उषस्, उषा १. यह आर्यो की प्रधान देवी पूर्वाकाश की परम ज्योति है। ऋग्वेद में संख्या, मार्मिकता और मधुरता में जितने सूक्त इस देवी की स्तुति में कहे गए हैं उतने किसी की स्तुति में नहीं कहे गए। प्राय: बीस समूचे सूक्तों में उसकी स्तुति हुई है और ऋग्वेद की समूची संहिता में तीन सौ बार से भी अधिक उसका नामोल्लेख हुआ है। आर्य ऋषियों के प्रणय देती है। वह आकाश की कन्या है (दुहितर्दिव:), प्रकाश की रानी है, ज्योतिर्मयी देवी (विभावरी राया)। गृहपत्नी की भाँति वह प्रात: काल सारे जीवों को निद्रा और प्रमाद से मुक्त कर अपने नित्य पथों पर भेजती है। सहसा सुषुप्त जीवन हो उठता है और जाग्रत मानव क्रियावान् हो उठते हैं, पशु गातिमान् और पक्षी उषा के स्पर्श से आकाश में पंख मारने लगते हैं। उषा सारे प्राणियों की साँस और जीवन है। प्रात:काल वह यज्ञोन्मुख आर्यों की हविषा लेने के लिए देवताओं का आह्वान करती है क्योंकि उसके आने से ही प्रात:कालीन यज्ञ का समारंभ होता है।
आर्य ऋषियों ने उषा को अत्यंत आकर्षक पार्थिव तरुणी के रूप में भी अभिव्यक्त किया है। उनका कहना है कि पूर्वाकाश में वह नर्तकी की भाँति अपना वक्ष खोले, पेशवाज पहने नाचती आती है। ज्योतिर्मय वसनों से मंडित वह रजतपथ पर चढ़ी नित्यप्रति प्राची दिशा में प्रकट होती है। अपने उसी समान वर्ण से शोभायमान वह मर्त्यो के जीवन से नित्य एक दिन चुरा लेती है, काट लेती है, जैसे बधिक पक्षी को अंश-अंश कर काटता है (ऋ. १, ९२, १०-पुन: पुनर्जायमाना पुराणी समानं वर्णमभि शुम्भमाना। श्वघ्नीव कृत्नुर्विज आमिनाना मर्तस्य देवी जरयन्त्यायु :।।) (भ.श.उ.)