उदयन २. न्याय-वैशेषिक दर्शन के मूर्धन्य आचार्य। ये मिथिला के निवासी थे, जहाँ 'करियौन' नामक ग्राम में, इनके वंशज आज भी निवास करते हैं। ये अक्षपाद गौतम से आरंभ होनेवाली प्राचीन न्याय की परंपरा के अंतिम प्रौढ़ न्याययिक माने जाते हैं। अपने प्रकांड, पांडित्य, अलौकिक शेमुषी तथा प्रोढ़ तार्किकता के कारण ये 'उदयनाचार्य' के नाम से ही प्रख्यात हैं। इनका आविर्भावकाल दशम शतक का उत्तरार्ध है। इनकी 'लक्षणावली' का रचनाकाल ९०६ शक (९८४ ई.) ग्रंथ के अंत में निर्दिष्ट है। इन्होंने प्राचीन न्यायग्रंथों की भी रचना की है जिनमें इनकी मौलिक सूझ तथा उदात्त प्रतिभा का पदे पदे परिचय मिलता है। इनकी प्रख्यात कृतियाँ ये हैं-(१) किरणावली-प्रशस्तपादभाष्य की टीका; (२) तात्पर्यपरिशुद्धि-वाचस्पति मिश्र द्वारा रचित 'न्यायवार्तिक' की व्याख्या तात्पर्यटीका का प्रौढ़ व्याख्यान जिसका दूसरा नाम 'न्यायनिबंध' है; (३) लक्षणावली-जिसमें वैशेषिक दर्शन का सार संकलित है; (४) बोधसिद्धि-जो न्यायसूत्र की वृत्ति है जिसका प्रसिद्ध अभिधान 'न्यायपरिशिष्ट' है (५) आत्मतत्वविवेक-जिसमें बौद्ध विज्ञानवाद तथा शून्यवाद के सिद्धांतों का विस्तार से खंडन कर ईश्वर की सिद्धि नैयायिक पद्धति से की गई है। यह उदयन की कृतियों में विशेष प्रौढ़ तथा तर्कबहुल माना जाता है। रघुनाथ शिरोमणि, शंकर मिश्र, भगीरथ ठक्कुर तथा नारायणाचार्य आत्रेय जैसे विद्वानों की टीकाओं की सत्ता इस ग्रंथ की गूढ़ार्थता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। परंतु उदयन की सर्वश्रेष्ठ कृति है (६) 'न्यायकुसुमांजलि' जिसमें ईश्वर की सिद्धि नाना उदात्त तर्को और प्रोढ़युक्तियों के सहारे की गई है। ईश्वरसिद्धि विषयक ग्रंथों में यह संस्कृत के दार्शनिक साहित्य में अनुपम माना जाता है। ध्यान देने की बात है कि न्यायमत में जगत् के कर्तृव्य से ईश्वर की सिद्धि मानी जाती है। बौद्ध नितांत निरीश्वरवादी हैं। षड्दर्शनों में भी ईश्वरसिद्धि के अनेक प्रकार हैं। इन सब मतों का विस्तृत समीक्षण कर आचार्य उदयन ने अपने मत का प्रौढ़ प्रतिष्ठापन किया है। इनके विषय में यह किंवदतीं प्रसिद्ध है कि जब इनके असमय पहुँचने पर पुरी में जगन्नाथ जी के मंदिर का फाटक बंद था, तब इन्होंने ललकारकर कहा था कि निरीश्वरवादी बौद्धों के उपस्थित होने पर आपकी स्थिति मेरे अधीन है। इस समय आप मेरी आवज्ञा भले ही करें। ऐश्वर्य मद मत्तोऽसि मामवज्ञाय वर्तसे। उपस्थितेषु बौद्धेषु मदधीना तव स्थिति:।। सुनते हैं, फाटक तुरंत खुल गया और उदयन ने जगन्नाथ जी के सद्य: दर्शन किए। जगन्नाथ मंदिर के पीछे बनने के कारण किंवदंती की सत्यता असिद्ध है।

सं.ग्रं-सतीश्च्रांद विद्याभूषण: हिस्ट्री ऑव इंडियन लाजिक (कलकत्ता, १९२१); दिनेशचंद्र भट्टाचार्य : हिस्ट्री ऑव नव्य न्याय इन मिथिला (मिथिला संस्कृत इंस्टिटयूट, दरभंगा, १९५८)। (ब.उ.)