्रकार, गाइगरगुणक की सहायता से आयनीकरण की धारा का मापन भी सुगमता से हो सकता है। अत: वर्तमानकाल में इन दोनों प्रकार के उपकरणों द्वारा एक्सरे की तीव्रता का मापन अधिक प्रचलित है।

तीव्रतामापन की इन तीनों प्रचलित रीतियों से दो एक्सरे पुंजों की तीव्रताओं की केवल तुलना ही हो सकती है, निरपेक्ष तीव्रता प्राप्त नहीं हो सकती। आपाती एक्सरे के लंबवत् एक वर्ग सेंटीमीटर क्षेत्रफल पर प्रति सेंकड जो ऊर्जा पड़ती है, उसको वस्तुत: हम उस एक्सरे की तीव्रता (निरपेक्ष तीव्रता) कह सकते हैं। इस तीव्रता को अर्ग प्रति वर्ग सेंटीमीटर प्रति सेंकड में व्यक्त करते हैं। तीव्रता का मापन ऊर्जा के रूप में करने के लिए एक्सरे की ऊर्जा को उष्मा अत्यंत अल्प होने के कारण इस रीति से तीव्रतामापन के लिए अत्यंत सूक्ष्मग्राही विशिष्ट उपकरणों की आवश्यकता होती है। इस रीति से तीव्रतामापन का प्रथम प्रयास टेरिल ने किया था। इसके पश्चात् १९५३ ई. में अमरीका में इलिनाय विश्वविद्यालय के हेंडरसन, बीटी एवं लाफ़न ने भी प्रयत्न किए। अति प्रचंड विद्युद्विभव से उत्पन्न एक्सरे की तीव्रता केवल इसी रीति से नापी जा सकती है।

भौतिकी के प्रायोगिक कार्यो में सदा एककों की आवश्यकता होती है और मापी गई राशि के अनुसार इसका स्वरूप होता है। एक्सरे की मात्रा के एकक को रंटजन कहते हैं और वर्तमान काल में एक रंटजन की परिभाषा निम्नलिखित प्रकार से की जाती है : एक रंटजन एक्सरे की वह मात्रा है जिससे ०.००१२९३ ग्राम वायु से प्राप्त आवेशित कणिकाओं का उत्सर्जन १ स्थिर वैद्युत (धन अथवा ऋण) होगा। इस परिभाषा के अनुसार एक्सरे की तीव्रता रंटजन एककों में मापने के लिए रंटजनमापी उपकरण उपयोग में लाए जाते हैं।

एक्सरे का दूसरा विशेष गुणधर्म उनकी ठोस पदार्थो में प्रवेशक्षमता है। भिन्न भिन्न ठोस पिंडों की समान मोटाइयों में से पार होने पर एक्सरे की तीव्रता में जो कमी होती है वह समान नहीं होती। कुछ ठोस पदार्थो में एक्सरे का अवशोषण अधिक होता है ओर कुछ पदार्थो में कम। प्रयोग द्वारा यह फल प्राप्त हुआ कि किसी ठोस विशेष की भिन्न भिन्न मोटाइयों में से यदि एक्सरे पार जाए, तो निर्गत एक्सरे को तीव्रता, प्रारंभिक तीव्रता और ठोस पदार्थ की मोटाई, इन तीनों में निम्नलिखित समीकरण के अनुसार संबंध रहता है :

लघु (ती/ती. ) - म ुं मोटाई . . . (१)

log (i /i.) = – m×मोटाई (१)

यहाँ ती. (i.) = एक्सरे की प्रारंभिक तीव्रता; ती (i) = ठोस पदार्थ में से पार होने के पश्चात् एक्सरे की तीव्रता; (m) = एक स्थिरांक, जिसको अवशोषण गुणक कहते हैं। समीकरण (१) के स्थिरांक को उस ठोस विशेष एक्सरे-अवशोषण-गुणक कहते हैं। वस्तुत: यह रेखीय गुणक है। इसको व्यापक रूप में व्यक्त करने के लिए (m) में उस ठोस पदार्थ के घनत्व का भाग दिया जाता है और इस प्रकार प्राप्त अवशोषण गुणंक को संहति-अवशोषण-गुणंक कहते हैं। अत:

सं = /घनत्व [m mass=m/ घनत्व]

संहति-अवशोषण-गुणक का विशेष महत्व यह है कि वह अवशोषक पदार्थ का लाक्षणिक गुणधर्म है। उदाहरणार्थ, जल और भाप का रेखीय अवशोषण-गुणक भिन्न होता है, क्योंकि जल द्रव है और भाप गैस हैं। परंतु जल तथा भाप का एक्सरे संहति-अवशोषण-गुणंक समान ही होता है, क्योंकि जल तथा भाप के रासायनिक संरचक अभिन्न हैं अर्थात् हाइड्रोजन तथा आक्सिजन। प्रकाश और एक्सरे के गुणधर्मो की भिन्नता संहति-अवशोषण-गुणक से अत्यंत स्पष्ट हो जाती है। साधारणत: द्रव और ठोस पदार्थ प्रकाश के लिए स्वयं अपारदर्शी अथवा पारभासक (ट्रैसल्यूसेंट) होते हैं। प्रकाश के लिए हीरा पारदर्शी और ग्रैफ़ाइट अपारदर्शी है, परंतु एक्सरे का संहति-अवशोषण-गुणंक हीरा तथा ग्रैफ़ाइट के लिए समान ही रहता है, क्योंकि ये दोनों पदार्थ वस्तुत: कार्बन के ही विभिन्न स्वरूप हैं।

एक्सरे नलिका से जो संपूर्ण एक्सरे प्राप्त होते हैं, उन सबका अवशोषण-गुणक मुख्यत: (१) विद्युद्विभव और (२) अवशोषक परदे की धातु का परमाणु-क्रमांक, इन दोनों पर निर्भर रहता है। जैसे जैसे विभव बढ़ता जाता है वैसे ही वैसे उत्पादित एक्सरे की प्रवेशक्षमता अथवा कठोरता बढ़ती जाती है। समीकरण (१) से यह निष्कर्ष निकलता है कि किसी एक ठोस पदार्थ के लिए अवशोषण गुणक सब मोटाइयों के लिए स्थिर रहेगा। किंतु प्रत्यक्ष प्रयोग में एक्सरे नलिका से प्राप्त विकिरण का न्यून प्रवेशक्षमतावाला भाग अवशोषक परदे के प्रथम स्तरों में ही पूर्णतया अवशोषित हो जाता है (कम प्रवेशक्षमता के इस एक्सरे को मृदू एक्सरे कहते हैं)। केवल अधिक प्रवेशक्षमता के एक्सरे (जिनको कठोर एक्सरे कहते हैं) अवशोषण परदे के अंतिम स्तरों तक पहुँच पाते हैं। स्पष्ट है कि अवशोषण परदे में प्रवेश करनेवाले एक्सरे का अवशोषण गुणंक परदे से पार निकले हुए एक्सरे के अवशोषण गुणक से अधिक होता है। जब समस्त एक्सरे का अवशोषण गुणक समान होता है (अथवा भौतिकी की भाषा में, जब समस्त एक्सरे का तरंगदैर्घ्य समान होता है) तब उनको समांग एक्सरे कहते हैं। अत: एक्सरे की मात्रा उनकी तीव्रता से, और उनकी विशेषता उनके अवशोषण-गुणक से (अथवा, कहना चाहिए, उनके तरंगदैर्घ्य से) मापित होता है।

वर्तमान काल में प्राय: संपूर्ण विद्युच्चुंबकीय वर्णक्रम का आविष्कार हो चुका है। इसमें एक्सरे का स्थान चित्र १ में दिया हुआ है।

चित्र १. संपूर्ण विद्युच्चुंबकीय वर्णक्रम

क: एक्सरे और गामा किरण;ख पराबैगनी (अल्ट्रावॉयलेट);ग दृश्य प्रकाश;घ अवरक्त (इन्फ्रा-रेड);ङ सूक्ष्म तरंग (माइक्रो-वेव्ज़)च रेडियो तरंग।

चित्र १ में संपूर्ण विद्युच्चुंबकीय वर्णक्रम दिखाया गया है। उसमें सभी तरंगदैर्घ्य सेंटीमीटर में दिए गए हैं। स्थूल रूप से पूर्वोक्त वर्णक्रम के विभिन्न विभाग क, ख, ग,...अक्षरों से सूचित किए गए हैं। यद्यपि यहाँ सब तरंगदैर्घ्य सेंटीमीटर में दिए हैं, तथापि विभिन्न विभागों में सुविधा के लिए साधारणत: भिन्न भिन्न एकक प्रयुक्त होते हैं। रेडियो प्रसारण में १ मीटर को एकक माना जाता है, तथा रेडियो के सूक्ष्म तरंग विभाग में एक मिलीमीटर को एकक माना जाता है। अवरक्त वर्णक्रम के लिए १०-४ सें.मी. का एकक प्रचलित है तथा दृश्य प्रकाश के लिए इससे भी छोटे १०-८ सें.मी. के एकक की आवश्यकता होती है । १०-४ सें. मी. के एकक को म्यू और दृश्य प्रकाश के एकक (१०-८ सें.मी.)को आंगस्त्रम कहते हैं। प्रारंभ में एक्सरे के लिए भी आंगस्त्रम उपयोग में लाया जाता था, किंतु एक्सरे वर्णक्रम में अधिक आविष्कार होने पर इस एकक से भी सूक्ष्म एकक की आवश्यकता होने लगी। अत: एक्सरे के लिए तथा गामा किरणों के लिए ज़ीगब्ह्रा ने एक नए एकक का उपयोग किया, जिसे एक्सरे एकक कहते हैं। यह १०-११ सें. मी. के बराबर होता है। विद्युच्चुंबकीय सिद्धांत की दृष्टि से एक्सरे और गामा किरणों में कोई भेद नहीं है; एक्सरे प्रयोगशालाओं में उत्पन्न किए जा सकते हैं और गामा किरणें रेडियोधर्मी पदार्थो से प्राप्त होती हैं (हाल में अति प्रचंड विद्युद्विभव से गामा किरणों के तरंगदैर्घ्या के समान सूक्ष्म तरंगदैर्घ्या के एक्सरे का उत्पादन प्रयोगशाला में हो चुका है)। विद्युच्चुंबकीय वर्णक्रम में अत्यंत स्वल्प तरंगदैर्घ्या का विभाग एक्सरे तथा गामा किरणों का है। तरंगदैर्घ्य आवृत्तियों का प्रतिलोमानुपाती होने के कारण एक्सरे और गामा किरणों की आवृत्तियाँ अन्य विद्युच्चुंबकीय विकिरणों से बहुत अधिक होती है।

जिस पदार्थ से प्रकाश आता है (चाहे वह पदार्थ स्वयं प्रकाशित हो अथवा किसी द्युतिमान पदार्थ से प्राप्त प्रकाश का प्रकीर्णन करता हो) उस पदार्थ को हम देख सकते हैं, क्योंकि प्रकाश किरणों की एक क्रिया हमारी आँख के रूपाधार (रेटिना) पर होती है। इस प्रकार की क्रिया एक्सरे द्वारा नहीं होती, अत: एक्सरे दृश्य नहीं हैं। इतना ही नहीं, आँखों पर तथा शरीर के अन्य अंगों पर एकसरे की क्रिया अत्यंत हानिकारक होती है। जीवित कोशाओं पर एक्सरे की पर्याप्त काल तक क्रिया होने से वे मृत्त हो जाती हैं। एक्सरे शरीर के चर्म में से सरलता से पार हो जाते हैं और भीतर के जीवित कोशाओं पर इनकी पर्याप्त काल तक क्रिया होने से उनके मृत हो जाने की संभावना रहती है। फिर, एक्सरे के प्रभाव टिकाऊ होते है; अत: शरीर के एक ही स्थान पर भिन्न-भिन्न समयों पर भी एक्सरे की क्रिया होती रहने पर कुछ काल में कैन्सर सदृश दु:साध्य रोग हो जाते हैं। अत: एक्सरे का उपयोग करते समय अत्यंत सावधानी से कार्य करने की आवश्यकता रहती है। शरीर की रक्षा के लिए विशेष साधन उपयोग में लाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त एक्सरे का नित्य उपयोग करनेवाले वर्तमान काल में एक एक्सरे-मात्रा-मापी अपनी जेब में रखते हैं, जिससे पता चलता है कि विकिरण की कितनी मात्रा कर्मचारी के ऊपर कार्य कर चुकी है। एक्सरे के इस घातक गुणधर्म का अन्य रोगों में उपयोग भी किया जाता है; जैसे, शरीर के किसी भाग में अनिष्ट रोगणुओं की वृद्धि होती हो तो उनपर एक्सरे का प्रयोग करके उन्हें नष्ट किया जा सकता है।

एक्सरे का आयुर्विज्ञान (मेडिसिन) में, विशेषत: शल्य विज्ञान (सर्जरी) में, अधिक उपयोग होता है। इस प्रकार के उपयोग की संभावना एक्सरे के आविष्कार के समय से ही स्पष्ट थी। शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों के अवशोषण-गुणक विभिन्न होते हैं; अत: शरीर के किसी भी भाग में से एक्सरे पार करके फोटो लेने से अस्थियाँ तथा अन्य घटक पृथक् पृथक् दिखाई देते हैं (एक्सरे विज्ञान द्र.)। अत: शल्य क्रिया के पूर्व, अथवा यह ज्ञात करने के लिए कि रोग किस अवस्था में है एक्सरे फोटो अत्यंत उपयोगी होते हैं। एक्सरे के उत्पादन में प्रगति होने पर उनका उपयोग उद्योगों में भी होने लगा और वर्तमान काल में धातुविज्ञान में एक्सरे का उपयोग आवश्यक हो गया है।

एक्सरे उत्पादन के उपकरणविभव के कारण इलेक्ट्रान को ऊर्जा × वि (e×v) प्राप्त होती, जहाँ (e)= इलेक्ट्रान का आवेश, तथा वि =(v) विभव। यदि इतनी कुल ऊर्जा धनाग्र के अणुओं में स्थानांतरित हो जाए तथा इस ऊर्जा का एक्सरे में परिवर्तन हो, तो उत्सर्जित एक्सरे की आवृति निम्नलिखित समीकरण द्वारा प्राप्त होगी :

× वि (e×v)= प्लांक का स्थिरांकुंआवृत्ति. . . (२)

समीकरण (२) अनेक प्रयोगों में प्रमाणित हुआ है। प्लांक के स्थिरांक का मान ६.६१०-२७ अर्ग-सेकंड है। विद्युच्चुंबकीय तरंगों के लिए आवृत्ति तथा तरंगदैर्घ्य में निम्नलिखित संबंध होता है:

तरगदैर्घ्य × आवृत्ति = विद्युत्तरंगदैर्घ्य का वेग

=2.99×1010 सें.मी. प्रति सेंकड

यदि विभव वोल्ट में ज्ञात हो, तो उत्पादित एक्सरे का तरंगदैर्घ्य आंगस्त्रम एककों में निम्नलिखित समीकरण द्वारा सरलता से निकाला जा सकता है:

तरंगदैर्घ्य (आंगस्त्रमों) में . . . (३)

समीकरण (३) के अनुसार एक्सरे का जो तरंगदैर्घ्य प्राप्त होता है वह केवल इस अनुमान पर आधारित है कि ऋणाग्र से धनाग्र तक पहुँचने में इलेक्ट्रान को प्राप्त ऊर्जा × वि (e×v) का संपूर्ण भाग विद्युच्चुंबकीय तरंगों में परिवर्तित होकर समीकरण (२) के अनुसार विकिरण का एक ही क्वांटम देता है। किंतु सब इलेक्ट्रानों के लिए यह ठीक नहीं है। विद्युच्चुंबकीय विकिरण उत्पन्न होने के पूर्व इलेक्ट्रान की ऊर्जा के अंशत: अथवा संपूर्णत: नष्ट होने की बहुत अधिक संभावना रहती है। इसके अनेक कारण होते हैं। जिस धातु का धनाग्र हो उस धातु के परमाणुओं से प्रथम आघात होने पर इलेक्ट्रान उस धनाग्र के तल के भीतर जाते हैं। इन परमाणुओं से इलेक्ट्रानों की गति में प्रतिरोध होता है, क्योंकि वे परमाणु भी अन्य इलेक्ट्रानों से परिवेष्टित होते हैं। प्रत्येक धातु में धात्वीय इलेक्ट्रान होते हैं जिनके कारण धातुएँ विद्युच्चालक होती हैं। धनाग्र में प्रवेश करते समय ऋणाग्र से आनेवाले इलेक्ट्रानों तथा धनाग्र के आंतर इलेक्ट्रानों में अनेक संघात होते हैं और प्रत्येक संघात में बाह्य इलेक्ट्रानों की ऊर्जा कम होती जाती है। अत: अंत में जब बाह्य इलेक्ट्रानों से विद्युच्चुंबकीय तरंगें उत्पन्न होती हैं तब इन इलेक्ट्रानों की ऊर्जा एक समान नहीं होती। विभवांतर वि (v) से महतम ऊर्जा × वि (e×v)होंगी, किंतु इस महत्तम ऊर्जा के इलेक्ट्रानअर्थात् वे जिनसे एक भी संघात नहीं हुआ हैं अत्यंत अल्प होते हैं; अधिकतर इलेक्ट्रानों की ऊर्जा इससे कम होती है। इसलिए उत्पादित एक्सरे एकवर्ण नहीं होता; हमें एक्सरे का अविच्छित वर्णक्रम मिलता है। श्वेत प्रकाश का वर्णक्रम जिस प्रकार का होता है, उसी प्रकार का अविच्छिन्न वर्णक्रम एक्सरे का भी होता है; अत: एक्सरे के अविच्छिन्न वर्णक्रम को श्वेत विकिरण भी कहते हैं। चित्र २ में अविच्छिन्न एक्सरे वर्णक्रम के भिन्न-भिन्न तरंगदैर्घ्यो की तीव्रता का वक्र में न्यूनतम तरंगदैर्घ्य समीकरण (३) के अनुसार विद्युद्विभव से संबंधित है। यदि विभव बढ़ाया जाए तो न्यूनतम तरंगदैर्घ्य और भी कम हो जाएँगे, किंतु वक्र चित्र २ के समान ही रहेगा। चित्र २ के अनुसार प्राप्त अधिकतम तीव्रता का तरंगदैर्घ्य भी विभव पर ही निर्भर रहता है और विभव बढ़ाने से अधिकतम तीव्रता का संगत तरंगदैर्घ्य भी कम हो जाता है। संपूर्ण एक्सरे की तीव्रता भी विभव पर निर्भर रहती है; जैसे जैसे विभव बढ़ता जाता है, वैसे वैसे संपूर्ण तीव्रता भी बढ़ती जाती है।

चित्र २. एक्सरे की वर्णक्रमीय तीव्रता का वितरण

रंटजन ने जिस प्रकार के उपकरणों की सहायता से एक्सरे का आविषकार किया था प्रारंभ के कतिपय वर्षो तक उसी प्रकार के उपकरण उपयोग में लाए जाते थे। इनमें थोड़ा बहुत सुधार हुआ और शिअरर, हेडिंग, ज़ीगब्ह्रा इत्यादि वैज्ञानिकों ने ऐसी एक्सरे नलिकाओं की उपज्ञा की , जिनके धनाग्र सरलता से बदले जा सकते हैं किंतु इन सब वायु-विसर्जन-नलिकाओं में एक विशेष दोष यह था कि इनमें विद्युद्धारा का तथा विभव का स्वतंत्रतापूर्वक परिवर्तन नहीं किया जा सकता था। यह दोष कूलिज की एक्सरे नलिका में दूर कर दिया गया। १९१३ में कूलिज ने विभिन्न तत्वों पर इलेक्ट्रानों का उत्पादन करके कूलिज नलिका की उपज्ञा की (चित्र ३)। कूलिज ने इलेक्ट्रान प्राप्त करने के लिए वायु में विद्युद्विसर्जन के बदले उष्मीय आयनों का उपयोग किया। धातु के तंतु में विद्युद्धारा प्रवाहित करने से तंतु गरम हो जाता है और (निर्वात में) धारा अधिक बढ़ाने से उससे प्रकाश का उत्सर्जन होने लगता है (जैसा तप्ततंतु विद्युद्दीप में होता है)। इस तप्ततंतु से प्रकाश के साथ-साथ इलेक्ट्रान भी निकलते हैं और यदि निर्वात में तप्त तंतु के समीप धातु की एक पट्टी रखकर उसको धन विद्युद्विभव दिया जाए तो धारामापी में विद्युद्धारा दिखाई देगी। किंतु इस रीति से इलेक्ट्रान प्राप्त करने के लिए अत्युच्च निर्वात की आवश्यकता होती है। कूलिज ने कांच का एक विशाल बल्ब लेकर उसके केंद्र में उच्च गलनांकवाली धातु का एक टुकड़ा रखा (चित्र २) और उसके अभिमुख टंग्स्टन तंतु के संर्पिल के पर्याप्त चक्र स्थापित करके संपूर्ण बल्ब को पूर्णत: निर्वात किया। यदि तंतु के इस सर्पिल में पर्याप्त विद्युद्धारा प्रवाहित की जाए तो तंतु तप्त हो जाता है तथा उससे इलेक्ट्रान प्राप्त होते हैं। इन इलेक्ट्रानों को विभव बढ़ाकर उचित ऊर्जा दी जा सकती है। अत्युच्च निर्वात होने के कारण वायु के परमाणुओं के संघात नहीं होते, अत: इलेक्ट्रान संपूर्ण ऊर्जा के साथ धातु से संघात करते हैं और एक्सरे का उत्पादन होता है। कूलिज की एक्सरे नलिका की मुख्य सुविधा यह है कि उत्पादित एक्सरे की तीव्रता तथा कठोरता में इच्छानुसार परिवर्तन किया जा सकता है। विभव को स्थिर रखकर तंतु में यदि अधिक विद्युद्धारा प्रवाहित की जाए तो तंतु का ताप बढ़ने के कारण रिचर्ड्सन् के समीकरण के अनुसार इलेक्ट्रानों की संख्या भी बढ़ती है, अत: (इलेक्ट्रानों से उत्पन्न एक्सरे की तीव्रता बढ़ जाती है। इलेक्ट्रानों की संख्या (अथवा उष्मीय आयन धारा) स्थिर रखकर (अर्थात् टंग्स्टन तंतु में विद्युद्धारा स्थिर रखकर) यदि विभव बढ़ाया जाए, तो समीकरण (३) के अनुसार न्यूनतम तरंगदैर्घ्य कम हो जाएगा और उत्पन्न एक्सरे की कठोरता अधिक हो जाएगी। इस कूलिज नलिका पर आधारित, किंतु आवश्यक परिवर्तनों से युक्त अनेक प्रकार की एक्सरे नलिकाओं में एक अपचायी परिणामित्र (स्टेप डाउन ट्रैंसफॉर्मर) से आवश्यक प्रत्यावर्ती धारा पहुँचाई जाती हैं और एक उच्चायी परिणामित्र (स्टेप अप् ट्रैंसफ़ार्मर) से आवश्यक प्रत्यावर्ती उच्च विभव उत्पन्न किया जाता है। कूलिज नलिका स्वयं ऋजुकारी है।

चित्र ३. कूलिज एक्सरे नलिका

एक्सरे नलिका में इलेक्ट्रानों में जो ऊर्जा होती है उसके दो प्रतिशत से कुछ कम भाग का ही एक्सरे में परिवर्तन होता है और शेष ९८ प्रतिशत से कुछ अधिक भाग उष्मा उत्पन्न करने में व्यय होता है। लक्ष्य का, अर्थात् उस धातु के टुकड़े का जिसपर अल्पवधि में इलेक्ट्रानों के असंख्य संघात होते हैं, ताप इतना अधिक हो जाता है कि उसके गल जाने की संभावना रहती है। लक्ष्य को ठंडा रखने के लिए पानी के निरंतर प्रवाह का आयोजन किया जाता है। लक्ष्य में उत्पन्न हुई उष्मा को इस प्रकार बराबर हटाते रहने से एक्सरे नलिका से अधिक समय तक कार्य लेने में कोई कठिनाई नहीं होती।

एक्सरे का अध्ययन भौतिकी की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण तो था ही, धीरे-धीरे एक्सरे का उपयोग, जैसा ऊपर बताया गया है, आयुर्विज्ञान और उद्योग में भी होने लगा। इन सब कार्यो के लिए अधिक तीव्र तथा कठोर एक्सरे के उत्पादन की आवश्यकता बढ़ती गई। इस समस्या को हल करने के लिए एक्सरे के क्षेत्र में कार्य करनेवाले अनेक वैज्ञानिकों ने भिन्न-भिन्न प्रकार की नलिकाएँ तथा उपकरणों की उपज्ञा की (संदर्भ ग्रंथ द्र.) । तीव्रता बढ़ाने के लिए इलेक्ट्रानों की संख्या में वृद्धि होना आवश्यक है। तंतु में विद्युद्धारा बढ़ाने से इलेक्ट्रानों की संख्या अवश्य बढ़ती हैं, किंतु तंतु का ताप अधिक बढ़ने से उसकी धातु का वाष्पन होता है और उसके क्षीण होकर टूटने की संभावना रहती है। साथ ही, इलेक्ट्रानों के संघातों से लक्ष्य में जो उष्मा उत्पन्न होती है वह बढ़ती जाती है, इससे लक्ष्य के गलने की संभावना बढ़ जाती है। इन दोनों कठिनाइयों को दूर करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रयत्न हुए और उनमें से कतिपय सफल भी रहे। आक्साइड विलेपित तंतुओं से निम्न ताप पर अधिक इलेक्ट्रान धारा प्राप्त हो सकती है; फिर, पर्याप्त लंबाई का तंतुसर्पिल लेकर इष्ट धारा प्राप्त हो सकती है। साधारणत: एक्सरे नलिकाओं में १० से १५० मिलिएंपिअर विद्युद्धारा का उपयोग होता है; वर्तमान काल में उचित तंतुओं से तथा उपसाधनों से १ अंपिअर अथवा उससे अधिक इलेक्ट्रान धारा सरलता से प्राप्त हो सकती है। इस तीव्र इलेक्ट्रान धारा से लक्ष्य में जो प्रचंड उष्मा उत्पन्न होती है उसको कम करने के लिए फ़िलिप्स, जनरल इलेक्ट्रिक, मैचलेट इत्यादि एक्सरे उपकरणों के निर्माताओं ने स्थिर लक्ष्य के स्थान पर घूर्णन करनेवाले मंडलक का आयोजन किया है। घूर्णन से इलेक्ट्रानों के संघात एक ही स्थान पर नहीं होते और जिस स्थान पर उष्मा उत्पन्न हुई है उसके पुन: संघातस्थान पर आने के पूर्व विकिरण द्वारा उष्मा का व्यय हो जाता है। घूर्णित लक्ष्य की एक्सरे नलिकाओं में से जो एक्सरे प्राप्त होता है उसकी तीव्रता स्थिर लक्ष्य (कूलिज नलिका) से उत्पन्न एक्सरे की तीव्रता की अपेक्षा अनेक गुनी अधिक होती है, अर्थात् फोटो खींचने में प्रकाशदर्शन (एक्सपोज़र) के समय में बहुत बचत होती है।

एक्सरे की तीव्रता तथा कठोरता बढ़ाने का दूसरा भी एक उपाय है। नलिका का विद्युद्विभव बढ़ाने से भी तीव्रता तथा कठोरता दोनों ही बढ़ती है। समीकरण (३) के अनुसार विभव बढ़ाने से न्यूनतम तरंगदैर्घ्य घटता जाता है और विभव पर्याप्त बढ़ाने से गामा किरणों के सदृश तरंगदैर्घ्य वाले एक्सरे का उत्पादन प्रयोगशालाओं में हो सकता है। विभव बढ़ाने से एक्सरे की तीव्रता भी बढ़ती हैं; तीव्रता विद्युद्धिभव के घन (तृतीय घात) की समानुपाती होती है। यद्यपि साधारण उच्च विभव के परिणामित्र उपलब्ध थे तथापि एक्सरे उत्पादन के लिए पर्याप्त उच्च विभव प्राप्त करने में अनेक कठिनाइयाँ थीं। जनरल इलेक्ट्रिक, मैचलेट इत्यादि निर्माताओं ने अनेक अनुसंधानों के पश्चात् एक करोड़ अनुसंधानों के पश्चात् एक करोड़ वोल्ट तक तक के विभाग द्वारा एक्सरे उत्पन्न करनेवाले उपकरणों का निर्माण किया है। इससे भी अधिक प्रगति इलिनॉय के प्राध्यापक कर्स्ट ने बीटाट्रीन का उपयोग करके की है। बीटाट्रोन से ४० करोड़ वोल्ट तक के विभव द्वारा एक्सरे का उत्पादन हो सकता है। प्रंचड विभव से उत्पन्न ये एक्सरे अत्यंत तीव्र तथा प्रवेशशील होते हैं। अत्यंत तीव्रतावाले एक्सरे उत्पन्न करने के लिए अन्य साधनों का भी उपयोग किया जाता है, जिनमें उल्लोल-जनित्र (सर्ज जेनरेटर) विशेष उल्लेखनीय है। प्रकाश से जैसे चलचित्र लिए जाते हैं वैसे ही एक्सरे से भी लिए जा सकते हैं और वैज्ञानिक दृष्टि से उपयुक्त होने के निमित इन चित्रों को अत्यंत अल्प समय में (१०-६ सेंकड में) लेने की आवश्यकता होती हैं। उल्लोल-जनित्र के विसर्जन से अत्यंत उच्च उत्सर्जन धाराओं के नियंत्रित विस्फोट उत्पन्न किए जाते हैं। यहाँ इलेक्ट्रानों का उत्पादन उष्ण विद्युदग्र से नहीं होता, अपितु शीत विद्युदग्र से तीव्र विद्युत् क्षेत्र के कारण इलेक्ट्रानों का उत्सर्जन होता है।

एक्सरे के गुणऊर्जा या तो कणों के साथ अथवा तरंगों के साथ संयुक्त रहती है। किसी उद्गम से ऊर्जा का विसर्जन होता हो तो इस ऊर्जा का अस्तित्व साधारणत: विद्युच्चंबुकीय तरंगों की (ध्वनि के लिए वायु के तरंगों की) तीव्रता में, अथवा इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान, आयन इत्यादि कणों की गतिज ऊर्जा के रूप में, व्यक्त होता है। तरंग और कण के स्वरूप भिन्न होते हैं; इसलिए इनको साधारणत: भिन्न वर्गो में रखा जाता है। किंतु अनेक प्रयोगों के फलों से यह स्पष्ट हो गया है कि इन वर्गों का बंधन तरंगों में कणों के गुण हैं और, विलोमत: कणों में भी तरंगों के गुण हैं। इस द्वैत रूप का प्रारंभ प्लांक के उष्माविकिरण के सिद्धांत से प्रारंभ हुआ। एक्सरे के गुण भी इस द्वैत रूप के अपवाद नहीं हैं। एक्सरे के कतिपय गुण तरंगों के हैं तथा कतिपय गुण कणों के भी हैं। पहले हम तरंगीय गुणों पर विचार करेंगे।

प्रारंभिक प्रयोगों के फलों से यह स्पष्ट था कि एक्सरे और प्रकाश के गुणों में साम्य है। एक्सरे तथा प्रकाश की किरणों का दिक् (स्पेस) में सरल रेखाओं में प्रचारण होता है। प्रकाश के समान एक्सरे की तीव्रता भी दूरी के वर्ग की प्रतिलोमानुपाती होती है। फोटो पट्टिका पर होनेवाली क्रिया तथा गैस में किए गए आयनीकरण के गुणों में भी दोनों में साम्य है। १९०५ ई. में माक्स ने प्रयोग द्वारा यह प्रमाणित किया कि एक्सरे का वेग प्रकाश का वेग के समानअर्थात 3×10° सें.मी.प्रति सेंकडहै। वैद्युत तथा चुंबकीय क्षेत्रों में एक्सरे (प्रकाश के समान) अप्रभावित रहते हैं। इन सब गुणों से यह स्पष्ट था कि एक्सरे आवेशित कण नहीं, प्रकाश के समान विद्युच्चुंबकीय प्रकृति के हैं। भेद केवल तरंगदैर्घ्यो में हो सकता है। हागा, विंड्ट, वाल्टेर, पोल, सोमरफ़ेल्ड इत्यादि वैज्ञानिकों के प्रयोगों से यह अनुमान किया जा सकता था कि एक्सरे का तरंगदैर्घ्य १०-८ से.मी. के निकट है। किंतु प्रथम निर्णयात्मक फल लावे, फ्रीडरिश तथा क्निपिंग के प्रयोगों से प्राप्त हुआ और एक्सरे की तरंगदैर्घ्य प्रमाणित हुई। इस प्रयोग के पश्चात् एक्सरे की तरंगप्रकृति सुस्पष्ट करने के तथा उसके संबंध में अन्य परिणामों के प्रायोगिक फल प्राप्त करने के तथा उसके संबंध में अन्य परिमाणों के प्रायोगिक फल प्राप्त करने के अनेक प्रयत्न हुए। एक्सरे का तरंगदैर्घ्य प्रकाश के तरंगदैर्घ्य से बहुत कम (प्राय: एक सहस्रांश्) होने के कारण जिन प्रयोगों द्वारा प्रकाश का तरंगदैर्घ्य सरलता से मापा जा सकता है, वैसे प्रयोग एक्सरे के लिए करने में अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं। किंतु वर्तमान काल में प्रकाशको के प्रयोगों के समान एक्सरे का व्यतिकरण (इंटरफ़ियरेंस), विवर्तन (डफ्ऱैिक्शन), ध्रुवण (पोलैराइज़ेशन) इत्यादि गुण सुस्पष्ट करने के प्रयोग सफल हुए हैं और एक्सरे के तरंगदैर्घ्य उतनी ही यर्थाथता से ज्ञात हुए हैं जितनी से प्रकाशीय तरंगों के ज्ञात हुए थे। जिन प्रयोगों से एक्सरे की तरंगप्रकृति प्रमाणित होती है उनमें से कुछ नीचे दिए जा रहे हैं।

एक्सरे का व्यतिकरणप्रकाशकी में फ्ऱेनेल के व्यतिकरण के प्रयोग विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। फ्रेनेल के द्वित्रिपार्श्व (बाई.प्रिज्म़) तथा द्विदर्पण का उपयोग करके व्यतिकरण सरलता से प्राप्त किया जा सकता है और यदि प्रकाश एक वर्ण का हो तो धारियों का मापन करके प्रकाश का तरंगदैर्घ्य निकाला जा सकता है। १९३२ ई. में केलस्ट्राम ने द्विदर्पण की रीति का उपयोग किया और ऐल्यूमिनियम की केऐल्फ़ा रेखा (तरंगदैर्घ्य ८.३ आंगस्त्रम) से एक्सरे की व्यतिकरण धारियाँ प्राप्त कीं। प्रकाश के तंरगदैर्घ्य की तुलना में एक्सरे का तरंगदैर्घ्य सूक्ष्म होने के कारण केलस्ट्राम के दोनों दर्पणों के बीच का कोण भी अत्यंत सूक्ष्म था। प्रकाशकी में व्यतिकरण का दूसरा प्रचलित प्रयोग लोईड के दर्पण का है। इसमें एक ही दर्पण का उपयोग किया जाता है, और व्यतिकरण धारियाँ मिलती हैं। एक्सरे के संबंध में केलस्ट्राम का लोईड दर्पणप्रयोग भी सफल रहा। इन दोनों प्रयोगों में धारियों के अत्यंत सूक्ष्म रहने के कारण मापन के पूर्व फोटो के आवर्धन की आवश्यकता प्रतीत हुई। तरंगदैर्घ्य के मापन के अतिरिक्त एक्सरे के लोईड दर्पणप्रयोग में यह भी प्रमाणित हुआ कि परावर्तन के समय एक्सरे में १८०º का कलापरिवर्तन होता है। विद्युच्चुंबकीय सिद्धांत के अनुसार यह अपेक्षित था।

एक्सरे का ध्रुवणध्रुवण अनुप्रस्थ तरंगों का विशेष गुण है। तरंग दो प्रकार की होती हैं: (१) अनुदैर्घ्य, और (२) अनुप्रस्थ। इनमें केवल अनुप्रस्थ तरंगों का ध्रुवण हो सकता है। एक्सरे के ध्रुवण की परीक्षा पहले पहल बार्क्ला ने १९०६ में की। बार्क्ला ने कार्बन के एक टुकड़े से एक्सरे का प्रकीर्णन किया। उसने प्रकीरित एक्सरे का पुन: दूसरे कार्बन के टुकड़े से प्रकीर्णन किया। दूसरी बार प्रकीरित एक्सरे की तीव्रता को दो परस्पर लंब दिशाओं में मापित करने से यह निष्कर्ष निकला कि इस रीति से ७०% ध्रुवण होता है। बार्क्ला के प्रयोग के समान पुन: १९२४ में कॉम्पटन एवं हागेनाऊ ने प्रयोग किए किंतु अब सूक्ष्म विकीरक का उपयोग किया गया। इस प्रयोग में गुणज प्रकीर्णन का अभाव था, अत: लगभग शत-प्रति-शत ध्रुवण प्राप्त हुआ। ध्रुवण की यह मात्रा जे. जे. टॉमसन के सिद्धांत के अनुसार अपेक्षित थी। प्रयोग के इस फल से एक्सरे की केवल तरंगप्रकृति ही नहीं अपितु प्रकीर्णन का विद्युच्चुंबकीय सिद्धांत भी प्रमाणित होता है।

एक्सरे का वर्तनएक माध्यम में से दूसरे माध्यम में जाते समय जैसे प्रकाश का उसी प्रकार इस क्रिया में एक्सरे का भी वर्तन होता है, किंतु उनके तरंगदैर्घ्य अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण वर्तन भी अत्यंत सूक्ष्म होता है। समीकरण तरंगदैर्घ्य × आवृत्ति = वेग के अनुसार, एक्सरे की आवृत्ति विशाल होने के कारण, एक्सरे का वर्तनांक १ से कम होता है। लारसन, ज़ीगब्ह्रा और वालेर ने १९२४ में एक्सरे के वर्तन का यथार्थ मापन किया। चित्र ४ में एक दीर्घ छिद्र (झिरी) में से पार होने के पश्चात् एक्सरे त्रिपार्श्व में अत्यंत सूक्ष्म कोण पर प्रवेश करते हैं। निर्गत किरण के तीन विभाग होते हैं : (१) दिष्ट किरण, (२) परावर्तित किरण, और (३) वर्तित किरण। एक्सरे का वर्तनांक १ से कम होता है; अत: वर्तित किरण की मुड़ने की दिशा प्रकाशकिरण की मुड़ने की दिशा के विपरीत होती है। एक्सरे का वर्तनांक सामान्यत: १ -ड (१-n) इस रूप से व्यक्त किया जाता है, और ड (n) का मान १०-५ से १०-६ तक होता है।

एक्सरे का वर्तनांक ज्ञात करने के अनेक रीतियाँ हैं जिनमें से निम्नलिखित रीति विशेष प्रसिद्ध है। इसमें पूर्ण-परावर्तन-कोण का मापन किया जाता है। इस कार्य के लिए आपतित एकवर्णीय एक्सरे प्रमार्जित (पालिश किए) तल से लगभग समानांतर ली जाती हैं और परावर्तित किरणों की तीव्रता मापित की जाती है। इसके बाद प्रमार्जित तल को क्रमश: घुमाकर प्रत्येक कोण के लिए परावर्तित किरणों की तीव्रता का मापन करने से क्रांतिक कोण (अर्थात् पूर्ण परावर्तन का कोण) ज्ञात हो जाता है। यदि वह कोण (r) हो तो (n) = १/२थ (½r) अर्थात् एक्सरे का वर्तनांक =१-(l-n)=1–½ (१–½r)। इस प्रकार पूर्ण परावर्तन का कोण ज्ञात करके भिन्न-भिन्न पदार्थो के लिए एक्सरे का वर्तनांक निकाला जा सकता है। यद्यपि इस क्रांतिक कोण का मान बहुत कम होता है तथापि इस गुण पर आधारित एक्सरे-सूक्ष्मदर्शी बनाने के कर्क पैट्रिक के प्रयत्न अंशत: सफल हुए हैं।

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चित्र ४. एक्सरे का परावर्तन और वर्तन

फोटो पट्टिका के ऊपर तीन प्रतिबिंब प्राप्त होते हैं : (१) दिष्ट किरण, (२) वर्तित किरण और (३) परावर्तित किरण।

एक्सरे का विवर्तनतरंगों के प्रचारण में यदि कोई अवरोध हो तो तरंगों का पथ ऋजु नहीं रहता प्रत्युत जिस स्थान पर अवरोध रहता है वहाँ से पथ की दिशा में परिवर्तन हो जाता है। एक्सरे के तरंगदैर्घ्य अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण उनके पथ की दिशा में जो परिवर्तन होता है (जिसको विवर्तन कहते हैं) वह अत्यंत सूक्ष्म होता है। प्रकाशकी में ऋजु-धार, दीर्घ छिद्र तथा तार से प्रकाशकिरणों का जो व्याभंग होता है वह विशेष रूप से प्रसिद्ध है। १९२९ में लारसन ने ऐल्यूमिनियम की के-ऐल्फ़ा रेखा (तरंगदैर्घ्य ८.३ आंगस्त्रम) से ०.००५५ मिलीमीटर चौड़ाई के दीर्घ छिद्र का उपयोग करके निर्वात में विवर्तन प्राप्त किया। १९३२ में केलस्ट्राम ने टंग्स्टन का ०.००३८ मिलीमीटर व्यास का तार लेकर उसी तरंगदैर्घ्य (८.३ आंगस्त्रम) के एक्सरे से निर्वात में विवर्तन प्राप्त किया। ये दोनों विवर्तन प्रकाशकी के विवर्तन के सदृश थे। यद्यपि इन प्रयोगों से एक्सरे की तरंगप्रकृति स्पष्ट होती है तथापि तरंगदैर्घ्यो के मापन के लिए इनका विशेष उपयोग नहीं हो सकता। तरंगदैर्घ्य के मापन के लिए विवर्तन झर्झरी (डफ्रैिक्शन ग्रेटिंग) का उपयोग किया जाता है। प्रकाशकी में जिस प्रकार व्याभंग-झर्झरी का उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार उपयोग करके ए.एच.कॉम्पटन, बिर्डन, थीबो, ओस्गुड, बेकलीन इत्यादि वैज्ञानिकों ने एक्सरे के तरंगदैर्घ्यो का मापन किया। इस रीति का उपयोग विशेषत: मृदु एक्सरे के तरंगदैर्घ्यो के मापन के लिए होता है। मृदु एक्सरे के तरंगदैर्घ्य प्रकाशकी के पराबैंगनी किरणों के तरंगदैर्घ्यो के निकट होते हैं; अत: एक्सरे और प्रकाश में तरंगदैर्घ्यो की भिन्नता के अतिरिक्त सैद्धांतिक दृष्टि से कोई अंतर नहीं हैं। मृदु एक्सरे के प्रयोगों के लिए निर्वात की आवश्यकता होती है, क्योंकि हवा में इनका शीघ्रता से अवशोषण होता है।

उपर्युक्त एक्सरे-विवर्तन के प्रयोगों के समान हैं, किंतु एक्सरे के विवर्तन का विशेष महत्वपूर्ण आविष्कार इन प्रयोगों के पूर्व १९१२ में लावे, फ़ीडरिश और क्लिपिंग ने किया था। इनके आविष्कार को विशेष महत्वपूर्ण मानने के दो कारण हैं। एक्सरे की तरंगप्रकृति पूर्णतया सिद्ध करने के अतिरिक्त इस आविष्कार से (१) मणिभों की अंतस्थ संरचना ज्ञात करने की अत्यंत उपादेय रीति प्राप्त हुई तथा (२) एक्सरे का वर्णक्रम मापने का साधन उपलब्ध हुआ। लावे की रीति अत्यंत सरल है। इस रीति में एक्सरे नलिका से प्राप्त श्वेत किरणें (जिनमें सभी तरंगदैर्घ्यो के एक्सरे होते हैं) एक पतले मणिभ के टुकड़े में से जाती हैं ओर दूसरी ओर रखी हुई फोटो पट्टिका पर (मणिभतलों से व्याभंजित होने के पश्चात्) एक्सरे के बिंदुओं की सममित आकृतियाँ बनाती हैं। इस रीति से थोड़ी भिन्न रीति डब्ल्यू.एल.ब्रैग. और डब्ल्यू. एच. ब्रैग की है। इनकी रीति में एक विशेष दीर्घ छिद्र द्वारा समांतर एक्सरे प्राप्त किए जाते हैं और मणिभ के तलपर उनका आपतन होता है। मणिभ को घुमाने पर विशेष आपतन कोण पर परावर्तित किरणों की तीव्रता में विशेष वृद्धि होती है। यदि तीव्रतापरिचायक के स्थान पर फोटो पट्टिका रखी जाए तो प्रकाशकी के समान एक्सरे का भी वर्णक्रम प्राप्त होता है।

एक्सरे का वर्णक्रम और परमाणुओं की संरचनाएक्सरे नलिका से प्राप्त हुई किरणों की वर्णक्रमीय तीव्रता सामान्यत: चित्र २ के वक्र के समान होती है, किंतु विभव को एक क्रांतिक मान से अधिक बढ़ाने पर विशेष तरंगदैर्घ्य की किरणों की तीव्रता शीघ्रता से बढ़ने लगती है। इस क्रांतिक विभव का तथा विशेष तरंगदैर्घ्य का मान लक्ष्य की धातु पर (तत्व पर) निर्भर रहता है। इन विशेष किरणों को लाक्षणिक एक्सरे कहा जाता है, क्योंकि इनके तरंगदैर्घ्य से उद्गम (लक्ष्य) का लक्षण निश्चित होता है। यद्यपि इनका अस्तित्व बार्क्ला ने १९०८ में स्थापित किया था, तथापि इसका सुव्यवस्थित अध्ययन मोस्ले ने १९१३-१४ में किया। मोस्ले ने पोटैशियम फ़ेरोसाइनाइड के मणिभ का उपयोग ब्रैग की विधि के अनुसार किया और लक्ष्य के स्थान पर ऐल्यूमिनियम से लेकर सुवर्ण तक क्रमश: ३८ तत्व रखे। प्रत्येक तत्व से जो लाक्षणिक एक्सरे उत्सर्जित होते थे उनका वर्णक्रम फोटो पट्टिका पर अभिलिखित किया जाता था। मोस्ले के प्रयोगों से विभिन्न तत्वों के एक्सरे वर्णक्रमों के विषय में जो ज्ञान प्राप्त हुआ उससे अत्यंत महत्व के निष्कर्ष निकले। मोस्ले के कार्य से तथा उसके पश्चात् एक्सरे के वर्णक्रम में जो अन्य आविष्कार हुए उनके फलों से परमाणुओं की संरचना के संबंध में निश्चित ज्ञान उपलब्ध हुआ और बोर सिद्धांत की पुष्टि हुई।

एक्सरे का वर्णक्रम प्रकाशकीय वर्णक्रम से अधिक सरल एवं कम रेखाओं का होता है। वर्तमान काल में समस्त ज्ञात तत्वों के एक्सरे वर्णक्रमों का मापन हुआ है। प्रत्येक तत्व के एक्सरे वर्णक्रम में रेखासमुदाय होते हैं और साधारणतया प्रत्येक समुदाय में निश्चित रेखाएँ होती हैं। प्रत्येक एक्सरे वर्णक्रम में भिन्न-भिन्न रेखाओं के तरंगदैर्घ्य भिन्न-भिन्न होते हैं। जिस प्रकार प्रकाशीय वर्णक्रम प्रत्येक तत्व के लिए (अथवा सपट्ट वर्णक्रम प्रत्येक अणु के लिए) लाक्षणिक होता है वैसे ही एक्सरे वर्णक्रम तत्व के लिए लाक्षणिक होता है, अत: किसी अज्ञात लक्ष्य के घटक उससे प्राप्त हुए एक्सरे के वर्णक्रम का विश्लेषण करके सरलता से ज्ञात हो सकते हैं।

एक्सरे वर्णक्रम में प्रत्येक रेखासमुदाय तथा प्रत्येक रेखाप्रणाली के लिए अंतरराष्ट्रीय संज्ञा दी गई है। निम्नतम तरंगदैर्घ्य के समुदाय को के (k) प्रणाली कहा जाता है और इससे अधिक तरंगदैर्घ्य के समुदायों को क्रमश: एल, एम, एन, आे इत्यादि (L, M, N, O,...) संज्ञाएँ दी गई हैं। प्रत्येक तत्व में ये सब समुदाय नहीं होते। जैसे जैसे तत्व का परमाणु क्रमांक बढ़ता जाता है वैसे वैसे क्रमानुसार ये समुदाय प्राप्त होते हैं। प्रत्येक तत्व के परमाणु में एक नाभिक होता है और उसके बाहर जो इलेक्ट्रान होते हैं वे निश्चित संख्या में पृथक् कवचों में रहते हैं (द्रं. परमाणु)। एक्सरे वर्णक्रम के समुदायों के अध्ययन से इन इलेक्ट्रानीय कवचों की ऊर्जा ज्ञात की जा सकती है। इस ऊर्जा को निश्चित करने के तीन प्रमुख साधन हैं। (१) एक्सरे वर्णक्रमीय रेखाओं की आवृत्तियाँ, (२) अवशोषण-एक्सरे-वर्णक्रम, तथा (३) एक्सरे का किसी पदार्थ पर आपतन होने के पश्चात् उत्सर्जित द्वितीयक इलेक्ट्रानों का चुंबकीय वर्णक्रम। एक्सरे वर्णक्रम के अध्ययन से नाभिक के बाह्य इलेक्ट्रानों के विषय में इस प्रकार से अधिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

मोस्ले के प्रयोगों से यह ज्ञात हुआ कि यदि के, एल इत्यादि (K, L...) समुदायों की कोई भी एक वर्णक्रमरेखा लेकर भिन्न-भिन्न तत्वों के एक्सरे वर्णक्रमों में उसी रेखा की संगत रेखाएँ ली जाएँ तो उसकी आवृत्तियों में एक सरल संबंध रहता है। इन रेखाओं की आवृत्तियाँ तथा तत्व के परमाणुक्रमांक में निम्नलिखित समीकरण के अनुसार पारस्परिक संबंध रहता है :

Ö(आवृत्ति) = () Ö, [Ö(आवृत्ति) =(j–b) Öa]

अर्थात् आवृत्ति =(क-ख)

आवृत्ति =a (j–b)2

जहाँ (a) उ एक स्थिरांक, (b) = दूसरा स्थिरांक, क्र (j) = परमाणु क्रमांक।

समीकरण (४) को मोस्ले का नियम कहते हैं। इस समीकरण में स्थिरांक (a) और (b) समस्त तत्वों की विशिष्ट वर्णक्रमरेखा के लिए समान होते हैं। समीकरण (४) के अनुसार आवृत्ति तथा परमाणु-क्रमांक का संबंध चित्र ५ में दिया गया है। इस प्रकार की सरल रेखाएँ प्रत्येक समुदाय की प्रत्येक वर्णक्रम रेखा के लिए होती है। मोस्ले का यह नियम एक्सरे-वर्णक्रम-सिद्धांत में मौलिक है और फिर इस नियम के यथार्थ आकलन के लिए जो प्रयत्न हुए उनसे पारमाण्वीय भौतिकी में परमाणुओं की संरचना के सिद्धांत स्थिर करने में भी विशेष लाभ हुआ। समीकरण (४) से यह स्पष्ट है कि आवर्तसारणी में किसी तत्व का स्थान परमाणुक्रमांक से ही निश्चित होगा, परमाणुभार से नहीं। यदि तत्वों का स्थान आवर्तसारणी में परमाणुभारों के अनुसार दिया जाए तो आरगन और पोटैसियम, कोबल्ट और निकल इत्यादि तत्वों के स्थान विपरीत पडते हैं; किंतु यदि मोस्ले के नियम के अनुसार एक्सरे वर्णक्रम से प्राप्त तत्व-परमाणुक्रमांक दिए जाएँ तो आवर्तसारणी में प्रत्येक तत्व को यथोचित स्थान मिलता है। इस नियम से और भी एक लाभ हुआ। मोस्ले का नियम जिस समय प्रकाशित हुआ, उस समय तक जो तत्व अज्ञात थे उनके अस्तित्व की भी भविष्यवाणी हुई और तदनंतर उनका आविष्कार हुआ; उदाहरणार्थ हैफ़नियम, रेनियम इत्यादि।

चित्र ५

बोर के परमाणु सिद्धांत के अनुसार एक्सरे वर्णक्रम के समस्त प्रायोगिक फलों की व्याख्या सरलता से की जा सकती है। प्रयोग द्वारा यह ज्ञात था कि निम्न परमाणुक्रमांक के तत्वों के लिए केवल के (K) प्रणाली का अस्तित्व होता है ्झ्रकिंतु इन तत्वों की के (K) प्रणलियों के तरंगदैर्घ्य अधिक होने से उनका समावेश एक्सरे विभाग में नहीं होता थाट और जैसे जैसे परमाणु क्रमांक बढ़ता जाता है वैसे वैसे क्रमश: एल, एम, एन, ओ, पी इत्यादि (L, M, N, O, P,...) प्रणालियाँ प्राप्त होती हैं। साथ ही यह भी ज्ञात था कि के (K) प्रणाली को उत्तेजित करने के लिए सबसे अधिक विभव को आश्यकता है, और एल, एम, एन इत्यादि (L, M, N,...) प्रणालियों के लिए क्रमश: उनसे कम विभव आवश्यक होता है। अत: यह स्पष्ट है कि परमाणु में प्रत्येक इलेक्ट्रान कवच के साथ विशिष्ट ऊर्जा होती है। फलत: के (K) कवच नाभिक के निकट होता है और उसके पश्चात् क्रमश: एल, एम, एन इत्यादि (L,M,N,...) कवच होते हैं, अत: इन प्रणालियों को उत्तेजित करने के लिए क्रमश: कम ऊर्जा की आवश्यकता होगी। प्रकाशीय वर्णक्रम के सिद्धांत में जैसे समान ऊर्जा के रेखाचित्र दिए जाते हैं, उसी प्रकार का (किंतु अधिक सरल किया हुआ) रेखाचित्र चित्र ६ में एक्सरे वर्णक्रम के लिए दिया जा रहा है।

के, एल इत्यादि (K, L,...) प्रणालियाँ कैसे उत्तेजित होती हैं और उनकी रेखाओं के तरंगदैर्घ्य (अथवा आवृत्तियाँ) क्या होंगे, यह चित्र ६ से स्पष्ट है। आकृति में के (K) प्रणाली में एल (L) कवच के तीनों उपविभागों से इलेक्ट्रानों का संक्रमण नहीं होता, केवल दो उपविभागों से होता है। संक्रमण के विशेष नियम हैं, जिनके अनुसार संक्रमण होकर ऊर्जा का एक क्वांटम मिलता है। इन नियमों के अनुसार प्रत्येक उपविभाग (अथवा ऊर्जास्तर) को जो विशेष क्वांटम अंक दिए गए हैं उनमें केवल नियत परिवर्तन संभाव्य है। अत: इलेक्ट्रान किसी ऊर्जास्तर से अन्य किसी भी स्तर पर स्वेच्छानुसार संक्रमण नहीं कर सकता, केवल अनुमोदित स्तरों पर ही उसका संक्रमण हो सकता है।

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चित्र ६. एक्सरे-ऊर्जा-तल रेखाचित्र

एक्सरे का प्रकीर्णन तथा प्रकाशवैद्युत प्रभाव–व्यतिकरण, ध्रुवण, वर्तन, व्याभंग इत्यादि गुणों से एक्सरे की तरंगप्रकृति प्रमाणित होती है, किंतु एक्सरे के अन्यान्य ऐसे गुण भी हैं जिनका स्पष्टीकरण तरंगप्रकृति के आधार पर नहीं हो सकता। इन गुणों में हम पहले प्रकीर्णन पर विचार करेंगे। एक्सरे का किसी पदार्थ पर आपतन होने पर प्रकीर्णन होता है और प्रकीर्ण एक्सरे में तीन प्रकार की किरणें होती हैं: (१) अपरिवर्तित एक्सरे, (२) प्रतिदीप्त एक्सरे और (३) परिवर्तित एक्सरे। इन तीनों प्रकार के प्रकीर्ण एक्सरे का उद्भव कैसे होता है, इसके आकलन के पूर्व इसका विचार करना आवश्यक होगा कि प्रकीर्ण एक्सरे का उद्गम कैसे होता है।

एकवर्ण (समान तरंगदैर्घ्य के) एक्सरे का जब किसी पदार्थ पर आपतन होता है, तब पदार्थ के परमाणुओं के इलेक्ट्रानों पर एक्सरे के विद्युच्चुंबकीय क्षेत्र की क्रिया होती है। इससे इलेक्ट्रानों में कंपन होने लगता है, अत: समस्त दिशाओं में एक्सरे का (अथवा विद्युच्चंबुकीय तरंगों का) प्रकीर्णन होता है। प्रतिष्ठित भौतिकी के अनुसार इस प्रकार के जो प्रकीर्ण एक्सरे होते हैं उनकी आवृत्ति प्रारंभिक एक्सरे की आवृत्ति के समान ही होती है। अत: प्रतिष्ठित भौतिकी के अनुसार प्रकीर्ण एक्सरे की आवृत्ति में (अथवा तरंगदैर्घ्य में) कोई भी परावर्तन नहीं होता। इस प्रकार के प्रकीर्ण एक्सरे को अपरिवर्तित प्रकीर्ण एक्से कहते हैं और इनका अस्तित्व सरलता से प्रमाणित किया जा सकता है। यदि आपाती एक्सरे की ऊर्जा के, एल इत्यादि (ख़्, ्ख्र,...) कवचों के इलेकट्रानों को विस्थापित करने के लिए पर्याप्त हो, तो कुछ किरणों की बद्ध इलेक्ट्रानों पर क्रिया होगी और वे विस्थापित होंगे। अत: इन रिक्त स्थानों की बद्ध इलेक्ट्रानों पर क्रिया होगी और वे विस्थापित होंगे। अत: इन रिक्त स्थानों पर परमाणुओं के अन्य इलेक्ट्रानों का आक्रमण (चित्र ६ के अनुसार) होगा और एक्सरे वर्णक्रम प्राप्त होगा। इस प्रकार के प्रकीर्ण एक्सरे पदार्थ के लाक्षणिक एक्सरे होंगे और इनका विश्लेषण करने से प्रकीर्णन करनेवाले पदार्थ के घटकों का ज्ञान हो सकता है। आजकल यह रीति अधिकतर औद्योगिक क्षेत्रों में प्रयुक्त होती है। इस रीति की विशेषता यह है कि गाइगर-मुलर गणंक की सहायता से विश्लेषण अल्प काल में होता है (रासायनिक मात्रात्मक विश्लेषण के लिए बहुत अधिक समय लगता है) और पदार्थ किसी प्रकार से नष्ट नहीं होता।

सैद्धांतिक दृष्टि से प्रकीर्ण एक्सरे का तीसरा प्रकार, परिवर्तित एक्सरे, विशेष महत्वपूर्ण है। के, एल इत्यादि (K, L,...) आंतरिक कवचों के इलेक्ट्रानों का नाभिक से दृढ़ बंधन रहता है, किंतु बाह्य कवचों के इलेक्ट्रानों का बंधन शिथिल रहता है। ठोस पदार्थो में, विशेषत: धातुओं में, बाह्य कवच के इलेक्ट्रानों का बंधन इतना शिथिल होता है कि कतिपय इलेक्ट्रान प्राय: स्वतंत्र रहते हैंअर्थात् ये इलेक्ट्रान धातु के भीतर तो रहते हैं किंतु किसी एक ही परमाणु से उनका सतत बंधन नहीं रहता। ऐसे इलेक्ट्रानों को स्वतंत्र इलेक्ट्रान कहा जाता है। ऐसे इलेक्ट्रान से एक्सरे का संघात होने पर थोड़ी ऊर्जा इलेक्ट्रान को भी मिलेगी और ऊर्जाअविनाशिता सिद्धांत के अनुसार प्रकीरित किरण की ऊर्जा प्रारंभिक ऊर्जा से उतनी ही मात्रा में कम होगी, अर्थात् प्रकीरित किरण की आवृत्ति कम होगी (क्योंकि क्वांटम सिद्धांत के अनुसार एक्सरे-किरण-ऊर्जाउप्लांक का स्थिरांकुंआवृत्ति)। प्रकीरित एक्सरे में आपाती एक्सरे के तरंगदैर्घ्य से कम तरंगदैर्घ्य के एक्सरे का अस्तित्व पहले ए. एच. कॉम्पटन ने स्थापित किया। इस प्रकार की घटना से समस्त संगत परिणामों का (जैसे परिवर्तित एक्सरे का तरंगदैर्घ्य, प्रकीर्णन गुणंक, प्रकीरित एक्सरे की तीव्रता का दिक् (स्पेस) में विभाजन, प्रतिक्षेपित इलेक्ट्रान की ऊर्जा तथा दिशा इत्यादि का) प्रायोगिक अध्ययन कॉम्पटन ने किया। सी.टी.आर. विल्सन ने भी अन्य रीति से प्रतिक्षेपित इलेक्ट्रानों का अध्ययन किया। इन सब प्रायोगिक फलों का समर्थन प्रतिष्ठित विद्युच्चुंबकीय सिद्धांत द्वारा नहीं होता था। गणना करके कॉम्पटन ने यह प्रमाणित किया कि आपाती एक्सरे को (विद्युच्चुंबकीय) तरंगमलिका न समझकर यदि हम उन्हें एक्सरे फोटान (कण) समूह समझे, तो इलेक्ट्रानों से संघात संबंधी ऊर्जा तथा आवेग के अविनाशिता-सिद्धांत से प्राप्त फल प्रायोगिक फलों के अनुकूल होते हैं। अत: कॉम्टन प्रकीर्णन में एक्सरे के तरंग समझना अनुचित है और इस प्रकार के संघात में एक्सरे के फोटान का अस्तित्व मानना पड़ता है। फोटान की ऊर्जाप्लांक का स्थिरांकउआवृत्ति। कॉम्पटन-प्रभाव विशेष महत्व का है, क्योंकि इससे प्रमाणित होता है कि प्रकीर्णन में एक्सरे का व्यवहार तरंगों जैसा नहीं, कणों के समान है।

प्रकीर्णन के साथ साथ प्रकाशवैद्युत प्रभाव में भी एक्सरे का व्यवहार तरंगों के सदृश नहीं अपितु कणों केफोटनों केसदृश होता है। जब किसी पदार्थ पर एक्सरे का आपतन होता है तब उस पदार्थ के परमाणुओं के इलेक्ट्रानों से उसका संघात होता है। इन संघातों में एक्सरे की ऊर्जा इन इलेक्ट्रानों को मिलती है और ये इलेक्ट्रान परमाणुओं से दूर प्रक्षिप्त हो जाते हैं। ऊर्जा पर्याप्त होने के कारण ये इलेक्ट्रान पदार्थ के बाहर निकलते हैं और चुंबकीय क्षेत्र से इनको केंद्रित किया जा सकता है। चुंबकीय क्षेत्र यदि एक समान तथा पर्याप्त तीव्रता का हो तो निश्चित वेग के इलेक्ट्रानों का निश्चित स्थान पर ही पतन होता है। इस प्रकार प्राप्त हुए प्रकाश-इलेक्ट्रानों के (फोटो-इलेक्ट्रानों के) वर्णक्रमों का अध्ययन करके अनेक महत्वपूर्ण अनुमान किए गए हैं। यदि एक्सरे समान तरंगदैर्घ्य के (अथवा एक वर्ण के) हों, तो प्रकाश-इलेक्ट्रानों के वर्णक्रम में सुस्पष्ट रेखाएँ आती हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि इलेक्ट्रानों को मुक्त करने के लिए निश्चित ऊर्जा ली गई है। यदि पदार्थ में इलेक्ट्रानों मुक्त हों तो एक्सरे की संपूर्ण ऊर्जा उनको मिलेगी (यहाँ धातु से बाहर निकलने के लिए इलेक्ट्रान को जितनी ऊर्जा की आवश्यकता होती है वह एक्सरे की ऊर्जा की तुलना में उपेक्षणीय होती है, किंतु प्रकाशकी में प्रकाशकिरण की ऊर्जा की तुलना में वह उपेक्षणीय नहीं होती) और इस चुंबकीय वर्णक्रम में महतम की ऊर्जा के इलेक्ट्रान रहेंगे। इन महत्तम ऊर्जा के इलेक्ट्रानों के साथ साथ, जिनमें निश्चित ऊर्जा की हानि हुई है, ऐसे इलेक्ट्रानों के अस्तित्व का स्पष्टीकरण केवल इसी अनुमान से हो सकता है कि ये इलेक्ट्रान विशिष्ट ऊर्जा द्वारा परमाणु के नाभिक से बद्ध थे। अत: उनको मुक्त करने के लिए एक्सरे के फोटनों की ऊर्जा से उतनी ही ऊर्जा का व्यय हुआ और शेष ऊर्जा इलेक्ट्रानों को मिली। अर्थात् इस प्रयोग से के एल इत्यादि कवचों की ऊर्जा की सरलता से गणना की जा सकती है। साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि एक्सरे और बद्ध इलेक्ट्रानों के संघात कणों के संघातों के समान होते हैं, अर्थात् इन संघातों में एक्सरे की तरंगप्रकृति नहीं दिखाई देती है। प्रायोगिक अध्ययनों से एक्सरे की ऊर्जा तथा उनसे प्राप्त फोटो इलेक्ट्रानों की ऊर्जा में निम्नलिखित संबंध प्राप्त हुआ है :

फोटो इलेक्ट्रान की ऊर्जा उ फोटान की ऊर्जा = (Ep) (५) यहाँ फोटान की ऊर्जा उ प्लांक का स्थिरांक ुं आवृत्ति, तथा ऊ(Ep) = के, एल इत्यादि कवचों की बंधन ऊर्जा।

अनेक प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित हुआ है कि कॉम्पटन प्रभाव में तथा प्रकाशवैद्युत प्रभाव में एक्सरे का व्यवहार कणों के समान होता है, अत: एक्सरे को हम कण समझें अथवा तरंग, यह प्रयोगविशेष की प्रकृति पर निर्भर होगा। एक्सरे की इस द्वैध प्रकृति के समान इलेक्ट्रानों की भी द्वैध प्रकृति है। कतिपय प्रयोगों में इलेक्ट्रानों का व्यवहार कणों के समान होता है, तो अन्य प्रयोगों में (उदाहरणार्थ इलेक्ट्रान-व्याभंग में) तरंगों के समान।

एक्सरे और मणिभएक्सरे से मणिभ संरचना जानने में विशेष सहायता मिलती है (द्र. एक्सरे और मणिभ संरचना)।

एक्सरे के अन्य उपयोगएक्सरे के विशिष्ट गुणों के कारण उनका उपयोग विस्तृत रूप से विज्ञान की अनेक शाखाओं तथा विभिन्न उद्योगों में होता आ रहा है। उद्योगों में, विशेषत: निर्माण तथा निर्मित पदार्थो के गुणों के नियंत्रण में, एक्सरे का बहुत उपयोग होता है। निर्मित पदार्थो की अंतस्य त्रुटियाँ एक्सरे फोटोग्राफों द्वारा सरलता से ज्ञात की जा सकती हैं। विमान तथा उसी प्रकार के साधनों के यंत्रों में अति तीव्र वेग तथा चरम भौतिक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता हैं; ऐसे यंत्रों के निर्माण में प्रत्येक अवयव अंतर्बाह्य निर्दोष तथा यथार्थ होना चाहिए। ऐसे प्रत्येक अवयव की परीक्षा एक्सरे से की जाती है और सदोष अवयवों का त्याग किया जाता है। धातु एक्सरे का अवशोषण करते हैं, अत: धातुओं के अंतर्भागों की परीक्षा के लिए मृदु एक्सरे अनुपयुक्त होते हैं। विशाल आकार के धात्वीय पदार्थो के लिए अत्युच्च विभव के एक्सरे की आवश्यकता होती है।

शरीरचिकित्सा के संबंध में द्र. एक्सरे, रेडियम तथा विकिरण चिकित्सा।

धातु विज्ञान तथा धातुगवेषणा में एक्सरे अत्यंत उपयोगी हैं। धातु भी मणिभीय होते हैं, किंतु इनके मणिभ सूक्ष्म होते हैं और वे यथेच्छ प्रकार से स्थापित रहते हैं, अत: धातुओं की लावे-प्रतिमा में सामान्यत: संकेंद्र वर्तुल रहते हैं। प्रत्येक वर्तुल एक समान तीव्रता का होता है, किंतु किसी भौतिक क्रिया से कणों के आकारों में वृद्धि हो जाने पर इन वर्तुलों में बिंदु भी आते हैं। अत: एक्सरे व्याभंग द्वारा इसका ठीक ठीक पता चल जाता है कि धात्वीय मणिभों के कण किस प्रकार के हैं और उनका आकार आदि कैसा है। इस ज्ञान का धातुविज्ञान में अत्यंत महत्व है। धातु के पदार्थ बनाने के समय उष्मा के कारण उनमें अंतर्विकृति आ जाती है। धातु को मोड़ने से भी उसमें अंतर्विकृति हो जाती है। ऐसी विकृतियों का विश्लेषण एक्सरे से हो सकता है। इस प्रकार विशिष्ट गुणों से युक्त निर्दोष धातु प्राप्त करने में एक्सरे का विशेष उपयोग होता है।

एक्सरे के अन्य उपयोगों में एक्सरे सूक्ष्मदर्शी उल्लेखनीय है। एक्सरे के तरंगदैर्घ्य प्रकाश के तरंगदैर्घ्यो से सूक्ष्म होते हैं, अत: एक्सरे सूक्ष्मदर्शी को प्रकाश सूक्ष्मदर्शी से अधिक प्रभावशाली होना चाहिए। १९४८ में एक्सरे को केंद्रित करने के कर्कपैट्रिक के प्रयत्न अंशत: सफल हुए। इस रीति से तथा अन्य रीतियों से प्रतिबिंब का आवर्धन करने के प्रयत्न अब प्रायोगिक अवस्था पार कर चुके हैं और अनेक निर्माताओं द्वारा निर्मित कई प्रकार के एक्सरे सूक्ष्मदर्शी सुलभ हैं।

प्रकाश सूक्ष्मदर्शी से जिन बातों का पता नहीं चल पाता उनका ज्ञान सरलतापूर्वक एक्सरे सूक्ष्मदर्शी से हो जाता है।

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