उष्मायन प्राय: सभी लोग इस बात से परिचित हैं कि धातुओं में विद्युच्चालकता (इलेक्ट्रिकल कंडक्टिविटी) स्वतंत्र इलेक्ट्रानों की गति के कारण होती है। स्वतंत्र इलेक्ट्रानों से हमारा अभिप्राय उन इलेक्ट्रानों से है जिनका अन्य किसी अणु (ऐटम) अथवा परमाणु (मॉलिक्यूल) से संबंध नहीं होता। किंतु ये इलेक्ट्रान धातु के धरातल का व्यतिक्रमण नहीं कर सकते, क्योंकि धातु के धरातल पर गुरुत्वाकर्षण के समान बल होता है। धरातल को पार करने के लिए इलेक्ट्रान को उतना कार्य करना पड़ता है जितना उन्हें गुरुत्वाकर्षण के समान इस बल को पार करने में लगता है। इसका तात्पर्य यह है कि इन इलेक्ट्रानों की गतिज ऊर्जा (काइनेटिक इनर्जी) इतनी अधिक होनी चाहिए कि वे चालक के इस धरातल-बल को पार कर सकें। साधारण ताप पर इलेक्ट्रान की गतिज ऊर्जा इतनी अधिक नहीं होती कि वे बिना किसी बाह्य ऊर्जा की सहायता के धातु के धरातल के बाहर आ सकें। यह बाह्य ऊर्जा आपाती विकिरण (इनसिडेंट रेडिएशन) के रूप में मिल सकती है या अत्यंत वेगगामी कणों द्वारा प्राप्त हो सकती है जो इन धातुओं के धरातल पर प्रहार करें। परंतु यदि किसी प्रकार चालक का ताप बढ़ा दिया जाए, जिससे स्वतंत्र इलेक्ट्रानों को उतनी ऊर्जा मिल सके जितनी उनको धातु के धरातल से बाहर लाने के लिए आवश्यक है तो वह क्रिया हो जती है जिसे उष्मायनिक उत्सर्जन (थर्माइओनिक एमिशन) कहते हैं।
धरातल के क्षेत्रफल के प्रत्येक एकक से निकले हुए इलेक्ट्रानों की संख्या निम्नलिखित समीकरण से प्रदर्शित की जा सती है :
धा = अ ट२ इर्-व/ट
जिसमें धा (W) = इलेक्ट्रान धारा अंपीयर में;
ट (T) = उस पदार्थ का निरपेक्ष (ऐब्सोल्यूट) ताप जो इलेक्ट्रान उत्सर्जित करता है;
ब (w) = कार्यमात्रा जो एक इलेक्ट्रान के उस कार्य (वर्क) के बराबर होती है जो उसको धातु के धरातल से बाहर आने के लिए करना पड़ता है।
अ (a) नियतांक जो उत्सर्जक (एमिटर) के गुणों पर निर्भर रहता है;
ई (e) नेपरीय लघुणकों का आधार।
साधारण पदार्थों में १०००� क (K) के ताप के आसपास विशेष मात्रा में इलेक्ट्रानों का उत्सर्जन होता है। यह एक महत्वपूर्ण बात है जिसका ध्यान उन पदार्थों के चुनाव में रखना पड़ता है जो उत्सर्जक के रूप में प्रयुक्त होते हैं, क्योंकि इस ताप पर नष्ट होनेवाले पदार्थों का उपयोग नहीं किया जा सकता। दूसरी बात जो ध्यान में रखी जाती है वह उत्सर्जक का जीवन है। केवल वे ही पदार्थ उत्सर्जक के रूप में प्रयोग में लाए जा सकते हैं जिनका जीवन लगभग १,००० घंटों का हो। इन विचारों को ध्यान में रखते हुए यदि उन पदार्थों की खोज की जाए जो उत्सर्जक के रूप में प्रयोग में लाए जा सकते हैं तो बहुत ही कम संख्या में पदार्थ मिलेंगे। व्यापारिक रूप में इलेक्ट्रान नलियों (ट्यूब) में प्रयोग में लाए जानेवाले उत्सर्जक या तो आक्साइड लेपित उत्सर्जक होते हैं अथवा टंग्स्टन या थोरियम युक्त टंग्स्टन होते हैं।
अब हम उन बातों पर विचार करेंगे जिनपर उष्मायनिक उत्सर्जन निर्भर रहता है।
उष्मायनिक उत्सर्जन की ताप पर निर्भरता-एक निश्चित ताप पर उष्मायनिक धारा का पट्टिक वोल्टता (प्लेट वोल्टेज) के साथ का परिवर्तन चित्र १ में प्रदर्शित किया जा सकता है। इस चित्र से यह देखा जा सकता है कि उष्मायनिक धारा ओम के सिद्धांत के अनुसार नहीं बदलती। पहले तो यह पट्टिक वोल्टता के बढ़ने पर धीरे-धीरे बढ़ती है, फिर कुछ तेजी से और अंत में स्थिर हो जाती है। इसकी संतृप्त धारा (सैचुरेटेड करेंट) कहते हैं। इस प्रकार की वक्र रेखाएँ विभिन्न निश्चित तापों पर प्राप्त हो सकती हैं।
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चित्र १. पट्टिक धारा-पट्टिक वोल्टता की वक्र रेखा
ताप के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए पट्टिक वोल्टता को इतना बढ़ा दिया जाता है कि संतृप्त धारा बहने लगे। फिर उत्सर्जक का ताप परिवर्तित किया जाता है और संतृप्त धारा विभिन्न तापों पर लायी जाती है। जब संतृप्त धारा के इस मान को तापों के विभिन्न मानों के साथ रेखाचित्र के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है तो चित्र २ में दी हुई वक्र रेखा प्राप्त हाती है। निम्न तापों पर उष्मायनिक उत्सर्जन प्राय: नगण्य ही होता है। उष्मायनिक उत्सर्जन लगभग १०००� क के आसपास आरंभ होता है और फिर ताप बढ़ने के साथ शीघ्रता से बढ़ता है।
चित्र २. पट्टिक धारा-निरेक्षप ताप की वक्र रेखा
उत्सर्जकके क्षेत्रफल, स्वभाव और धरातल पर उत्सर्जन की निर्भरता-उसर्जक के क्षेत्रफल की वृद्धि के साथ उत्सर्जन की मात्रा भी बढ़ती जाती है। यदि क्षेत्रफल अधिक हो तो उष्मायनिक धारा भी अधिक होती है।
शुद्ध पदार्थों में उष्मायनिक उत्सर्जन केवल उच्च तापों पर ही होता है। ऐसा देखा गया है कि अशुद्धियों की उपस्थिति उत्सर्जन पर प्रभाव डालती है। क्षारीय धातु उत्सर्जक के रूप में अधिक क्रियाशील होती है।
सन् १९०८ में वेनल्ट ने एक महत्वपूर्ण खोज की। उसने यह देखा कि जब इलेक्ट्रान नली में प्रयुक्त उत्सर्जक को क्षारीय आक्साइड से लेपित किया जाता है तो उष्मायनिक उत्सर्जन बहुत अधिक बढ़ जाता है। निम्न तापों और निम्न वोल्टता पर इस प्रकार के उत्सर्जक बहुत ही उपयोगी होते हैं। आजकल अधिकतर इलेक्ट्रान नलियों ऋणाग्र किरण (कैथोड रे) नलियों तथा गैस नलियों में आक्साइड लेपित उत्सर्जक ही प्रयोग में लाए जाते हैं।
गैस का उष्मायनिक उत्सर्जन का प्रभाव-यदि गैस की थोड़ी सी मात्रा निर्वात नली में पहुँचा दी जाए तो उष्मायनिक उत्सर्जन काफी बढ़ जाता है। उदाहरण के लिए हाइड्रोजन की न्यूनतम मात्रा भी एक निर्वात नली में पहुँचने पर उष्मायनिक धारा को १०५ गुना बढ़ा सकती है। इसके दो कारण हैं। एक तो आयनीकरण (आयोनाइज़ेशन) है जो इलेक्ट्रानों को इतनी गतिज ऊर्जा प्राप्त् हो जाती है कि वे गैस के परमाणुओं को मुठभेड़ों द्वारा आयनों में परिवर्तित कर देते हैं। इस प्रकार इलेक्ट्रानों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। अधिशोषित अणु अथवा परमाणु विद्युत् की एक द्विगुण सतह धातु के धरातल पर बना लेते हैं, जो या तो उत्सर्जन में सहायक होती है या उसको कम कर देती है। सहायक होना अथवा न होना उन परमाणुओं के स्वभाव पर निर्भर रहता है।
उष्मायानिक धारा पर पट्टिक वोल्टता का प्रभाव-उष्मायनिक धारा तभी बह सकती है जब उत्सर्जक और उसको चारों ओर घेरे हुए बेलन की बीच धन विभव (पोटेंशियल) जारी रखा जाता है। इलेक्ट्रान ऋण आवेशित कण हैं। इस कारण वे बेलन की ओर खिंच जाते हैं जो धन विभव पर रहता है। इस कारण ऐसा लग सकता है कि थोड़े ही धन विभव पर काफी उष्मायनिक धारा बह सकती है। परंतु यह देखा गया है कि अधिक धारा प्रवाहित करने के लिए अधिक धन विभव की आवश्यकता होती है। इसका कारण यह है कि भ्रमण करते हुए इलेक्ट्रानों के कारण उत्सर्जक के पास अंतरण आवेश (स्पेस चार्ज) उत्पन्न हो जाता है। यह अंतरण आवेश उत्सर्जित इलेक्ट्रानों को पीछे फेंक देता है। इस अंतरण आवेश के प्रभाव को उचित उच्च विभव द्वारा हटाया जा सकता है।
शीत उत्सर्जन (कोल्ड एमिशन)-यदि धन विभव को पर्याप्त अधिक बढ़ा दिया जाए तो निम्न ताप पर भी उत्सर्जन हो सकता है। इस प्रकार के उत्सर्जन को शीत उत्सर्जन कहते हैं। इस ठंडे उत्सर्जन के लिए १०,००० वोल्ट प्रति सेंटीमीटर के अभिक्षेत्र (फील्ड) की आवश्यकता होती है।
जैसा पहले ही बताया जा चुका है, टंग्स्टन, थोरियम युक्त टंग्सटन तथा आक्साइड लेपित उत्सर्जक ही प्राय: इस कार्य में प्रयुक्त होते हैं। इन उत्सर्जकों के निम्नांकित गुण हैं :
टंग्स्टन-टंग्स्टन अत्यधिक उच्च ताप पर ही काम में लाया जा सकता है। इस कारण यह शुद्ध अवस्था में यदाकदा ही प्रयोग में लाया जाता है। उत्सर्जक के रूप में इसका उपयोग तभी किया जाता है तब उच्च ताप पर कोई अन्य उत्सर्जक कार्य में नहीं लाया जा सकता है। इसका प्रयोग अधिकतर उन नलियों में होता है जिनमें पट्टिक वोल्टता ३,५०० वोल्ट से अधिक होती है।
थोरियम युक्त टंग्स्टन-इस प्रकार के उत्सर्जक से, उसी ताप पर, शुद्ध टंग्स्टन की अपेक्षा कहीं अधिक उत्सर्जन होता है। इसका कारण यह है कि थोरियम की उपस्थिति के कारण सतह का व्यतिक्रमण करने के लिए इलेक्ट्रान को जो कार्य करना पड़ता है वह पर्याप्त कम हो जाता है। नली में कुछ गैस के रह जाने के कारण रासायनिक विषाक्तता (पॉयज़निंग) उत्पन्न हो जाती है। यदि धन आयन के टक्कर और रासायनिक विषाक्तता के प्रभावों को ध्यान में रखा जाए तो देखा जाता है कि थोरियम युक्त टंग्स्टन के उत्सर्जक आक्साइड लेपित उत्सर्जक की अपेक्षा अधिक टिकाऊ होते हैं।
आक्साइड लेपित उत्सर्जक-इस प्रकार के उत्सर्जक बेरियम और स्ट्रौंशियम के आक्साइड़ों के मिश्रण को उपयुक्त धातु के धरातल पर पोतकर बनाए जाते हैं। साधारणतया निकल धातु ही इस कार्य में लगाई जाती है। कभी-कभी निकल की कोई मिश्रधातु भी प्रयुक्त होती है। यदि इस प्रकार की सतह उचित रूप से बनाई और सक्रिय की जाए तो ११५०� क पर पर्याप्त मात्रा में इलेक्ट्रान उत्सर्जन होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उत्सर्जन धातु के स्वतंत्र कणों से होता है जो आक्साइड लेप की सतह पर रहते हैं।
आक्साइड लेपित उत्सर्जक निर्वात नलियों में अधिक प्रयुक्त होते हैं। इसका कारण यह है कि आक्साइड लेपित उत्सर्जक अन्य प्रकार के उत्सर्जकों की तुलना में प्रत्येक वाट उष्मा शक्ति के लिए अधिक उत्सर्जन देता है तथा अन्य उत्सर्जकों की तुलना में प्रति वर्ग सेंटीमीटर अधिक अंपीयर देता है। आक्साइउ लेपित उत्सर्जकों का एक विशेष लाभदायक गुण यह भी है कि इससे अत्यधिक इलेक्ट्रानों का उत्सर्जन एक ही समय में हो सकता है, चाहे यह समय कुछ माइक्रो सेकंड ही क्यों न हो (१ माइक्रो सेंकड एक सेकंड = का लाखवाँ भाग)।
प्रायोगिक उत्सर्जक की आकृति-प्रयोग में लाए जानेवाले उत्सर्जक प्राय: दो प्रकार के होते हैं। पहले प्रकार के उत्सर्जक तंतु (फ़िलामेंट) के रूप में बने रहते हैं, जिनमें विद्युद्धारा प्रवाहित करके अधिक ताप तक गरम किए जाते हैं। दूसरे प्रकार के उत्सर्जक वे होते हैं जो परोक्ष रूप से गरम किए जाते हैं। ये धातु की पतली चादर के बेलन के रूप में होते हैं। (बेलन प्राय: आक्साइड लेपित निकल का होता है।) यह बेलन बाह्य पृथक्कृत (एक्सटर्नैली इनसुलेटेड) टंग्स्टन धातु के तंतुओं से गरम किया जाता है, जिसे तापक (हीटर) कहते हैं।
गौण (सेकंडरी) उत्सर्जन-बहुत पहले से यह ज्ञात है कि यचदि किसी धातु को इलेक्ट्रान की धारा से प्रताड़ित किया जाए तो एक गौण प्रकाश उत्पन्न होता है। इसी को गौण उत्सर्जन कहते हैं। इसका उष्मायनिक नलियों में बहुत ही महत्व है क्योंकि यह अनिच्छिन्न प्रभाव के रूप में नली में प्रकट हो जाता है। प्राथमिक (प्राइमरी) इलेक्ट्रान से प्रताड़ित होने पर गौण इलेक्ट्रान की संख्या प्राथमिक इलेक्ट्रानों की गति पर और उस वस्तु के स्वभाव तथा दशा पर निर्भर रहती है जो प्रताड़ित की जाती है। यह विशेष प्रकार का प्रभाव चित्र ३ में प्रदर्शित किया गया है। यदि पूर्ववर्ती इलेक्ट्रानों की गति अत्यधिक न्यून हो तो गौण उत्सर्जन नहीं होता। गौण इलेक्ट्रान में प्राय: ९० प्रतिशत ऐसे होते हैं जिनका वेग प्राथमिक इलेक्ट्रानों से बहुत कम हेता है। तथापि कुछ गौण इलेक्ट्रान ऐसे भी उत्सर्जित हाते हैं जिनका वेग प्राथमिक इलेक्ट्रानों से अधिक होता है और कई प्रतिशत ऐसे होते हैं जिनका वेग प्राथमिक इलेक्ट्रानों के वेग के बराबर होता है।
चित्र ३. वोल्टता के परिवर्तन के साथ गौण रूप में उत्सर्जित
इलेक्ट्रानों की संख्या का परिवर्तन
पृथक्कारी (इनसुलेटर) से गौण उत्सर्जन-पृथक्कारी से होनेवाला गौण उत्सर्जन कभी-कभी धातुओं के उत्सर्जन से अधिक लाभदायक होता है। इसका एक उल्लेखनीय और सर्वविदित उदाहरण नली के काच की दीवारों का इलेक्ट्रान के प्रताड़न द्वारा विद्युद्युक्त होना है। दूसरा उदाहरण है ऋणाग्रकिरण नलियों के प्रतिभास पट्टों का विद्युन्मय होना।
वर्तमान काल में प्रयोग में लाई जानेवाली विभिन्न प्रकार की संग्रह नलियों (स्टोरेज ट्यूब्स) में पृथक्कारी से गौण उत्सर्जन का उपयोग किया जाता है। १०(ग.प्र.श्री.)