उद्दालक उपनिषद् युग के श्रेष्ठ तत्ववेत्ताओं में मूर्धन्य चिंतक। ये गौतम गोत्रीय अरुणि ऋषि के पुत्र थे और इसीलिए 'आरुणि' के नाम से विशेष प्रख्यात हैं। ये महाभारत में धौम्य ऋषि के शिष्य तथा अपनी एकनिष्ठ गुरुसेवा के निमित्त आदर्श शिष्य बतलाए गए हैं। (महाभारत, आदिपर्व)। आरुणि के अध्यात्म विचारों का विस्तृत विवेचन छांदोग्य तथा बृहदारण्यक उपनिषदों में बड़े रोचक ढंग से किया गया है। तत्ववेत्ताओं के इतिहास में आरुणि का पद याज्ञवल्क्य के ही समकक्ष माना जाता है जो इनके शिष्य होने के अतिरिक्त उपनिषत्कालीन दार्शनिकों में नि:संशय सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। मनोवैज्ञानिक तथ्यों के विषय में आरुणि की मान्यता है कि निद्रा का मुख्य हेतु 'श्रम' है और निद्रा की दशा में जीव आत्मा के साथ ऐक्य धारण कर लेता है (छांदोग्य ६।८।१)। मृत्युकालीन चेतना के विषय में आरुणि का कथन है कि जब मनुष्य मरता है, तब उसकी वाक्मन में अंतर्लीन हो जाती है; अनंतर मन प्राण में, प्राण तेज में तथा अंत में तेज देवता में अंतर्लीन हो जाता है (छां. ६।१५)। इस सिद्धांत को याज्ञवल्क्य ने यहीं से ग्रहण कर विस्तार से प्रतिपादित किया है। तत्वज्ञान के विषय में आरुणि के सिद्धांत को हम 'प्रत्ययवादी' अद्धैत का नाम दे सकते हैं, क्योंकि इनकी दृष्टि में अद्वैत ही एकमात्र सत् तथा तथ्य है। आरुणि के सिद्धांत का शंखनाद है तत्वमसि वाक्य जिसे इन्होंने अपने पुत्र श्वेतकेतु को अनेक मनोरंजक दृष्टांत के द्वारा समझाया तथा प्रमाणित किया। 'इदं सर्व तत् सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो'-आरुणि के अद्वैतवाद का यह महनीय मंत्र है (छां. ६।११,१२)। मूल तत्व 'सत्' रूप है, असद्रूप नहीं, क्योंकि असत् से किसी भी प्रकार की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यह सत् अपने में से पहले अग्नि को, पीछे जल को तथा अंत में पृथ्वी को इसी क्रम से उत्पन्न करता है। सृष्टि का यह 'त्रिवृत्करण' तत्व आरुणि का स्वोपज्ञ सिद्धांत है। विश्व के प्रत्येक द्रव्य में ये तीनों तत्व विद्यमान रहते हैं। सब पदार्थ असत् हैं। पदार्थों अपेक्षा तत्वों (पृथ्वी, जल, तेज) की सत्यता सर्वथा मान्य है और इन तत्वों की अपेक्षा सत्यतर है वह सत् जो इनका मूल कारण है (छां. ६।३-४)। यह सत् विश्व के समस्त प्रपंचों में अनुस्यूत तथा आधारस्थानीय सूक्ष्म तत्व है (छां ६।१२)। इसका पूर्ण ज्ञान आचार्य के द्वारा दी गई शिक्षा के द्वारा और श्रद्धा के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। 'आचार्यवान् पुरुषो वेद' =गुरु के द्वारा उपदिष्ट पुरुष ही परम तत्व को जानता है; आरुणि का यह उपदेश गुरुतत्व की आधारशिला है। आत्मा विश्व के प्रत्येक पदार्थ में उसी प्रकार व्याप्त रहता है, जिस प्रकार उस जल के प्रत्येक कण में लवण व्याप्त रहता है जिसमें वह डाला जाता है (छां. ६।१३)। उद्दालक आरुणि का यह अध्यात्मदर्शन आत्मा की अद्वैतता तथा व्यापकता का पूर्ण परिचायक है।
सं.ग्रं.-आर.डी. रानाडे : कॉन्स्ट्रक्टिव सर्वे ऑव उपनिषदिक फ़िलॉसफी, पूना, १९२६; राधाकृष्णन : इंडियन फ़िलॉसफी, भाग १, लंदन। (ब.उ.)