उपनिषद् उपनिषद् भारतीय तत्वज्ञान तथा धर्म का वह मूल स्रोत है जहाँ से नाना ज्ञानधाराएँ प्रवाहित होती हैं। उपनिषद् वेद का अंतिम भाग है और साथ ही वेद के मौलिक रहस्यों का प्रतिपादक भी इसलिए वह 'वेदांत' के नाम से भी प्रख्यात है। वैदिक धर्म के मौलिक सिद्धांतें के प्रतिपादक तीन प्रमुख ग्रंथ माने जाते हैं जो 'प्रस्थानत्रयी' के नाम से सुविख्यात हैं। इसमें उपनिषद् ही मुख्य है, क्योंकि इसके अन्य दोनों ग्रंथ, ब्रह्मसूत्र तथा श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषदों के ऊपर आश्रित होने के कारण ही इतने मान्य समझे जाते हैं। उपनिषदों को प्रातिभ-चक्षु-संपन्न भारतीय मनीषियों की विमल प्रतिभा तथा अपरोक्ष दृष्टि से साक्षात्कृत आध्यात्मिक तथ्यों की विशाल राशि कहा जा सकता है।
१७वीं सदी में दाराशिकोह ने अनेक उपनिषदों का मूल संस्कृत से फारसी में अनुवाद कराया था तथा १९वीं सदी के मान्य जर्मन तत्ववेत्ता शोपेनहावर ने अपनी गुरुत्रयी में अफ़लातून तथा कांट के साथ ही उपनिषदों को स्थान दिया और अपने दार्शनिक तत्वों का प्रासाद इन्हीं के आधार पर खड़ा किया। आजकल समस्त सभ्य भाषाओं में उपनिषदों के अनुवाद, व्याख्यान तथा अनुशीलन सैंकड़ों की संख्या में उपलब्ध हैं।
नाम तथा संख्या-उपनिषद् शब्द 'उप' तथा 'नि' उपसर्गपूर्वक 'सद्' धातु से निष्पन्न होता है। सद् धातु के तीन अर्थ होते हैं : विवरण = नाश होना, गति = पाना या जानना तथा अवसादन = शिथिल होना। उपनिषेद् मुख्यत: 'ब्रह्मविद्या' का द्योतक है, क्योंकि इस विद्या के अभ्यास से मुमुक्षुजनों की संसार उत्पन्न करनेवाली अविद्या नष्ट हो जाती है (विवरण), वह ब्रह्म की प्राप्ति करा देती है (गति), जिससे मनुष्यों के गर्भवास आदि सांसारिक दु:ख सर्वथा शिथिल हो जाते हैं (अवसादन)। गौण रूप में उपनिषद् ब्रह्मविद्या के प्रतिपादक ग्रंथ का वाचक माना जाता है। फलत: उपनिषद् वे तत्वप्रतिपादक ग्रंथ हैं जिनके अभ्यास से मनुष्य को 'ब्रह्म' तथा परमात्मा का साक्षात् अनुभव प्राप्त होता है।
उपनिषदों की पूर्ण संख्या के निश्चय में मतभेद है। 'मुक्तिकोपनिषद्' (प्रथम अध्याय) में उपलब्ध उपनिषदों की संख्या १०८ बतलाई गई है जिनमें १० उपनिषद् ऋग्वेद से संबद्ध हैं, १९ शुक्लयजुर्वेद से, ३२ कृष्णयजुर्वेद से, १६ सामवेद से तथा ३१ अर्थर्ववेद से। नारायण, नृसिंह, रामतापनी तथा गोपाल-इन चार उपनिषदों की संख्या ११२ हैं। अडचार लाइब्रेरी (मद्रास) ने लगभग ६० नवीन उपनिषदों का एक संग्रह प्रकाशित किया है जिसमें छागलेय, वाष्कल, आर्षेय तथा शौनक नामक चार उपनिषदों का भी समावेश है जो दाराशिकोह के अध्यवसाय से फारसी में अनूदित हुए थे। विषय की गंभीरता तथा विवेचन की विशदता के कारण १३ उपनिषद् विशेष मान्य तथा प्राचीन माने जाते हैं। ईश, केन, कठ, प्रश्न, (५) मुंडक, मांडूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, (१०) बृहदारण्यक , इन दस के ऊपर आदि शंकराचार्य ने अपने भाष्य का निर्माण किया। इनके अतिरिक्त श्वेताश्वतर, कौषीतकि तथा मैत्रायणी उपनिषद् भी शंकर के द्वारा प्रमाण कोटि में रखे जाने तथा शारीरिक भाष्य में उद्धृत किए जाने के कारण प्रामाणिक माने जाते हैं। अन्य उपनिषद् तत्तद् देवता विषयक होने के हेतु तांत्रिक माने जा सकते हैं। ऐसे उपनिषदों में शैव, शाक्त, वैष्णव तथा योग विषयक उपनिषदों की प्रधान गणना है। रचना की दृष्टि से कुछ उपनिषद् गद्यात्मक हैं, कुछ पद्यात्मक और कतिपय गद्यपद्यात्मक।
रचनाकाल-उपनिषदों के कालक्रम, विकास तथा पारस्परिक संबंध को दिखलाने के लिए अनेक विद्वानों ने गहरी छानबीन की है जिनमें जर्मन विद्वान् डा. डॉसन तथा भारतीय विद्वान् डा. बेल्वेलकर और रानडे के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। डा. डॉसन ने उपनिषदों के विकासक्रम में चार स्तरों का पता लगाया है-१. गद्यात्मक उपनिषद् जिनका गद्य ब्राह्मणों के गद्य के समान सरल, लघुकाय तथा प्राचीन है-बृहदारण्यक, छांदोग्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, कौषीतकि तथा केन, २. पद्यात्मक उपनिषद् जिनका पद्य वैदिक मंत्रों के अनुरूप सरल, प्राचीन तथा सुबौध है-कठ, ईश, श्वेताश्वतर तथा महानारायण, ३. अवांतर गद्योपनिषद्-प्रश्न, मैत्री (=मैत्रायणी) तथा मांडूक्य, ४. आथर्वण उपनिषद्-ब्रह्मविद्या, योगतत्व, आत्मबोध आदि अनेक अवांतरकालीन उपनिषदों की गणना इस श्रेणी में है।
डा. बेल्वेलकर तथा रानडे ने उपनिषदों के विभाजन के लिए एक नई पद्धति निकाली है। भाषा तथा प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से उपनिषदों को तीन श्रेणी में विभक्त करना उपयुक्त प्रतीत होता है-१. प्राचीनतम श्रेणी जिसके भीतर छांदोग्य, बृहदारण्यक, ईश, तैत्तिरीय, ऐतरेय, प्रश्न, मुंडक एवं मांडूक्य रखे जा सकते हैं जो तत्तत् वेदों के आरण्यकों के अंश होने से नि:संदेह प्राचीन हैं, २. अवांतरकालीन- श्वेताश्वतर, कौषीतकि तथा मैत्री, और इन दोनों के बीच की श्रेणी में, ३. कठ उपनिषद् को रखना उचित है। उपनिषदों की भौगोलिक स्थिति मध्यदेश के कुरु पांचाल से लेकर विदेह (मिथिला) तक फैली हुई है। उपनिषत्काल का आरंभ बुद्ध से पर्याप्त पूर्व है।
तत्वज्ञान-उपनिषदों के ऋषियों ने जीव, जगत् तथा ईश्वर के विषय में बड़ी ही मौलिक स्थापनाएँ प्रस्तुत की हैं। ब्रह्म या परमात्मा का साक्षात्कार ही साधर के जीवन का मुख्य लक्ष्य है। अध्यात्मवेत्ता ऋषियों ने इस नानात्मक सतत परिवर्तनशील अनित्य जगत् के मूल में विद्यमान शाश्वत सत्तात्मक पदार्थ का अन्वेषण तात्विक दृष्टि से किया। यह मौलिक तत्व 'ब्रह्म' शब्द के क्षरा संकेतित किया जाता है। ब्रह्म के दो रूप हैं-१. सविशेष अथवा सगुण रूप तथा २. निर्वेशेष अथवा निर्गुण रूप जिनमें प्रथम रूप को 'अपर ब्रह्म' (या ईश्वर) तथा द्वितीय को 'परब्रह्म' नाम से अभिहित करते हैं। सगुण ब्रह्म के लिए पुलिंग विशेषणों का प्रयोग किया गया है जैसे सर्वकर्मा, सर्वकाम:, सर्वगंध:, सर्वरस: आद निर्गुण ब्रह्म के लिए नपुंसक लिंगी निषेधात्मक विशेषणों का प्रयोग किया गया है, जैसे बृहदारण्यक (३।८।८) में गार्गी को उपदेश देते समय वह अक्षर ब्रह्म अस्थलं, अनणुं, अ्ह्रस्वं, अदीर्घं, अस्नेहं, अच्छायं आदि विशेषणों के द्वारा विर्णत है। 'नेति नेति' का भी यही तात्पर्य है कि पह परब्रह्म निषेधमुखेन ही वर्णित किया जा सकता है। उपनिषद् के मत में इस विश्व में अद्वैत सत्ता का पूर्ण साम्राज्य है तथा उस तत्व का छोड़कर नानात्मक जगत् का नितांत अभाव है (नेह नानास्ति किञ्चान)। आत्मा तथा परब्रह्म में पूर्ण ऐक्य है और इस ऐक्य का प्रतिपादक महनीय मंत्र है-तत्त्मसि जिसे आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को नाना दृष्टांतों की सहायता से व्यावहारिक रूप में समझाया था (छांदोग्य)। केनोपनिषद् (१।५) ने निष्प्रपंच ब्रह्म का बड़ा ही सजीव वर्णन किया है : जिसे वाणी कह नहीं सकती, परंतु जिसकी शक्ति से वाणी बोलती है, उसे ही ब्रह्म जानो। यह नहीं, जिसकी तुम उपासना करते हो-
तद् वाचाऽनभ्युदितं येन वागल्युद्यते।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।
इस परब्रह्म की अपरोक्ष उपनिषदों का लक्ष्य है। ब्रह्म का ज्ञान योग के साधनों के द्वारा भली भाँति हो सकता है और तब साधक अनंत आनंद का अनुभव कर अपने जीवन को धन्य बताता है। यही 'रहस्यवाद' उपनिषदों का हृदय है और अन्य सिद्धांत साधन मात्र है।
सं.ग्रं.-डॉसन : फिलॉसफ़ी ऑव उपनिषद्स, अंग्रेजी अनुवाद, १९०६; गफ़ : फ़िलॉसफ़ी ऑव उपनिषद्स, लंदन, १८८२; बेल्वेलकर तथा रानडे : हिस्ट्री ऑव इंडियन फ़िलॉसफ़ी, भाग २, पूना; रानडे : कांस्ट्रक्टिव सर्वे ऑव उपनिषदिक फ़िलॉसफ़ी, पूना, १९२६; राधाकृष्णन : इंडियन फ़िलॉसफ़ी, भाग १, लंदन, १९३०; दासगुप्त : हिस्ट्री ऑव इंडियन फ़िलॉसफ़ी, खंड १, कैंब्रिज, १९२५। (ब.उ.)