उद्धव पौराणिक परंपरा के अनुसार द्वापरकालीन यदुवंशी उद्धव सत्यक के पुत्र और श्रीकृष्ण के अत्यंत प्रिय सखाओं में थे। बालक उद्धव श्रीकृष्ण की मूर्ति भी बनाकर उसके साथ खेलने में तन्मय हो जाते तथा कलेवा करना तक भूल जाया करते। ये परम सुंदर थे और आकृति एवं वेशभूषादि तक में श्रीकृष्ण से बहुत मिलते जुलते थे। ये प्राय: उनके साथ रहा करते, उनकी धारण को हुई माला पहन लेते तथा उनके छोड़े हुए वस्त्रादि तक ग्रहण कर लेते। इनका एक अन्य नाम देवश्रवा था और इन्होंने वृहस्पति से नीतिशास्त्र की शिक्षापाई थी। बड़े होने पर इन्हें बृष्णिवंशियों में माननीय परामर्शदाता का स्थान मिला था और ये श्रीकृष्ण के अंतरंग परिकरों में भी गिने जाते थे।

गोकुल से मथुरा चले जाने पर श्रीकृष्ण ने इन्हें नंद, यशोदा एवं ब्रजगोपियों का समधान करने के लिए भेजा था और ब्रज में आकर इन्होंने इसमें अपना महीनों का समय दिया था। गोपियों के साथ इनकी जो बातचीत हुई उसक प्रसंग लेकर एक विपुल भ्रमर-गीत-साहित्य की रचना हो गई है। जब श्रीकृष्ण द्वारका गए तो वहाँ पर भी उद्धव उनके साथ बराबर रहे और वहाँ पर जब श्रीकृष्ण ने इनसे यदुवंशियों के भावों नाश तथा स्वयं अपने अंत की ओर भी संकेत किया और प्रभास क्षेत्र के लिए चल पड़े तब ये बिरहकातर हो उठे और उनके पीछे हो लिए। श्रीकृष्ण ने सरस्वती के तट पर अश्वत्थ के नीचे बैठ इन्हें एकांत में बहुत समझाया और विषम स्थिति के कारण, अधीर न होने का उपदेश दिया। उन्होंने इनसे कहा कि तुम पूर्वजन्म में वसु थे और यज्ञ के समय मेरे लिए तुमने बड़ी आराधना की थी। तुम्हारा वह कार्य पूरा हो चुका और मैं तुम्हें आज विवेकपूर्ण 'भागवत ज्ञान' का मर्म बतला रहा हूँ। श्रीकृष्ण ने इन्हें फिर ब्रह्माविद्या की शिक्षा दी, अवधूतोपाख्यान जैसे कई अध्यात्म संबंधी इतिहास सुनाए, योगसाधना के रहस्य बतलाए और कहा कि अब जाकर बदरिकाश्रम में रहो। उद्धव वहाँ से चलर जब उदासमना हो युमना के तट पर घूम रहे थे तब इन्हें विदुर मिले। यहाँ पर इन दोनों में फिर एक बार श्रीकृष्णके संबंध में बातें चलीं और विदुर के चले जाने पर ये प्रेमविह्वल होकर रोने लगे। अंत में उद्धव बदरिकाश्रम चले गए और वहाँ पर तपोमय जीवन व्यतीत करते हुए उन्होंने वृद्धावस्था में शरीर छोड़ा। उद्धव सरलहृदय, किंतु महात्मा थे। स्वयं श्रीकृष्ण ने इनके विषय में एक बार कहा था-'मेरे इस लोक से चले जाने पर उद्धव ही मेरे ज्ञान की रक्षा कर सकेंगे क्योंकि वे मुझसे गुणों में तनिक भी कम नहीं हैं।' (भाग. ३।४।३०-१)।

सं.ग्रं. -'भाग.' (३।१-४), (१०।४६-७), (११।६-२९); महाभारत, आदिपर्व (२०।१-१८) और 'ब्रह्मवैवर्त' (अ. ९१ एवं ९२)। (प.च.)