उपपुराण जो ग्रंथ पंचलक्षणात्मक महापुराणों से विषयों के विन्यास तथा देवीदेवताओं के वर्णन में न्यून हैं, परंतु उनसे बहुश: साम्य रखते हैं वे 'उपपुराण' नाम से अभिहित किए जाते हैं। इनको यथार्थ संख्या तथा नाम के विषय में बहुत मतभेद है। उपपुराणों की सूची कूर्मपुराण (१।१३।-२३), गरुड पुराण (१।२२३;१७-२०), देवीभागवत (१।३), पद्मपुराण (४।१३३), स्कंद (५।३।१; ७।१।१२) तथा सूतसंहिता (१।१३।१८) में दी गई है। इन सूचियों की तुलना करने पर अत्यंत अव्यवस्था दृष्टिगोचर होती है। बहुत से मान्य पुराण (जैसे कूर्म, स्कंद, ब्रह्म, ब्रह्मांड तथा श्रीमद्भागत) एवं रामायण भी उपपुराणों में गिने गए हैं। ऐसी स्थिति में उपपुराणों की निश्चित संख्या तथा अभिधान गंभीर गवेषण की अपेक्षा रखते हैं। पूर्वोक्त सूचियों को मिलाने से उपपुराणों की संख्या ३२ तक पहुँच जाती है, परंतु बहुमत उपपुराणों की संख्या को १८ तक सीमित रखने के पक्ष में है। लोकप्रिय उपपुराणों के नाम ये हैं-(१) आदित्य (या सौर), (२) उशनस् (या औशनसव), (३) कपिल, (४) कालिका, (५) कुमार, (६) गणेश, (७) गौतम, (८) दुर्वासा, (९) देवीभागवत, (१०) नंदी, (११) नृसिंह, (१२) महेश्वर, (१३) मारीच, (१४) शिवधर्म, (१५) सांब, (१६) सनत्कुमार, (१७) विष्णुधर्मोत्तर तथा (१८) कल्कि।
महापुराण तथा उपपुराण की विभेदक रेखा इनती क्षीण है कि कभी-कभी किसी पुराण के यथार्थ स्वरूप का निर्णय करना नितांत कठिन होता है। सांप्रदायिक आग्रह भी किसी निश्चय पर पहुँचने में प्रधान बाधक सिद्ध होते हैं। शक्ति के उपासक 'देवीभागवत' को और विष्णु के भक्त 'श्रीमद्भागवत' को महापुराण के अंतर्गत मानते हैं, परंतु मत्स्य आदि पुराणों में निर्दिष्ट विषयसूची का अनुशीलन श्रीमद्भागवत को ही महापुराण में अंतर्निविष्ट सिद्ध करता है। शिवपुराण तथा वायुपुराण के स्वरूप के विकास में भी इसी प्रकार मतभेद है। कतिपय आलोचक एक ही पुराण को प्रतिपाद्य विषय की अपेक्षा से शिवपुराण और वक्ता की अपेक्षा से 'वायुपुराण' मानते हैं, परंतु अन्यत्र वायुपुराण को महापुराणों के अंतर्गत मानकर 'शिवपुराण' को निश्चित रूप से उपपुराण माना गया है। शिवपुराण भी दो प्रकार का उपलब्ध है। एक लक्षश्लोकात्मक तथा द्वादश संहिताओं में विभक्त बतलाया जाता है। परंतु श्री वेंकटेश्वर प्रेस से प्रकाशित 'शिवपुराण' में केवल ७ संहिताएँ और २४ सहस्र श्लोक उपलब्ध होते हैं। गणपति की उपासना के प्रतिपादक 'गणेशपुराण' के अतिरिक्त 'मुद्गुलपुराण' को भी 'गणेशाथर्वशीर्ष' के भाष्यानुसार उपपुराण मानते हैं। सांबपुराण सूर्य की उपासना का प्रतिपादक है तथा कालिकापुराण भगवती काली के नाना अवतारों तथा पूजा अर्चना का विवरण प्रस्तुत करता है। 'विष्णुधर्मोत्तर' में पुराण के सामान्य विषयों के अतिरिक्त नृत्य, संगीत, स्थापत्य, चित्रकला, मूर्तिकला, मूर्तिविधान तथा मंदिर निर्माण का भी विवरण मिलता है जो कला की दृष्टि से नितांत रोचक, उपयोगी तथा उपादेय है।
सं.ग्र.-ज्वालाप्रसाद मिर : अष्टादश पुराणदर्पण (वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई); विंटरनित्स : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, भाग १, कलकत्ता १९२७; हज़ारा : दि उपपुराणाज़, प्रथम भाग, कलकत्ता। (ब.उ.)