एक्सरे, रेडियम तथा समस्थानिक विकिरण चिकित्सा एक्सरे का आविष्कार १८९५ ई. में विलियम कोनार्ड रंटजन ने किया तथा १८९६ में बेकरेल ने पेरिस की वैज्ञानिक अकादमी में यूरेनियम मिश्रणों पर अपने अनुसंधानों का यह महत्वपूर्ण फल घोषित किया कि इन वस्तुओं से ऐसी रश्मियाँ निकलती हैं जिनमें विशेष गुण रहते हैं। इन्हीं अनुसंधानों के संबंध में अधिक छानबीन करते हुए मैडम क्यूरी तथा उनके पति श्री पियरी क्यूरी ने जुलाई, १८९८ में पोलोनियम के आविष्कार की घोषणा की। दिसंबर, १८९८ में क्यूरी दंपति ने रेडियम का आविष्कार घोषित किया। विकिरणकारी समस्थानिक पदार्थो का ज्ञान इनके बहुत समय बाद हुआ। इन सभी साधनों द्वारा विशेष रश्मियाँ प्राप्त होती हैं, जिनमें ठोस पदार्थो को पार करने तथा शरीर के कोशों का विभाजन रोकने की क्षमता होती है।
(फिलिप्स का टाइप डी वाला मेटलिक्स टयूब)
रश्मियों के इन गुणों का प्रयोग एक्सरे चित्रण तथा विकिरण चिकित्सा मे होता है। एक्सरे फोटोग्राफों से रोगनिदान में बड़ी सहायता मिलती है। एक्सरे के आविष्कार के बहुत थोड़े समय बाद से ही उसका उपयोग प्रचलित हो गया था। यदि काले कागज में लपेटे, या दफ्ती के बक्स के भीतर रखे, फोटो के प्लेट के ऊपर हाथ रख दिया जाए और ऊपर से हाथ पर एक्सरे उचित समय तक पड़ने दिया जाए तो इस प्लेट वा फिल्म को डेवेलप करने पर हाथ की हड्डियों का फोटो मिल जाएगा (चित्र द्र.)। प्रकाशदर्शन (एक्सपोज़र) घटाने के लिए कुछ ऐसे परदों के बीच फिल्म रख दिए जाते हैं जिनसे फिल्म पर एक्सरे का प्रभाव बढ़ जाता है। इन परदों पर कैल्सियम टंग्स्टेट लेपित रहता है जो एक्सरे पड़ने पर साधारण प्रकाश देने लगता है (द्र. प्रतिदीप्ति)।
एक्सरे नली के (द्र.पार्श्व का चित्र) मध्य में क्रोमियम इस्पात का बना एक बेलन, १, होता है, जिसमें कांच के दो पृथक्कारी (इनसुलेटिंग) बेलन, ४ और ५, जुड़े रहते हैं। ये कांच के बेलन धातुकक्ष के भीतर विद्युदग्रों, २ और ३ को सँभाले रहते हैं। धातु कक्ष में एक छोटी खिड़की कटी होती है, जिससे किरणें बाहर निकल सकें। इस प्रकार विकिरण मध्यवाले बेलन के भीतर सीमाबद्ध रहता है और केवल पूर्वोक्त निकासवाले छिद्र से बाहर निकल सकता है। सीसे से बने बाह्य वरण, ७, से संरक्षण की मात्रा अधिक बढ़ जाती है। ऋणाग्र के भीतरवाला धातु का पर्दा तथा धनाग्र विकिरण को नली के दीर्घ अक्ष की दिशा में जाने से रोकते हैं। निकेल की कलईवाले बेलन कार्य छिद्र की टोपी (ढकना), ८, तथा बैकेलाइट के बेलन, ९, को वहन करना है। वायु द्वारा शीतल किए जानेवाले धनाग्र के सिरे पर ऐल्यूमिनियम का बना तापविकिरक, १०, रहता है। ताप का अधिकतम संचालन हो इसलिए धनाग्र को ताँबे का बनाते हैं और इसपर उचित नाप का टंग्स्टन निर्मित लक्ष्य (टार्गेट), ६, रहता है। ऋणाग्र की टोपी में तंतु, ११, से संबंध स्थापित करनेवाला प्लग रहता है।
एक्सरे तथा रेडियम के आविष्कार के बाद कुछ समय तक इनसे निकली रश्मियों के विनाशकारी प्रभावों का पर्याप्त ज्ञान नहीं था। इसलिए कुछ कार्यकर्ताओं के शरीर पर इन रश्मियों की हानिकर क्रियाएँ इतनी हुई कि उनको विशेष रोग हुए और कष्टमय मृत्यु हुई। धीरे धीरे हानि बचाने की आवश्यकता तथा साधनों का उचित ज्ञान हुआ।
विकिरणों की मात्रा और उपयोग की सुगमता तथा सुविधा की दृष्टि से विकिरण उत्पन्न करने तथा उनका उपयोग करने की पृथक् पृथक् रीतियों का विकास हुआ है। एक्सरे यंत्र द्वारा उत्पन्न एक्सरे, रेडियम से उत्पन्न विकिरण तथा रेडियो कोबल्ट, रेडियो आयोडीन, रेडियो फास्फोरस इत्यादि समस्थानिकों से उत्पन्न विकिरण, इन सभी का उपयोग होता है। इन सब विकिरणों के गुण प्राय: समान होते हैं।
एक्सरे यंत्र में जितने ही अधिक वोल्टों से रश्मियाँ उत्पन्न होंगी, एक्सरे उतने ही अधिक छोटे तरंगदैर्घ्य का होगा और द्रव्यों में अधिक गहराई तक प्रवेश करने की शक्ति भी उसमें उतनी ही अधिक होगी। इस गुण के कारण ऐसी रश्मियों को साधारणत: कठोर रश्मियाँ या गहन-प्रवेश-रश्मियाँ कहते हैं। इसके विपरीत कम वोल्ट द्वारा उत्पन्न रश्मियों में बहुत कम प्रवेश करने की शक्ति होती है जिससे वे पृष्ठ के पास या थोड़ी गहराई तक ही प्रवेश कर पाती हैं। इन्हें कोमल रश्मियाँ या पृष्ठतलीय रश्मियाँ कहते हैं। इस प्रकार एक्सरे का तरंगदैर्घ्य अर्थात् द्रव्य के भीतर प्रविष्ट होने की क्षमता (कठोरता) यंत्र में प्रयुक्त वोल्टों की उच्चता पर निर्भर है। किसी विशेष प्रवेशशक्ति की रश्मियों की मात्रा यंत्र में प्रयुक्त ऐंपियरों पर निर्भर रहती हैं। परंतु यंत्र के निर्माण के अनुसार ऐंपियरों की मात्रा एक नियत सीमा तक की बढ़ाई जा सकती हैं।
एक्सरे यंत्र से एक ही तरंगदैर्घ्य की एकवर्ग तथा समांग रश्मियाँ नहीं निकलतीं, वरन् सबसे ऊँचे वोल्ट द्वारा उत्पन्न तरंगदैर्घ्य की कठोर रश्मियों के साथ उनकी अपेक्षा कोमल रश्मियाँ भी निकलती हैं, जिससे कठोर तथा कोमल रश्मियों का असमांग मिश्रण प्राप्त होता है। एक्सरे नलिका में एक खिड़की रहती हैं जिसमें से किरणें बाहर निकलती हैं। इसी खिड़की के मुँह पर अनावश्यक कोमल रश्मियों को रोकने के लिए आवश्यक मोटाई का तथा वांछित (ताँबा या ऐल्युमिनियम) धातु का छनना लगा दिया जाता है, जिससे कोमल रश्मियाँ इस छनने को पार नहीं कर पातीं। अत: छनकर बाहर आनेवाली किरणों में बहुत कुछ एकरूपता आ जाती है और अवांछित कोमल किरणें रुक जाती हैं।
खिड़की का आकार तथा नाप भी इच्छानुसार बदली जा सकती है। इस प्रकार खिड़की से निकलनेवाले रश्मिसमूह के आकार तथा विस्तार पर रोग के विस्तार के अनुसार अपेक्षित नियंत्रण रखा जाता है। शरीर से ट्यूब की दूरी भी घटाई बढ़ाई जा सकती है। रोगग्रस्त भाग को छोड़कर आसपास के शेष भागों को सीसे की पतली चादर के टुकड़ों से ढक दिया जाता है जिससे इन भागों तक किरणें न पहुँचें। किरणों को रोगग्रस्त भाग पर निर्धारित समय तक प्रविष्ट करने के लिए यंत्र में समयमापक घड़ी लगी रहती हैं जो निर्धारित समय पूरा हो जाने पर यंत्र की विद्युच्छक्ति काट देती है। इस प्रकार विकीरित रश्मि का प्रभाव वोल्ट, ऐंपियर, समय, दूरी, तथा छनना द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
प्राय: ६० से लेकर १२० किलोवोल्ट तक के यंत्र का उपयोग कोमल किरणें उत्पन्न करने के निमित्त होता है। उनका प्रयोग चर्मरोगों पर किया जाता है। २००-४०० या इससे ऊँचे किलोवोल्ट वाले कठोर किरणोत्पादक यंत्रों का प्रयोग शरीर के भीतर गहराई में स्थित रोगों के लिए होता है। यंत्र में प्रयुक्त विद्युद्धारा ४ से लेकर १,००० मिली-ऐंपियर तक की हो सकती है (१ मिली-ऐंपियर उ ०.००२ ऐंपियर)। रश्मिक्रिया के समय अंगविशेष के हिलने की आशंका रहने पर धारा अधिक रखकर प्रकाशदर्शन १/१०० सेकेंड या कुछ कम कर दिया जा सकता है।
प्राकृतिक रेडियमधर्मिता के उपयोग में चिकित्सा के लिए साधारणत: रेडियम धातु का प्रयोग होता है। रेडियम से ऐल्फ़ा, बीटा तथा गामा किरणें निकलती रहती हैं (द्र. रेडियम)। इन किरणों का प्रयोग रोगचिकित्सा में होता है और इनके प्रयोग की मुख्य रीतियाँ इस प्रकार हैं:
(१) रेडियम धातु के उपयुक्त लवण को प्लैटिनम, स्टील, मोनल मेटल या सोने की बनी खोखली छोटी नली या सूई में, जो छनने का भी काम देती है, बंद कर दिया जाता है। प्रयोग के लिए इन सूइयों को एक, दो या अधिक संख्या में उनकी आपस की दूरी तथा आकार, प्रत्येक सूई में रेडियम की मात्रा आदि को आवश्यकतानुसार चुनकर रोगग्रस्त भाग की सतह पर, मांस के भीतर या शरीर की गुहा में निर्धारित समय तक छोड़ दिया जाता है। विकीरित रश्मियाँ निरंतर टयूब से बाहर निकलती और रोगग्रस्त भागों पर अपनी क्रिया करती रहती हैं।
(२) अधिक मात्रा में रेडियम को डिबिया में बंद करने के बाद उससे निकलती किरणों का उसी प्रकार प्रयोग किया जाता है जैसे एक्सरे यंत्र से निकले एक्सरे का। इस प्रकार की चिकित्सा को रेडियम किरण या रेडियम बम चिकित्सा कहते हैं।
प्रत्येक सूई में रेडियम की मात्रा, सूई की लंबाई, सूई की धातु, सूइयों की संख्या, उनको वितरित करने की रीति तथा किस समय तक सूइयाँ रोगी के शरीर में रखी जाएँ, आदि बातों पर चिकित्सा की मात्रा निर्भर करती हैं। रेडियम को कभी अँगुलियों से नहीं पकड़ा जाता, क्योंकि विकिरण के हानिकर प्रभाव से कुछ समय में अँगुलियाँ गल जा सकती हैं।
इसी प्रकार विकिरणकारी समस्थानिकों को विविध विलयन या गोली के रूप में, इंजेक्शन द्वारा अथवा लेप द्वारा शरीर के रोगग्रस्त भाग में पहुँचाया जाता है जहाँ विकिरण अपनी क्रिया करता है। किरणों की क्रियाएँ बहुत जटिल होती हैं तथा प्रयोग की सफलता कई बातों पर निर्भर रहती हैं। विशेषज्ञ चिकित्सक, भौतिकी तथा गणित का विशेष ज्ञान और क्रियात्मक अनुभव इन सभी की आवश्यकता चिकित्सा की मात्रा निर्धारित करने में पड़ती है। समय समय पर यंत्र के अंशशोधन (कैलिब्रेशन) की भी आवश्यकता रहती है। ये सब सुविधाएँ केवल विशेष संस्थाओं या चिकित्सालयों में ही संभव हैं।
इन विकिरणों का प्रयोग बहुत से रोगों की चिकित्सा में हो रहा है, जिनमें त्वचारोग, कैंसर तथा कई प्रकार के अघातक रोग प्रमुख हैं।
त्वचारोगों में पामा (एकज़ेमा), खुजली, केशलुंचन (ऐपिलेशन), दाद, कीलाएड, शोणावाहिन्यर्बुद (हेमांजिओमा) तथा चर्मकर्कट मुख्य हैं।
प्राय: सभी कर्कट रोगों की चिकित्सा विकिरण तथा शल्य कर्म द्वारा की जाती है। इसी प्रकार की चिकित्सा लसीका-कर्णार्बुद (हौजकिन्स डिज़ीज़), अतिश्वेतरक्तता (ल्यूकीमिया), विल्म्ज़ का अर्बुद तथा अघातक अर्बुद, कंठमाला, अस्थि-संधि-कोप (आस्टियो आ्थ्रा इटिज़), कृत्रिम मासिक-धर्म-निग्रह (आर्टिफिशियल मेनोपॉज़) इत्यादि रोगों में होती है।
विकिरण अपनी क्रिया तभी कर पाता है जब किरणें रोगग्रस्त भाग पर उचित मात्रा में पहुँचती हैं। जब रोग त्वचा पर या शरीर के किसी ऊपरी भाग पर ही रहता है तब चिकित्सा अधिक सरलता से हो सकती है। परंतु जब रोगग्रस्त अवयव शरीर की गहराई में स्थित रहता है तब रश्मियों को वहाँ पहुचाने के दो ही मार्ग संभव होते हैं : या तो कठोर रश्मियों को शरीर के बाहर से इस दिशा में भेजा जाए कि भीतर के रोगग्रस्त भाग तक वे पहुँच जाएँ, अथवा रोगग्रस्त भाग पर शल्य क्रिया या किसी अन्य क्रिया द्वारा रेडियम की सूइयाँ उचित मात्रा में लगा दी जाएँ, अथवा उस भाग में किसी विकिरणकारी समस्थानिक को घोल के रूप में पहुँचा दिया जाए जहाँ वह निर्धारित समय तक अपनी किरणों द्वारा रोग पर क्रिया करता रहे।
त्वचा के रोगों में कोमल किरणोंवाले एक्सरे यंत्र का उपयोग किया जा सकता है। रेडियम नलिकाओं को उपयुक्त पट्टी, मोम के ढाँचे आदि में रखकर अंग पर बाँध दिया जाता है, या विकिरणकारी समस्थानिक द्रव्यों का मलहम लगया जा सकता है।
गहराई में स्थित अर्बुद (टयूमर) पर विकिरण क्रिया करने के लिए कठोर-रश्मि-यंत्र द्वारा एक या अनेक स्थानों से बारी बारी से किरणें ऐसी दिशाओं में भेजी जाती हैं कि वे अर्बुद को वेधित करें और उसी पर केंद्रित रहें, अथवा उचित मात्रा में रेडियम नलिकाएँ (टयूब) वहीं पर निर्धारित समय तक रख जाती हैं। गर्भाशय के कर्कट में गर्भाशय में रेडियम की सूइयाँ रखकर चिकित्सा की जाती हैं। बाहर से भी एक्सरे चिकित्सा करने के लिए सामने पेड़ से, तथा पीछे कमर के निचले भाग से, किरणों को ऐसी दिशा में भेजा जाता है कि वे गर्भाशय को वेधित करें। इसी प्रकार भोजन नलिका के कर्कट में चार छह स्थानों से किरणों को भीतर भेजा जाता है। इस रीति की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि एक्सरे की गहराई में स्थित रोगग्रस्त भाग पर बाहर से उचित मात्रा में पहँचाने के लिए किरणों को स्वस्थ शरीर के ऊपरी भागों से जाना पड़ता है और गहराई तक पहुँचते पहुँचते इनकी मात्रा भी क्षीण हो जाती है। इससे दो विघ्न पड़ते हैं। किरणों के मार्ग में आनेवाले सब स्वस्थ भागों पर किरणों की प्रतिक्रिया होती है, जो न केवल अनावश्यक वरन् हानिकर भी होती है। दूसरे, रोगग्रस्त भाग की अपेक्षा किरणें अधिक मात्रा में स्वस्थ भाग पर पड़ेंगी। इसलिए यदि रोगनाशक मात्रा रोगग्रस्त भाग पर पहुँचानी है तो सतह के, या मार्ग के, अंगों पर बहुत अधिक मात्रा में किरणें डालनी पड़ेंगी जो अवश्य हानिकर होंगी। यदि रोगग्रस्त भाग पर कम मात्रा में किरणें पहुचेंगी तो रोग का नाश नहीं होगा। इसीलिए ऐसी दशा में एक के बदले कई भागों द्वारा रोगग्रस्त भाग पर किरणें केंद्रित करके पहुँचाई जाती हैं, जिससे प्रत्येक भाग से पहुँचकर किरण की संयुक्त मात्रा रोग पर तो पूरी हो जाती है परंतु, बाहरी भागों के स्वस्थ स्थानों पर कुल मात्रा कम ही रहती है और इसलिए विशेष हानि नहीं कर पाती।
प्रत्येक दशा में स्वस्थ त्वचा या मार्ग के अंगों को कुछ सीमा तक विकिरण की क्रिया का फल भोगना ही पड़ता है; पर प्रयत्न किया जाता है कि यह न्यूनतम रहे। साथ ही जो प्रतिक्रिया अनिवार्यत: चिकित्सा के समय, या बाद में, होती है उसकी भी उचित चिकित्सा का ध्यान रखा जाता है जिससे रोगी को कम कष्ट पहुँचे।
शरीर के जीवित कोशों पर विकिरण के प्रभावों में मुख्य यह है कि कोशिकाभाजन बहुत कुछ रुक जाता है तथा कोशिकाओं के पित्रसूत्र खंडित हो जाते हैं, जिससे पुन: कोशिकाभाजन या उनकी संख्यावृद्धि रुक जाती है। यह क्रिया अभी तक भली-भाँति नहीं समझी जा सकती है, परंतु कोशिकाओं पर तथा पड़ोसी स्वस्थ भागों पर पड़नेवाले विकिरण प्रभाव के कारण ही यह संभव हो सकती है। विकिरणों की बहुत अधिक मात्रा से कोशिकाओं की मृत्यु हो जाती है।
शरीर के पृथक्-पृथक् अंगों पर इन किरणों का प्रभाव भिन्न-भिन्न पड़ता है। कुछ स्थानों की मांसपेशियों, तंतुओं इत्यादि पर उतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना अन्य भागों पर। अंडग्रंथि, डिंभाशय, या श्वेत रक्तकोशिकाओं आदि पर इनका विशेष प्रभाव पड़ता है। कर्कट में कोशिकाभाजन बहुत मात्रा में होता रहता है और प्रत्येक समय कर्कटपिंड में कोशिकाभाजन अवस्था की साधारण से बहुत अधिक कोशिकाएँ रहती हैं। इसलिए विकिरण की प्रतिक्रिया कर्कट रोग में विशेष उपयोगी होती है।
सं.ग्रं.–यू.वी.पोर्टमान (संपादक) : क्लिनिकल थेराप्यूटिक रेडिऑलोजी (१९५०); सी.एफ.बेहरेन्स : ऐटॉमिक मेडिसिन (१९४९)। (उ.शं.प्र.)