ऋग्वेद आर्य धर्म तथा दर्शन का मूल ग्रंथ ऋग्वेद विश्वसाहित्य का एक प्राचीनतम ग्रंथ है। छंदोबद्ध मंत्रों को ऋक् या ऋचा कहते हैं और उन्हीं का विशाल संग्रह होने से वह वेद ऋग्वेद (ऋचाओं का वेद) या ऋक्संहिता के अभिधान से प्रख्यात है। पाश्चात्य दृष्टि से भाषा तथा अर्थ के विचार से यह अन्य वेदों से प्राचीन माना जाता है। भारतीय दृष्टि से भी यह समस्त वेदों में पूज्यतम स्वीकार किया गया है।

ऋग्वेद के दो प्रकार के विभाजन उपलब्ध हैं-(१) अष्टक क्रम तथा (२) मंडल क्रम। पहले क्रम के अनुसार ऋग्वेद में आठ अष्टक हैं और प्रत्येक अष्टक में आठ अध्याय हैं। इस प्रकार यह वेद ६४ अध्यायों का ग्रंथ है जिसके प्रत्येक अध्याय में 'वर्ग' और वर्ग के भीतर ऋचाएँ संगृहीत हैं। दूसरा विभाग ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है। इस क्रम के अनुसार विभाग ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है। इस क्रम के अनुसार समग्र ऋग्वेद दस मंडलों में विभक्त है। प्रत्येक मंडल में अनेक अनुवाक हैं; अनुवाक के अवांतर विभाग सूक्त हैं और सूक्तों के अंतर्गत मंत्र या ऋचाएँ (ऋक्) हैं। सूक्तों की संख्या एक हजार सत्रह (१०१७) हैं जिनमें खिलरूप ११ बालखिल्य सूक्तों को मिला देने पर सूक्तसंख्या १०२८ हो जाती है। ऋचाओं की पूरी संख्या दस हजार पाँच सौ अस्सी (१०,५८० मंत्र) है।

पाश्चात्य विद्वानों का कथन है कि ऋग्वेद के मंडलों में प्राचीन तथा अर्वाचीन मंत्रों का संग्रह संकलित है। द्वितीय मंडल से लेकर सप्तम मंडल तक का भाग ऋग्वेद का प्राचीन अंश है। इनमें से प्रत्येक मंडल किसी विशिष्ट ऋषिवंश को अपना स्रष्टा मानता है और इसलिए ये 'वंशमंडल' कहे जाते हैं। द्वितीय मंडल के ऋषि हैं गृत्समद, तृतीय के विश्वामित्र, चतुर्थ के वामदेव, पंचम के अत्रि, षष्ठ के भरद्वाज और सप्तम के वसिष्ठ। अष्टम के ऋषि कण्व वंश तथा अंगिरा वंश के हैं। नवम मंडल में सोम विषयक समस्त ऋचाओं का संग्रह है जो इसी कारण 'पवमान मंडल' के नाम से प्रख्यात है (पवमान=सोम)। इस प्रकार द्वितीय से नवम मंडल तक के प्राचीन भाग में आदि तथा अंत में एक एक मंडल जोड़कर दस मंडल प्रस्तुत किए गए हैं। पाश्चात्य समीक्षक दशम मंडल की भाषा तथा भाव की दृष्टि से ऋग्वेद का अर्वाचीनतम अंश मानते हैं। ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ प्रख्यात थीं जिनमें शाकल शाखा की ही आजकल संहिता उपलब्ध है। वाष्कल, आश्वलायन, सांख्यायन तथा मांडूकायन शाखाओं के कतिपय ग्रंथ मिलते हैं, संहिता नहीं मिलती।

ऋग्वेद आर्य धर्म का प्राचीनतम मौलिक रूप प्रस्तुत करता है। नाना देवताओं के स्तोत्रों का इसे विशाल भांडार मानना सर्वथा उचित है। ऋग्वेद के मंत्रों में हम अग्नि, इंद्र, वरुण, सविता, सूर्य, पूषन, मित्र, रुद्र, नासत्यौ आदि प्रख्यात देवताओं का विशुद्ध परिचय उनकी विमल कीर्ति और विविध कार्यावली के साथ पाते हैं। हम जान सकते हैं कि आदिम मानव किस प्रक्रिया से प्राकृतिक दृश्यों को देवता के रूप में गढ़ने में व्यस्त रहा होगा और किस प्रकार वैदिक आर्यगण इस नानात्मक जगत् के भीतर एक तत्व को ढूँढ़ निकालने में समर्थ हुए। 'एक सद् विप्रा बहुधा वदंति' का घोष वैदिक धर्म का विजयघोष है। अनेक दार्शनिक सूक्तों की उपलब्धि ऋग्वेद में होती है जिनके अनुशीलन से हम आर्य धर्म के बहुदेवतावाद से लेकर एकदेवतावाद तथा अद्वैतवाद तक के रूप में विकासक्रम को भलीभाँति समझ सकते हैं। ऐसे सूक्तों में नासदीय सूक्त (१०।१२९), पुरुषसूक्त (१०।९०), हिरण्यगर्भसूक्त (१०।१२१) तथा वाक् सूक्त (१०।१४५) अपनी दार्शनिक गंभीरता, प्रातिभ अनुभूति और मौलिक कल्पना के कारण अत्यंत प्रसिद्ध हैं। लौकिक विषयों में 'द्यूतकरविषाद' विषयक सूक्त (१०।३४) जुआड़ी की मनोदशा का रोचक परिचायक है। 'पुरुष एवेदं सर्व यच्च भव्यम्' ऋग्वेदीय उदात्त दार्शनिकता का एक सरस प्रतिपादक वाक्य है।

सं.ग्रं.-विंटरनित्स : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, भाग१, कलकत्ता, १९३०; बलदेव उपाध्याय : वैदिक साहित्य और संस्कृति, काशी, १९५८। (ब.उ.)