ऋभषदेव जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर। इनका उल्लेख 'आदिदेव' नाम से भी मिलता है। इक्ष्वाकुवंशीय राजा नाभि इनके पिता तथा मेरुदेवी इनकी माता थीं। भागवत (२.७.१०) में इनकी माता का नाम सुदेवी भी दिया गया है और इन्हें विष्णु के २२ अवतारों में अष्टम माना गया है। ऋषभदेव का विवाह यज नामक इंद्र की पुत्री जयंती से हुआ था जिससे इनके १०० पुत्र पैदा हुए। ज्येष्ठ पुत्र का नाम भरत था और कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मवर्त, मलयकेतु, भद्रसेन, इंद्रस्पृश, विदर्भ तथा कीकट नामक नौ पुत्र क्रमश: भरत के अनुगत थे। कवि, हरि अथवा हवि, अंतरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पालयन, आर्विर्होत्र, द्रुमिल, चमस एवं करभाजन नाम के नौ पुत्र ब्रह्मनिष्ठ तथा शेष ८१ पुत्र कर्ममार्गावलंबी ऋषि थे। ऋषभदेव ने अपने राज्य अजनाभवर्ष के नौ खंडों का आधिपत्य भरत से छोटे कुशावर्त, इलावर्त आदि नौ पुत्रों को सौंपा तथा शेष राज्य का स्वामित्व भरत को प्रदान किया। जैनमतानुसार इन्हीं चक्रवर्ती सम्राट् भरत के नाम पर भारतवर्ष का नामकरण हुआ है। वज्रसेन सूरिकृत 'भरतेश्वर बाहुबलि घोर रास' तथा शालिभद्र सूरिकृत 'भरतेश्वर बाहुबलि रास' (द्र.'रास और रासान्वयी काव्य', नागरीप्रचारिणी सभा, काशी द्वारा प्रकाशित) इत्यादि जैन काव्यों में ऋषभदेव के १०० पुत्रों में भरत से छोटे एक भाई का नाम बाहुबलि बताया गया है जिससे चक्रवर्तित्व के प्रश्न पर भरत का युद्ध भी वर्णित है।
ऋषभदेव के हस्तपादादि अवयवों पर बाल्यावस्था से ही वज्र, अंकुश, ध्वज आदि चिह्न दीखने लगे थे। इससे चिंतित हो इंद्र ने उनके राज्य में वर्षा करना बंद कर दिया। ऋषभदेव ने इंद्र के इस कपट को पहचान लिया और अपनी शक्ति से अजनाभवर्ष में वर्षा कर दी। पश्चात् ये गुरुगृह में रहने लगे। विद्याध्ययन पूर्ण करने के बाद इन्होंने शास्त्रोक्त विधि, आत्मविवेक तथा ब्राह्मणों की अनुज्ञा से राज्य किया। कालांतर में पुत्रों को राज्य सौंपकर इन्होंने सन्यास लिया और देहत्याग की इच्छा से मुँह में पत्थर पकड़कर कटक पर्वत के अरण्य में घूमने लगे जहाँ दावानल से इनका शरीर भस्म हो गया। (कै.चं.श.)