ऋषि योग तथा तपस्या के बल से जिन व्यक्तियों का अंतस्तल इतना परिपूत तथा विशद हो जाता है कि परम तत्व उनके हृदय में स्वयं आविर्भूत होता है अथवा जो अपने प्रातिभ (आर्ष) चक्षु द्वारा वैदिक सत्य की अपरोक्ष अनुभूति करने में समर्थ होते हैं उन्हें भारतीय ग्रंथों में 'ऋषि' की महनीय पदवी प्रदान की जाती है। 'ऋषेर्दशनात्', यास्क की इस निरुक्ति में अन्य स्थान पर (१।२०) स्वयं ही ऋषि शब्द की व्याख्या की है-साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूत्रु: अर्थात् विशिष्ट तपस्या के बल से ऋषियों ने धर्म को साक्षात् देखा था। दुर्गाचार्य का कथन है कि किसी मंत्रविशेष की सहायता से किए जाने पर किसी कर्म से किस प्रकार का फल परिणत होता है; ऋषि को इस तथ्य का पूर्ण ज्ञान होता है। तैत्तिरीय आरण्यक में 'ऋषि' शब्द की मार्मिक व्याख्या बतलाती है कि सृष्टि के आरंभ में अयोनिसंभव तपस्या करनेवाले व्यक्तियों के पास स्वयंभू ब्रह्म अर्थात् वेदब्रह्मा स्वयं प्राप्त हो गया (आनर्ष)। और वेद की इस स्वत:- प्राप्ति के कारण ही ऋषि का 'ऋषित्व' है (अजान् ह वै पृश्नींस्तप्यमानान् ब्रह्म स्वयम्भवभ्यानर्षात् ऋषयोऽभवन् तद् ऋषीणामृषित्वम्-तै.आ.)। इस व्याख्या में 'ऋषि' शब्द की व्युत्पत्ति तुदादिगणीय ऋष् गतौ धातु से मानी गई है।
एक संप्रदाय की दृष्टि से वेद अपौरुषेय है अर्थात् किसी भी पुरुष की वह रचना नहीं है, प्रत्युत वह परमब्रह्म का नि:श्वासमात्र है (यस्य नि:श्वसितंवेदा:)। यह अपौरुषेय वेद ऋषियों के माध्यम से ही विश्व में आविर्भूत हुआ और ऋषियों ने वेद के वर्णमय विग्रह को अपने दिव्य श्रोत से श्रवण किया और इसलिए वेद को 'श्रुति' कहते हैं। आद्य ऋषियों की वाणी के पीछे अर्थ दौड़ता फिरता है। वे अर्थ के पीछे नहीं दौड़ते (ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति)। निष्कर्ष यह है कि तपस्या से पूत अंतर्ज्योति के साक्षत्कर्ता और मंत्रद्रष्टा व्यक्तियों की ही महनीय संज्ञा 'ऋषि' है।
देव, ब्राह्मण तथा क्षत्रिय, जिन्हें ऋषित्व की प्राप्ति हो गई है, वे क्रमश: देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षि कहलाते हैं। ऋग्वेद में मंडलद्रष्टा गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज और वशिष्ठ को कश्यप के साथ महर्षि कहा गया है (गीता १०।१६)। सत्याषाढ तथा बौधायन गृह्यसूत्रों में उपकर्म के प्रसंग में कांडर्षि का भी उल्लेख मिलता है जो तैत्तिरीय संहिता के पाँचों कांडों के द्रष्टा हैं और जिनका नाम प्रजापति, सोम, अग्नि, विश्वेदेव तथा स्वयंभू है। यास्क ने उन व्यक्तियों को 'श्रुतर्षि' बतलाया है जो ऋषियों के उपदेश को श्रवण कर धर्म का साक्षात्कार करने में समर्थ होते हैं (१।२०)। वेदों के समय से मान्य ऋषियों की संख्या सात नियत की गई है। शतपथ में सप्तर्षियों के नाम हैं-गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वशिष्ठ, कश्पय और अत्रि। शांतिपर्व तथा मनुस्मृति में इन नामों में कहीं कुछ पार्थक्य भी है, परंतु ऋषियों की सात संख्या पर पूर्ववत् श्रद्धा है। आजकल की मान्यता के अनुसार मरीचि, अत्रि, अंगिरस्, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वशिष्ठ सप्तर्षियों में गिने जाते हैं। ऋषियों की संख्या सात ही क्यों नियत की गई, इसका यथार्थ उत्तर देना कठिन है। 'सात' ही संख्या के साथ पवित्रता का भाव संवलित है, फलत: ऋषियों की पवित्रता प्रदर्शित करने के लिए ही उनकी संख्या का यह नियमन किया गया है। (ब.उ.)