उत्तर प्रदेश गणतंत्र भारत का एक राज्य है, जो २३� ५२� उ. से ३१� १८� उ.अ. और ७७� ३� पू. से ८४� ३९� पू.दे. रेखाओं के मध्य उत्तरी खंड में स्थित है। इसके उत्तर में नेपाल और तिब्बत दक्षिण में मध्य प्रदेश, पूर्व में बिहार और पश्चिम तथा दक्षिण पश्चिम में क्रमश: हिमाचल प्रदेश, पंजाब, दिल्ली और राजस्थान हैं। इसका कुल क्षेत्रफल २,९४,४१३ वर्ग कि.मी. (भारत के राज्यों में मध्य प्रदेश और राजस्थान के बाद तृतीय स्थान) और जनसंख्या ८,८३,४१,१४४ (१९७१) (भारत के राज्यों में प्रथम स्थान) है। वर्तमान उत्तर प्रदेश अपनी पूर्ववत् क्षेत्रीय सीमा के अंतर्गत स्थित आगरा और अवध के संयुक्त प्रांत, रामपुर, टिहरी गढ़वाल और बनारस की देशी रियासतों तथा अन्य राज्यों के छोटे-छोटे टुकड़ों का सम्मिलन होने से बना है। राज्य-पुनर्गठन-अधिनियम के अंतर्गत उत्तर प्रदेश में कोई क्षेत्रीय परिवर्तन नहीं हुआ। इस राज्य का नाम २६ जनवरी, १९५० (गणतंत्र दिवस) से 'संयुक्त प्रांत' से बदलकर 'उत्तर प्रदेश' कर दिया गया। राज्य की राजभाषा हिंदी है।
प्राकृतिक दशा-भौगोलिक दृष्टि से इस प्रदेश को तीन बड़े प्राकृतिक भागों में विभाजित किया जा सकता है :
१. उत्तर का हिमालय पर्वतीय प्रदेश-एक दीवार की भाँति उत्तरी सीमा पर पूर्व से पश्चिम फैला हुआ है। इसमें निम्नलिखित भाग सम्मिलित हैं : (क) सबसे उत्तर में बृहत् हिमालय की श्रेणियाँ हैं जिनकी औसत ऊँचाई २०,००० फुट से अधिक है और जिनमें गगनचुंबी शिखर नंदादेवी, धौलागिरि आदि स्थित हैं। (ख) बृहत् हिमालय के दक्षिण में मध्य हिमालय की श्रेणियाँ हैं जो औसत में १२,००० फुट ऊँची हैं। (ग) उनके दक्षिण में बाह्य हिमालय (अथवा सिवालिक) की श्रेणियाँ है, जिनकी औसत ऊँचाई ५,००० फुट तक हैं; इनकी ऊँची श्रेणियों पर नैनीताल, मूसरी, अल्मोड़ा, रानीखेत आदि शेलावास (हिल स्टेशन) हैं जो अपनी स्वास्थ्यप्रदता और उपजाऊपन के लिए संसारप्रसिद्ध हैं। इन घाटियों के दक्षिण में फैली हुई पादश्रैणियाँ सिवालिक के ही अंग हैं। इनके ठीक नीचे भाबर प्रदेश है जो नदियों द्वारा लाए हुए अवसादों के एकत्र होने से बना है। इसमें नदियाँ भूपृष्ठ के नीचे-नीचे बहती हैं।
२. दक्षिण का पठारी प्रदेश-इसकी संरचना, प्राकृतिक दशा, मिट्टी, जलवायु के अनुसार दो भागों में विभाजित किया जाता है-प्रथम मध्य भारत का पश्चिमवाला पठारी भाग, जो बुंदेलखंड के पठार का एक भाग है और नीस नामक चट्टानों से निर्मित है। झाँसी इस भाग का केंद्र है। द्वितीय, जो पूर्व में विंध्याचल की श्रेणियों से (सोन के उत्तर में) और प्राचीन चट्टानों से (सोन के दक्षिण) बना है और जिसके उत्तर स्थित गंगा के मैदानी भाग में मिर्जापुर बसा है। इसे मिर्जापुर का पठार कह सकते हैं। यह भाग ऊँची नीची, छिन्न-भिन्न, एकल पहाड़ियों और अत्यंत छोटी घाटियों से बना है।
३. गंगा का मैदान-इस भाग में उत्तर प्रदेश का अधिकांश भाग आता है। यह मैदान गंगा और उसकी सहायक यमुना, रामगंगा, घाघरा, आदि नदियों से बना है और समतल, सुप्रवाहित तथा प्रधानतया कृषीय है। इस मैदान को निम्नलिखित उपविभागों में विभक्त किया जा सकता है : (क) ऊपरी गंगा का मैदान जो इलाहाबद के समीप तक और ४०�� वार्षिक वर्षारेखा के पश्चिम में स्थित कहा जा सकता है। साधारणतया इसका धरातल ४०० फुट (इलाहाबाद) से ७०० फुट (मेरठ)-८०० फुट (सहारनपुर) तक है। इस भाग का अधिकांश संसारप्रसिद्ध गंगा-यमुना-दोआब में पड़ता है। गंगा की तलहटी में जैसे-जैसे हम ऊपर चढ़ते जाते हैं, वर्षा की मात्रा कम होती जाती है। अत: ४०��-३०�� वर्षावाले प्रदेश को मध्य का मैदानी भाग और ३०�� से कम वर्षावाले पश्चिमी, अपेक्षाकृत शुष्क भाग को पश्चिम का मैदानी भाग कहते हैं। (ख) मध्य गंगा का मैदान : इसका अर्ध भाग इलाहाबाद से पूर्व उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में पड़ता है और शेष अर्ध भाग बिहार पटना नगर तक पहुँचता है। इस भाग में गंगा की सहायक नदियाँ-घाघरा, गंडक, सोन आदि-बहुत जल लाती हैं। इन नदियों की तलहटियाँ उनके द्वारा एकत्र मिट्टी के कारण अत्यंत छिछली हो गई हैं, अत: वर्षा ऋतु में नदियों का मार्गपरिवर्तन होता रहता है और भीषण बाढ़ आ जाया करती है। अत: मध्य गंगा की तलहटी में अनेक छिछली झीलें, दलदल तथा लवणपात्र हैं। ये या तो नदियों के पुराने छोड़े हुए मार्ग के कारण झील के रूप में हैं अथवा नदियों के बीच दलदल के रूप में। गंगा नदी के दक्षिण की तंग पट्टी की भूमि अधिक सूखी है और यहाँ दलदल बहुत कम हैं।
तराई-गंगा के मौदान और उत्तर के हिमालय पादपर्वतीय एवं भाबर प्रदेश के मध्य एक सँकरी पट्टी है, जिसका धरातल मैदानी भाग से अपेक्षाकृत ऊँचा है, परंतु जल की निकासी बहुत ही कुव्यवस्थित है। जो नदियाँ भाबर प्रदेश में धरातल के नीचे चली जाती हैं वे इस भाग में धरातल पर आ जाती हैं। तराई का भाग बहुधा लंबी मोटी घास एवं जंगलों से ढका रहता है। यह भाग आर्द्र, अस्वास्थ्यकर एवं मच्छरों से भरा है; अत: यहाँ आबादी कम है। तराई और मैदान की मिलनरेखा पर नगरों की एक पंक्ति मिलती है, जिसपर सहारनपुर, पीलीभीत, खीरी, बहराइच, गोरखपुर आदि बस गए हैं। इन्हें आधार मानकर अब सरकार तथा जनता द्वारा तराई में फसल उगाने, लकड़ी काटने के आर्थिक प्रयत्न किए जा रहे हैं।
जलप्रणाली-राज्य की मुख्य नदी गंगा है जिसमें बाईं ओर से राम गंगा, गोमती और घाघरा अथवा सरयू और दाईं ओर से यमुना आ मिलती है। गंगा नदी टेहरी गढ़वाल जिले के देवप्रयाग नामक स्थान पर अलकनंदा और भागीरथी के मिलने से बनती है और हरिद्वार के पास मैदान में उतरकर राज्य की दक्षिण पूर्वी दिशा में बहती है। यमुना नदी इसके दाएँ हिमालय से निकलकर इस प्रदेश की पश्चिमी तथा दक्षिणी सीमा के पास से बहती है और इलाहाबाद में गंगा से मिल जाती है। अत: ऊपरी गंगा की तलहटी का एक बड़ा भाग गंगा यमुना के दोआब बना है। दक्षिण के पठारी भागों से चंबल, सिंध, बेतवा और केन आदि नदियाँ यमुना से मिलती हैं। रामगंगा गढ़वाल से निकलती है और रुहेलखंड में बहकर कन्नौज के पास गंगा से मिल जाती है। गंगा के उत्तरी हिस्से को घाघरा दो भागों में बाँटती है और यह अपनी सहायक नदियों-शारदा, राप्ती-के साथ बहुत जल लाती है। घाघरा इस राज्य के बाहर पटना के समीप गंगा से मिल जाती है। गोमती नदी अपनी सहायक सई नदी के साथ घाघरा गंगा के दोआब में बहती है और गाजीपुर जिले में सैदपुर के पास गंगा से मिल जाती है। पुर्वोक्त नदियाँ पूर्वी जिलों में बहुत छिछली हो गई हैं और बहुधा मार्गपरिवर्तन करती रहती हैं। इनमें बरसात में भीषण बाढ़ आती रहती है। यमुना और उसकी दक्षिणी सहायक नदियों, विशेषतया चंबल, ने बहुत सी भूमि को काट छाँटकर ऊबड़ खाबड़ बना दिया है और मिट्टी का कटाव बहुत अधिक हुआ है।
मानचित्र : उत्तर प्रदेश
भूविज्ञान-उत्तरका पर्वतीय प्रदेश भूवैज्ञानिक दृष्टि से बड़ा जटिल है और इसमें पृथ्वी के इतिहास के कैंब्रियन युग से प्रादिनूतन युग तक के सब युगों के नमूने विद्यमान हैं। इन पर्वतों का आंतरक (हीर) ठोस, मणिभ और रूपांतरित चट्टानों का बना हुआ हे, जिनमें प्राचीन अजीवाश्मप्रद (अनफ़ॉलोफ़ेरस) अवसाद शिलाएँ भी सम्मिलित हैं। बाह्य हिमालय तृतीय युगीन अवसादीय नदीनिक्षेपों (डिपाज़िट्स) से बने हैं। हिमालय की पादश्रेणियों में बालू और बजरी अधिक मिलती हैं। ये नदियों के अवसादय निक्षेपों के कालांतर में उठ जाने के कारण पर्वत हो गए हैं। ये हिमालय प्रदेशीय पर्वत नए भंजमय (फ़ाल्डेड) पर्वत है। हिमालय को उठानेवाली शक्तियाँ अब भी गतिशील हैं, इसलिए पृथ्वी के इन दुर्बल भागों में पड़े स्थानों में भूकंप की आशंका बराबर बनी रहती है। मिर्जापुर का पठारी प्रदेश अपेक्षाकृत अति प्राचीन है और नदियों द्वारा कट छँट गया है। सोन के उत्तरवाला भाग विंध्य समतल अवसाद शैलों से बना है, जिसमें बलुआ पत्थर, जबशिला (शेल) और चूने के पत्थर मुख्य हैं। सोन के उस पार का प्रदेश पूर्वी सतपुड़ा की श्रेणियों से युक्त है जिनमें आग्नेय एवं परिवर्तित शिलाएँ विद्यमान हैं। बुंदेलखंड क्षेत्र में चट्टानें प्राचीन मणिभ ग्रैनाइट और नीस की बनी हुई हैं। गंगा का मैदानी भाग तथा दून घाटी मुख्यत: जलोढ़ (एलूवियम) से बनी हुई हैं, जिससे नीचे की भूरचना छिप गई है। पुराना जलोढ़वाला भाग, जो बाढ़ से रक्षित रहता है, बाँगर कहलाता है। नई जलोढ़वाला बाढ़पीड़ित क्षेत्र खादर कहलाता है।
खनिज पदार्थ-अधिकांश भाग जलोढ़ निर्मित होने के कारण खनिजों की दृष्टि से उत्तर प्रदेश विशेष महत्वपूर्ण नहीं है। शेष भागों में भी अभी तक राज्य के खनिज साधनों का पूर्ण रूप से अनुसंधान नहीं हो सकता है। हिमालय प्रदेश में कुछ पुराने लौहखनन के स्थानों के अवशेष मिलते हैं। नई खोजों में गढ़वाल जिले में जिम्सम, अल्मोड़ा एवं कुमायूँ पर्वतों में मैग्नेसाइट और गढ़वाल तथा अल्मोड़ा में ताँबे के निक्षेपों का पता चला है। हिमालय में अनुमानत: खनिज तैल का अमित भांडार है जिसकी खोज फलदायक सिद्ध हो सकती है। इसके अतिरिक्त हिमालय के विभिन्न भागों में चूना पत्थर और स्लेट अधिक मात्रा में प्राप्य हैं। दक्षिणी पठारी प्रदेश में कुछ लोहा और कोयला (मिर्जापुर जिला के सिंगरौली क्षेत्र में) मिलता है, परंतु अभी तक केवल सिंगरौली कोयले का उत्पादन संभव हुआ है जिसके निम्न कोटि के होने पर भी उसके आधार पर ओबरा में तापीय विद्युत्केंद्र स्थापित किया गया है। यहाँ भी पुराने लौहखनन के अवशेष मिलते हैं। यहाँ चूने का पत्थर बहुत मात्रा में है, जिसके कारण चुर्क और डाला में सीमेंट का एक-एक कारखाना चल रहा है। इन स्थानों से चूना भी खूब मिलता है। विंध्य श्रेणियों का बलुआ पत्थर इमारतों के निर्माण के लिए बहुत उपयुक्है है और इसका उपयोग राज्य में खूब होता है। इसकी कई खदानें केवल मिर्जापुर जिले में ही चलती हैं। मैदानी भाग में आर्थिक महत्व का कंकड़ मिलता है, जो सड़क बनाने के उपयोग में आता है। इससे चूना भी बनता है। इसके तथा बालू और मिट्टी के अतिरिक्त मैदानी भाग में आर्थिक महत्व की अन्य सामग्री शीरा है, जो कहीं-कहीं मिट्टी के पृष्ठ पर प्रस्फुटन (सफ़्लोरेसेंस) के रूप में मिलता है। दक्षिण के कुछ चूना पत्थर विभिन्न रंगों के होते हैं और उनसे सजावट का काम लिया जाता है। झाँसी जिले की चरखारी तहसील (पहले का चरखारी देशी राज्य) में पहले कुछ हीरे भी निकाले गए थे। पूरे उत्तर प्रदेश में भारत का एक प्रतिशत मात्र ही खनिजों का प्राप्त अवसाद हैं। १९६७ में प्रति व्यक्ति खनिजोत्पादन का मूल्य यहाँ मात्र ५ पैसे था जबकि भारतीय औसत ४ रु. ७० पैसे था। यहाँ १९६७ में ६७ हं. टन डोलोमाइट, ६६९ हं. टन चूना पत्थर तथा थोड़ा जिप्सम और बाक्साइट का उत्पादन हुआ था।
जलवायु-साधारणतया उत्तर प्रदेश की जलवायु उष्ण और शुष्क है। उत्तर का हिमालय पर्वतीय प्रदेश अपेक्षाकृत ठंडा है और वर्षा यहाँ मैदानी भाग से अधिक होती है। यहाँ ताप का औसत ५५� फा. और वर्षा का ६०�� से अधिक रहता है। तराई में ४०�� से ८०�� तक वर्षा होती है जिसका अधिकांश जुलाई अगस्त में बरसता है। वर्षा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। जनवरी में ताप ६०� फा. से ६५� फा. और औसत गर्मी में ८०� फा. से अधिक रहता है। मैदानी भाग गर्मी में शुष्क उष्ण, वर्षा में आर्द्र उष्ण और जाड़े में ठंडा एवं शुष्क रहता है। ग्रीष्म ऋतु में ताप बहुधा ११५� तक चला जाता है और १० बजे दिन से पाँच बजे शाम तक भीषण लू के रूप में पछुवा हवा बहती रहती है।
इलाहाबाद से पश्चिम जाने पर जौ, गेहूँ, बाजरा, ज्वार के खेत अधिक मिलते हैं और पूरब बढ़ने पर आर्द्रतापीय शस्यों (धान आदि) की खेती बढ़ती जाती है। संपूर्ण प्रदेश में जाड़े की ऋतु (नवंबर से फरवरी तक) बड़ी सुहावनी होती है। कभी-कभी पाला पड़ता है, और शीतलहरी दौड़ जाती है। वर्षा ऋतु को वर्षा बंगाल की खाड़ी के पावस से होती है। दक्षिणी पठारी प्रदेश में वार्षिक वर्षा का औसत २०��-४०�� रहता है और जनवरी का ताप ५५� फा. से ६५� फा. तक रता है। यहाँ चट्टानी धरातल एवं शस्यहीन चट्टानी मिट्टी के कारण गर्मी की ऋतु बहुत गरम और सूखी रहती है।
मिट्टी, वर्षा की विषमता और सिंचाई-उत्तर प्रदेश के मैदानी भाग एवं दून घाटी की मिट्टी जलोढ़ होने के कारण उपजाऊ है। नदियों के किनारे के पास खादर मिट्टी रहती है। बाँगर में अच्छे जलनिकासवाली दोमट मिट्टी पाई जाती है जिसके नीचे अधिकतर कंकड़ की परतें होती हैं, राज्य में दोमट (लोम), मटियार (क्ले) और भूर या बलुआ तथा इनके मिश्रण से बनी कई प्रकार की मिट्टियाँ पाई जाती हैं। मटियार तथा करैल मिट्टी पूर्वी भाग के निम्न भागों में मिलती है और धान के लिए उपयुकत है। दोमट अपेक्षाकृत उँचे भागों में मिलती है और सींचने पर अत्यंत उपजाऊ होती है। दून घाटी की दोमट और मटियार मिट्टियाँ चाय तथा धान के लिए अत्यंत उपजाऊ हैं। कुमायूँ क्षेत्र में चट्टानी मिट्टी मिलती है, पर कहीं-कहीं ढालों पर उपजाऊ मिट्टी मिलती है। अल्मोड़ा जिले में जंगली प्रदेश की भूरी मिट्टी फलों के पौधों के लिए अत्यंत उपजाऊ है। दक्षिण के पठारी भागों में तथा मध्य मैदान के फतेहगढ़, कानपुर तथा इलाहाबाद जिलों में राकर, काबर, परवा और मार मिट्टियाँ पाई जाती हैं जो बुंदेलखंड के पठारी भागों की मिट्टी हैं। ये मिट्टयाँ अपेक्षाकृत उपजाऊ तथा शुष्क होती हैं। अपेक्षाकृत शुष्क भागों में एक प्रकार की क्षारीय मिट्टी मिलती है जिसे रेह कहते हैं। यह मिट्टी भूमि को ऊसर बनाती है। गंगा-घाघरा-दोआब में ऊसर मिट्टी की अपेक्षाकृत प्रचुरता है।
कुछ भागों में मिट्टी का अपक्षरण बड़े वेग से जारी है और कई फुट मिट्टी की तहें कट गई हैं। फलत: बड़े-बड़े खड्ड बन गए हैं। चंबल, बेतवा, यमुना और गोमती की घाटी में इनके उदाहरण बड़ी संख्या में मिलते हैं।
उत्तर प्रदेश कृषिप्रधान राज्य है, अत: इसका भाग्य वर्षा की मात्रा, निश्चितता और समयानुकूलता पर निर्भर रहता है। परंतु न तो वर्षा की मात्रा और न समयानुकूलता ही निश्चितप्राय है, अत: कभी सूखा से, कभी भीषण वर्षा एवं बाढ़ तथा मिट्टी के कटाव से शस्यहानि होती है; कभी फसलों का न बोया जाना, अथवा खड़ी फसलों का नाश आदि के रूप में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। साधारणतया प्रति पाँच वर्ष में वर्षा समयानुकूल और पर्याप्त मात्रा में होती है। इस अनिश्चितता से यहाँ किसान बड़े दु:खी रहते हैं।
वर्षा की परिवर्तनशीलता के परिप्रेक्ष्य में राज्य में सफल कृषि और अधिक उत्पादनशीलता के लिए सिंचाई आवश्यक है। इसके लिए यहाँ प्रचुर हुए हैं। १९५१ के पहले भारत के कुल २,५०० सरकारी नलकूपों में से २,३०० केवल उत्तर प्रदेश में थे। १९७२ के कार्च तक राज्य में ऐसे नलकूपों की संख्या ११,०६४ हो गई थी; इनके अतिरिक्त व्यक्तिगत स्तर पर १९६८-६९ तक १३,९०९ नलकूप और ८१,९५८ पंपिंग सेट भी स्थापित हुए हैं। यद्यपि १९७१ तक निवल सिंचित भूमि केवल ७२ लाख हे. थी किंतु कुल सिंचित भूमि १९६८-६९ में ही ९५ लाख हेक्टेयर (३६ लाख हे. बृहत् एवं मध्यम स्तरीय, १८ ला. हे. छोटी योजनाओं द्वारा और ४१ ला.हे. व्यक्तिगत साधनों द्वारा) हो गई थी जो १९७३-७४ के अंत तक १३५ ला.हे. (क्रमश: ४१ ला.हे., २४ ला.हे. और ७० ला.हे.) हो जाएगी। १९५०-५१ में केवल ४८ ला.हे. निवल सिंचित भूमि थी। १९६८-६९ तक राज्य में २,०४,८८७ साधारण कुएँ थे। मुलायम जलोढ़ मिट्टी के निक्षेप, समतल मैदानी भूमि और अपेक्षाकृत कम गहराई पर ही पानी मिल जाने के कारण ऐसे कुएँ कम खर्च में ही बन जाते हैं। किसान ऐसे कुओं से पानी निकालने के लिए चरस या पुरवट, ढेकली और रहट आदि का प्रयोग करते हैं। राज्य में मध्यकाल से ही नहरों से सिंचाई होती रहती है किंतु पिछले सौ वर्षों से इसमें पर्याप्त वृद्धि हुई है। राज्य की बड़ी नदियों से सतत्सलिला नहरें निकाली गई हैं जिनसे कृषि के लिए वर्ष भर जल मिलता रहता है। राज्य की प्रमुख नहरों में गंगा की उत्तरी और दक्षिणी नहरें, यमुना की पूर्वी यमुना नहर, आगरा नहर, तथा शारदा नहर हैं। शारदा नहर की शाखाओं को बढ़ाकर इधर जौनपुर और अजमगढ़ जिले में सिंचाई के लिए प्रबंध किया गया है। बिजली का उपयोग करके कर्मनाशा जेसी छोटी नदियों से 'लिफ्ट नहरों' का भी प्रबंध किया गया है। ललितपुर (झाँसी) का बाँध, कर्मनाशा पर नौगढ़ बाँध, चंद्रप्रभा बाँध आदि अपेक्षाकृत सैकड़ों छोटी योजनाओं के नमूने हैं।
बहुधंधी योजनाएँ (सिंचाई एवं ऊर्जा)-राज्य के चतुर्दिक् आर्थिक विकास के लिए कई बहुधंधी योजनाएँ पूरी की गई हैं और कई में अभी कार्य चालू है। स्वातंत्र्योत्तर कालीन बड़ी सिंचाई योजनाओं में माताटिला बाँध, रामगंगा (गढ़वाल), पश्चिमी गंडक नहर, शारदा सागर आदि प्रमुख हैं जिनके अतिरिक्त सैकड़ों छोटी एवं मध्यम स्तर की सिंचाई योजनाएँ हैं। प्रमुख ऊर्जाप्रधान योजनाओं में रिहंद एवं यमुना-जलविद्युत्-योजनाएँ, हरदुआगंज तापीय विद्युत्केंद्र, कानपुर नवीन तापीय केंद्र और ओबरा तापीय केंद्र प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त दर्जनों छोटे एवं मध्यम स्तरीय केंद्र हैं। हरदुआगंज उत्तरप्रदेश का बृहत्तम तापीय विद्युत्केंद्र है जिसकी कुल क्षमता ४२० मेगावाट होगी। ओवरा की कुल क्षमता अंतत: १,१५० मेगावाट की होगी। यहाँ एक और भी तापीय केंद्र स्थापित करने का लक्ष्य है। १९७१-७२ में ऊर्जा की कुल प्रष्ठापित उत्पादन क्षमता १,५७२ मेगावाट थी जिसे १९७४ में चौथी पंचवर्षीय योजना के अंत तक १,८२७ मेगावाट कर देने का लक्ष्य है। १९५१ में राज्य में केवल ५८१ गाँवों में विद्युत् शक्ति प्राप्त थी किंतु मार्च, १९७१ तक २,०७१ गाँवों को यह लाभ मिल गया था।
वन-१९७०-७१ के भूमि उपयोगानुसार राज्य में ४९,८८,००० हे. भूमि वनाच्छादित थी जो राज्य की कुल भूमि का लगभग १६.८% (१९५५-५६ में १४.३%) है। यह अखिल भारतीय औसत (२२.९८%) से बहुत कम है। अधिकांश वन (५६%) हिमालयी क्षेत्रों में हैं। शेष भाग तराई, भाबर और विंध्य पहाड़ियों और पठारों में फैला है। मैदानी भागों में केवल १६६८ वर्ग कि.मी. भूमि में वन हैं जब कि उनकी एक तिहाई भूमि में वनाच्छादन अपेक्षित है। वस्तुत: राज्य की पहाड़ी भूमि का ४९% वनाच्छादित है जबकि विंध्य क्षेत्र का १८% और मैदानी भाग का ५% प्रतिशत ही वरसंकुल है। अत: वनसंसाधन राष्ट्रीय औसत से कम हैं। वन विभिन्न प्रकार के हैं किंतु प्रबंध के अभाव में ये बहुत संपन्न नहीं हैं। राज्य के केवल ८३% वनों पर वनविभाग का अधिकार है। प्रकार की दृष्टि से वनों के आठ प्रकार हैं-उच्च पर्वतीय (अल्पाइन) झाड़ियाँ, उच्च पर्वतीय वन, हिमालयी शुष्क शीतोष्ण वन, हिमालयी नम क्षेत्रीय वन, हिमालयी उपोष्णकटिबंधीय वन, उष्णकटिबंधीय नम वन, उष्णकटिबंधीय शुष्क पतझड़ी वन और उष्णकटिबंधीय कँटीली झाड़ी युक्त वन। साखू, शीशम, महआ जैसी फर्नीचर के योग्य लकड़ियाँ, चीड़ सदृश नरम (हिमालय पर्वतीय) लकड़ियाँ, कागज, लुग्दी, दियासलाई आदि के लिए तथा अन्य उद्योगों के लिए कच्चा माल इन वनों में प्राप्य है।
जीवजंतु-उत्तर प्रदेश में १९७१ की जनगणना के अनुसार लगभग ५१६ लाख पालतू पशु थे जिनमें २९.१% हल जोतनेवाले एवं अन्य कृषि कार्य में संलग्न जीव थे, २६.४% दूध देनेवाली गाएँ, भैंसे, १९.२% अन्य गाएँ भैंसे तथा २५.३% भेड़ बकरियाँ एवं अन्य पशु थे। यहाँ विभिन्न नस्लों के पशु-घोड़े, खच्चर, गदहे, ऊँट, सूअर, भेड़, बकरियाँ आदि पाए जाते हैं। हिंसक जीवों में बाघ, शेर, चीता, भेड़िया आदि जंगलों में मिलते हैं। नीलगाय, लंगूर, बंदर, हिरण आदि बहुतायत से मिलते हैं।
कृषि-उत्तर प्रदेश का आर्थिक तंत्र कृषिप्रधान है। यहाँ १९७०-७१ में कुल २३२ लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि पर फसलें बोई गईं और कृषि में १९७१ के जनगणनानुसार राज्य के ७५ प्रतिशत लोग लगे थे। १९५५-५६ में कुल ५६% भूमि पर कृषि की गई थी जो १९७१ में ५८% से अधिक भूमि पर की गई। उसी प्रकार सिंचित भूमि में भी इधर प्रचुर प्रगति हुई है, यद्यपि अब भी (१९७१) निवल कृषिभूमि की केवल ४२% भूमि पर ही (१९५५-५६ में २९%) सिंचाई हो रही है। सिंचाई, उर्वरक सुगमता तथा हरितक्रांति के परिणामस्वरूप अब दुहरी कृषिभूमि में भी पर्याप्त प्रगति हुई है, जैसा निम्न तालिका से स्पष्ट है--
उत्तर प्रदेश : दुहरी बोई भूमि का निवल बोई भूमि साथ प्रतिशल
१९५०-५१ १९७०-७१
पहाड़ी भूमि १६.९ ६५.८
पश्चिमी क्षेत्र २२.० ३९.८
मध्य '' २२.५ ३०.६
पूर्वी '' २९.६ ३४.०
बुंदेलखंड '' ६.३ १०.३
उत्तर प्रदेश २३.० ३३.०
स्पष्ट है, इसमें भी सिंचाई की तरह ही प्रचुर क्षेत्रीय विषमता है। अभी भी दो राज्य की केवल एक तिहाई बोई भूमि में दो फसलें उगाना संभव है। सिंचाई एवं उर्वरकों की वृद्धि के फलस्वरूप चालू पड़ती भूमि १०,४६,००० (१९५०-५१) हे. से घटकर केवल ८,३८,००० (१९७१) हे. रह गई है।
यहाँ तीन तरह की फसलें उगाई जाती हैं : १-खरीफ (धान, मक्का, बाजरा, ज्वार, सावाँ, आदि जो वर्षा के प्रारंभ में बोई जाती हैं और अक्टूबर से दिसंबर तक काटी जाती है; २-रबी (गेहूँ, जौ, चना, मटर, मसूर, सरसों आदि जो जाड़े के प्रारंभ में, अक्टूबर नवंबर में, बोई जाती और ग्रीष्म के पहले, मार्च अप्रैल में, काटी जाती हैं तथा ३-जायद-कई तरह की शाक-सब्जी, तरबूज एवं नए किस्म के चावल आदि जो ग्रीष्म की फसलें हैं। इनके अतिरिक्त गन्ना जैसे वार्षिक फसलें तथा फलों के वृक्ष आदि हैं। कृषि में खाद्य फसलों का अब भी महत्व अधिक है। महत्वानुसार गेहूँ, (१९७१-७२ में ७५ ला.टन), धान (३७ ला. टन), दालें (२८.४ ला. टन), जौ (१३.४), मक्का (८.५), बाजरा (५.३) और ज्वार प्रमुख खाद्यान्न हैं। १९५५-५६ की अपेक्षा गेहूँ के उत्पादन में तीन गुनी से अधिक वृद्धि हुई है। इधर हरितक्रांति के अंतर्गत नई अधिक उत्पादक किस्मों के बीजों का गेहूँ, धान, मक्का, ज्वार और बाजरा में काफी उपयोग होने लगा है। इसमें सर्वाधिक प्रगति गेहूँ और धान में हुई है। १९६६-६७ (२ ला.हे.) की अपेक्षा १९७२-७३ में लगभग २५ ला.हे. में ऐसे गेहूँ की खेती हुई। १९६६-६७ में कुल खाद्यान्नों में ऐसे बीजों से केवल ४.७ ला.हे. में खेती हुई थी किंतु १९७२-७३ में लगभग ५८.५ ला.हे. में हुई। गेहूँ मध्य तथा पश्चिमी जिलों में और धान पूर्वी जिलों में अधिक होता है। राज्य में व्यापारिक फसलों का भी महत्व बढ़ रहा है। लेकिन इनकी उपज अभी भी बहुत कम है। १९७१-७२ में १७.५ ला. टन तेलहन, १७ ला. टन आलू और ४८७ लाख टन (१९७०-७१ में ५४७) गन्ने का उत्पादन हुआ। तेलहन में तीसी, सरसों, मूँगफली, रेंड़ और तिल प्रमुख हैं। गन्ना सरयूपार क्षेत्र में तथा पश्चिमी मैदानों एवं तराई में तथा कपास पश्चिमी मैदानों में उगाया जाता है। चाय उत्तर के पहाड़ी जिलों तथा देहरादून घाटी में उगाई जाती है और जूट अधिकांशत: तराई में होता है। स्थानीय रूप से मसाले, तंबाकू तथा अफीम (अधिकांशत: गाजीपुर जिले में) उगाए जाते हैं-अफीम तो यहाँ भारत में सबसे अधिक होती है। सब्जी, फल, फूल तथा दुग्धशालाएँ एवं मुर्गीपालन आदि व्यवसाय नगरों और कस्बों के समीप अधिक विकसित हो रहे हैं। ९० प्रतिशत से अधिक कृषिभूमि में खाद्यान्न उगाने पर भी अधिक जनसंख्या तथा सिंचाई उर्वरक, खाद, उन्नत बीज, आधुनिक ढंग और औजारों आदि के अभाव तथा छोटे अनार्थिक चक, किसानों में साधनों तथा उत्साह की कमी आदि के कारण अब भी प्रति हे. उत्पादन कम होने से खाद्यान्न की कमी है। १९७०-७१ में प्रति हे. गेहूँ का १३.२९ क्विं., चावल का ८ क्विं. और बाजरे का ७.९ क्विं. औसत उत्पादन हो गया है किंतु इसे और भी बढ़ाना आवश्यक है।
उत्तर प्रदेश : भूमि उपयोग प्रतिरूप (१९७०-७१)
(हजार हेक्टेयर में)
१ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९
भूमि कुलभुमि वन बंजर, कृष्यप चालू निवल कुल निवल
अकृष्य युक्त पड़ी बोई बोई सिंचित
एवं अकृषि भूमि भूमि भूमि भूमि भूमि
कार्यों में लगी
मैदानी २५,५३५ २,२३४ ३,०३० २,६१३ ८१६ १६,८४२ २२,३५३ ७,१६०
पहाड़ी ४,३४५ २,७५४ ४२३ ६४५ २२ ५०१ ८५४ ५९
कुल २९,८८० ४,९८८ ३,४५३ ३,२५८ ८३८ १७,३४३ २३,२०७ ७,२१९
उद्योग धंधे-राज्य में प्रमुख उद्योग चीनी, धातु तथा इंजीनियरी, (सूती, ऊनी और जूट के) कपड़े, चमड़ा, काँच, रासायनिक उद्योग, आटा, चावल तथा तेल की मिलों आदि के हैं। पुर्वोक्त धंधों के अतिरिक्त बड़े उद्योगों में शक्ति ऐल्कोहल (पावर ऐल्कोहल), वनस्पति घी, रजन और तारपीन (रेज़िन और टरपेंटाइन), लालटेन बनाने, कागज तथा तत्संबंधी उद्योग, ढरकी (बाबिन), स्टार्च, कृषि के औजार, खैर, दियासलाई, सीमेंट तथा लकड़ी के उद्योग, सिगरेट और लाख (लाह) आदि के उद्योग प्रमुख हैं। कानपुर न केवल राज्य का, प्रत्युक कलकत्ता और बंबई के बाद देश, का सर्वप्रमुख औद्योगिक केंद्र है, जहाँ सूती कपड़ों की ३४ मिलें, चमड़े की १७ तथा अन्य विभिन्न उद्योगों की कई मिलें हैं। राज्य में काँच तथा चूड़ियों के ८६, लोहा, इस्पात तथा काँसा ढालने के ५१, जूट के ३, दियासलाई के ४, खोखले बर्तनों के ४०, चीनी के ८६, कागज तथा गत्ते के ६, चमड़े के २२, वनस्पति घी के ५, साबुन के २५ बड़े, तेल के १५० बड़े एवं १५ बड़े एवं २५० छोटे, मदिरा के १३, इंजीनियरी के ९६ तथा रासायनिक उद्योग के १५ बड़े एकक (यूनिट) थे। राज्य में कानुपर के अतिरिक्त आगरा तथा रामपुर के चमड़े का काम, वाराणसी में जरी के कपड़े और बनारसी साड़ी, वाराणसी, मिर्जापुर तथा मुरादाबाद के पीतल के धंधे, शाहजहाँपुर तथा नैनीताल के मदिरा के कारखाने, लखनऊ तथा सहारनपुर के कागज के कारखाने, भदोही के कालीन के तथा आगरा के दी के धंधे, लखनऊ के चिकन के कार्य, अलीगढ़ का धातु एवं ताले का धंधा, बरेली एवं सहारनपुर का फर्नीचर का कार्य, मिर्जापुर का लाख एवं बर्तन का व्यापार, चुनार और खुर्जा के मिट्टी एवं चीनी मिट्टी के बर्तनों के कार्य, फिरोजाबाद और बहजोई के चूड़ियों के धंधे प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त सभी बड़े नगरों तथा अधिकांश छोटे नगरों में आटा, चावल तथा तेल की मिलें और बिस्कुट एवं अन्य खाद्य पदार्थों के कारखाने चलते हैं।
इन बड़े उद्योगों के अतिरिक्त यह राज्य घरेलू एवं कुटीर उद्योगों के लिए भी प्रसिद्ध है। इनमें हाथ करघे के कपड़े (मऊ), रासायनिक पदार्थ, टिन के बर्तन, लोहे के ट्रंक, प्लास्टिक के सामान, कार्बन कागज, फलों का संरक्षण, साइकिल, धातु के यथार्थमापी यंत्र, कैंची तथा छुरी, बटन, हड्डी की खाद, आदि के उद्योग दिनानुदिन बढ़ रहे हैं। विभाजन के बाद मेरठ एवं बरेली में सभी प्रकार के खेलों के सामन बनने लगे हैं।
बृहत्-उद्योग उत्तर प्रदेश में १९७० में कारखानों (१९४८ के फैक्टरी ऐक्ट द्वारा परिभाषित) में ४,१९,००० व्यक्ति कार्यरत (१९६१ में केवल ३,३८,०००) थे और उनकी प्रति व्यक्ति आय २,२९३ रु. थी। उत्तर प्रदेश में स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद कई नए प्रकार के बड़े उद्योगों का विकास हुआ है। इनमें हरिद्वार में भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लि. रानीपुर; ऋषिकेष में इंडियन ड्रग ऐंड फार्मास्युटिकल्स लि. वाराणसी में डीज़ल लोकोमोटिव वर्क्स; साहुपुरी (वाराणसी), कानपुर तथा गोरखपुर में उर्वरक कारखाने; नैनी (इलाहाबाद) में त्रिवेणी स्ट्रक्चरल्स; टुंडला (आगरा के पास) में मांस डिब्बाबंदी का कारखाना (डीपफ्रीज़ मीट प्लांट), लखनऊ स्थित चिन्हट में हिंदुस्तान एयरोनाटिक्स; मिर्जापुर जिले में स्थित चुर्क तथा डाला में सीमेंट उद्योग और पिपरी (मिर्जापुर) में ऐल्यूमिनियम कारखाना प्रमुख हैं। मथुरा में पेट्रोलियम शोधन का कारखाना बन रहा है। संगठित औद्योगिक क्षेत्र में कारखानों की इकाइयों, राजगारों और उत्पादन की दृष्टि से राज्य का भारत में पाँचवाँ और छोटे उद्योगों के क्षेत्र में पंजाब और महाराष्ट्र के बाद तीसरा स्थान है। १९७९ में यहाँ १६ ला. टन चीनी, २५ ला. टन सीमेंट, १० ला. क्विं. वनस्पति, २,५३४ ला. मीटर सूती वस्त्र और ३२ ह. टन कागज और बोर्ड का उत्पादन हुआ।
यातायात के साधन-इधर राज्य में सड़कों का तेजी से विकास हुआ है। १९६९-७० तक यहाँ कुल १,६२,१७९ कि.मी. (भारत ११,८८,७२८) सड़कें हो गई थीं जिनमें ३६,५०७ कि.मी. पक्की तथा १,२५,६७२ कि.मी. कच्ची सड़कें थीं। सड़कों के विकास से व्यापार तथा परिवहन में और इस कारण सुदूर तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भी औद्योगिक एवं सामाजिक विकास में पर्याप्त वृद्धि हुई है। सभी प्रकार की, इंजिन द्वारा खींची जानेवाली, गाड़ियों की संख्या १९६८-६९ तक १,०७,८८५ (भारत में १६,३६,३९३) हो गई थी जिनमें ३८, ६५४ मोटर साइकिलें, स्कूटर और ऑटोरिक्शा, ३४,१२६ जीप, कार एवं टैकसी, ८,१३९ यात्री बसें, २३,९७६ मोटर ट्रक (माल परिवहन) तथा २,९९० अन्य गाड़ियाँ थीं। सभी 'कवाल' नगरों में इंडियन एयरलाइंस के हवाई अड्डे हैं और वाराणसी तो राज्य का एक मात्र कस्टम वसूलीवाला हवाई अड्डा घोषित हुआ है। वाराणसी से नेपाल की सेवाएँ चालू हैं। आगरा और वाराणसी में भारत सरकार के पर्यटन विभाग के उपकार्यालय स्थापित हैं।
जनसंख्या-१९७१ की जनगणना के अनुसार राज्य की कुल जनसंख्या ८,८३,४१,१४४ थी, अत: जनसंख्या का प्रतिवर्ग कि.मी. घनत्व ३०० व्यक्ति (प्रति वर्गमील घनत्व ७८२) हो गया था, जबकि १९६१ में केवल २५१ (भारत में १८२) था। इस प्रकार उत्तर प्रदेश का भारत के राज्यों में क्षेत्रफल की दृष्टि से तृतीय, कुल जनसंख्या की दृष्टि से प्रथम और प्रतिवर्ग कि.मी. घनत्व या जनभार की दृष्टि से केरल (५४९), पश्चिम बंगाल (५०४), और बिहार (३२४) के बाद चतुर्थ स्थान है। यह राज्य भारत की कुल ९% भूमि पर विस्तीर्ण है किंतु यहाँ देश की कुल १६% से अधिक आबादी रहती है। यहाँ १८७२ से लेकर अब तक (केवल १९११ एवं १९२१ तक के सौ वर्षों में इस राज्य की जनसंख्या दुगुनी से थोड़ी अधिक (१८७२ में ४,२७,८०,२९२) हुई है। १९०१-१९२१ की अवधि में दुर्भिक्ष, महामारियों और अन्य कई कारणों से जनसंख्या में ्ह्रास हुआ। १९२१ से पहले और १९२१ के बाद यह वृद्धि (६.०५%) १८८१-१८९१ दशक में हुई परंतु १९२१ के बाद यह वृद्धि दर ६.४४% (१९२१-३१), १२.७१% (१९३१-४१), ११.१६% (१९४१-५१), और १९.७९% (१९६१-७१) है। केवल १९५१-७१ के दो दशकों में इस राज्य पर ढाई करोड़ से अधिक जनसंख्या का भार बढ़ा है जो संपूर्ण आस्ट्रेलिया की आबादी का लगभग दुगुना है। राज्य के विभिन्न भागों में भूमि पर मानवभार का स्पष्टीकरण निम्न तालिका से हो जाता है :-
क्षेत्र/प्रदेश प्रति वर्ग कि.मी. जनसंख्या का घनत्व
पहाड़ी भूमि ६१ ७५
पश्चिमी मैदान ३१२ ३८१
मध्य मैदान २८७ ३४३
पूर्वी मैदान ३३० ३८७
बुंदेलखंड ११९ १४६
उ.प्र. २५१ ३००
राज्य के विभिन्न भौगोलिक विभागों, जिलों और तहसीलों आदि के स्तर पर जनसंख्या में न केवल वृद्धि दर प्रत्युत कि.मी. घनत्व की दृष्टि से भी प्रचुर विषमता पाई जाती है। इस क्षेत्रीय एवं प्रादेशिक विषमता का कारण विभिन्न भागों की प्राकृतिक, भौगोलिक दशाएँ, वर्षा; मिट्टी, सिंचाई के साधनों के विकास में अंतर, कृषि की भिन्न-भिन्न उपजें और प्रति इकाई उत्पादनशीलता में अंतर, औद्योगिक, परिवहन एवं अन्य प्रकार के विकास में विषमता आदि है। मैदानी भाग स्वभावत: सर्वाधिक जनसंकुल हैं किंतु साधारणतया पूर्व से पश्चिम की ओर पुन: मध्यांचल से उत्तर तथा दक्षिण की ओर, दोनों ओर पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण, प्रतिवर्ग कि.मी. घनत्व घटता जाता है।
लखनऊ, मेरठ और वाराणसी जैसे बड़े नगरयुक्त जिलों में प्रतिवर्ग कि.मी. घनत्व अत्यधिक (क्रमश: ६४०; ५६६ और ५६०) है किंतु देवरिया और बलिया जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामप्रधान जनपदों में भी यह भारत अधिक (क्रमश: ५२१ और ४९९) है। दूसरी ओर हिमालयी जिलों में उत्तरकाशी और चमोली में यह भार (क्रमश: १८ और ३२) उनके भूमि-संसाधनों, निवास्यता की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में कम नहीं है।
राज्य की ८५.९७ प्रतिशत जनता ग्रामीण (भारत ८१ प्रतिशत) है और केवल १४.०३% जनता नगरों में निवास करती है। राज्य की कुल नागरिक जनसंख्या विभिन्न आकारों के कुल २९३ नगरों में रहती है। १९५१ में नगरों की संख्या ४८६ थी किंतु नगर की परिभाषा में परिवर्तन होने के कारण उनमें से बहुत से छँट गए हैं। १९७१ में २२ नगरों की जनसंख्या १ लाख या अधिक; २० नगरों की ५०,००० से ९९,९९९; ६७ नगरों की २०,००० से ४९,९९९; ९१ नगरों की १०,००० से १९,९९९; ८० नगरों की ५,००० से ९,९९९ और १३ की जनसंख्या ५,००० से कम थी। राज्य का सबसे बड़ा नगर कानपुर है जो १९७१ की जनसंख्या (१२,७५,२४२) के अनुसार भारत के दसलक्षीय महानगरों में से एक हो गया है। १९७१ की जनगणना के अनुसार ५ लाख से अधिक जनसंख्या वाले राज्य के अन्य बड़े नगर लखनऊ (८,१३,९८२), आगरा (६,३४,६२२), वाराणसी (५,१३,०३६) हैं। इनके अंग्रेजी के पहले अक्षरों को मिलाकर 'कवाल' (KAVAL)नगरों की संज्ञा दी गई है। इनमें विकास की दृष्टि से कानपुर आधुनिक, लखनऊ और आगरा मध्ययुगीन और प्रशासनिक केंद्रों के रूप में और वाराणसी तथा इलाहाबाद प्राचीन नगर हैं और अब भी भारत के अत्यंत पवित्र धार्मिक, सांस्कृतिक नगर माने जाते हैं। ये सभी नगर गंगा या उसकी सहायक नदियों के किनारे बसे हैं। इन नगरों में सन् १९६० से नगरनिगम (कारपोरेशन) स्थापित हो गए हैं और इनकी उन्नति के लिए विभिन्न योजनाएँ चालू हैं। इनमें रोजगारों की वृद्धि के लिए विभिन्न उद्योग स्थापित किए गए हैं। इनका व्यापारिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक महत्व भी बढ़ रहा है। इनके अतिरिक्त पश्चिमी मैदानी भाग में मेरठ (३,६७,७५४), बरेली (३,२६,१०६), मुरादाबाद (२,७२,६५२), अलीगढ़ (२,५२,३१४), सहारनपुर (२,२५,३९६), शाहजहाँपुर (१,४४,०६५), मथुरा (१,४०,१५०), गाजियाबाद (१,२७,७००), रामपुर (१,६१,४१७), मुजफ्फरनगर (१,१४,७८३) एवं फर्रुखाबाद (१,१०,८३५) एक लाख से अधिक जनसंख्यावाले ग्यारह नगर हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में वाराणसी के अतिरिक्त सरयूपार क्षेत्र में गोरखपुर (२,३०,९११), गंगा-घाघरा-दोआब में फैजाबाद-अयोध्या (१,०९,८०६) और गंगापार क्षेत्र में मिर्जापुर-विंध्याचल (१,०५,९०९) बड़े नगर हैं। उत्तर के पर्वतीय क्षेत्र में देहरादून (२,०३,४६४) और दक्षिणी पठारी अंचल में झाँसी (१,९८,१३५) बड़े नगर हो गए हैं। अत: राज्य की लगभग आधी नगरीय जनता पश्चिमी मैदानों में रहती है और पूर्व से पश्चिम नागरिक आबादी में वृद्धि होती जाती है जब कि जनसंख्या का घनत्व इसके विपरीत बढ़ रहा है। विद्युतशक्ति, सिंचाई एवं परिवहन के साधनों की व्यवस्था पहले से अधिक सुव्यवस्थित होने के कारण उद्योग-धंधों, व्यापार एवं कृषिकर्म का विकास पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अधिक संभव हुआ जिससे यह क्षेत्र शीघ्र विकसित हुआ और पूर्वी उत्तर प्रदेश अब भी एक ओर अत्यधिक जनभार और दूसरी ओर अवर्षण-अतिवर्षण-बाढ़-दुर्भिक्ष आदि संकटों से ग्रस्त रहता है। पहाड़ी और बुंदेलखंड क्षेत्र भी अपेक्षाकृत काफी पिछड़े हैं, यद्यपि उनमें विकास के पर्याप्त संसाधन हैं। मिर्जापुर क्षेत्र में तो रिहंद की बहूद्देशीय योजना एवं सीमेंट उद्योग से विकास हो रहा है। सब मिलाकर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी राज्य के विकास में क्षेत्रीय प्रादेशिक विषमता अधिक तेजी से बढ़ी है जिससे असंतोष भी बढ़ा है। राज्य के अधिकांश नगर और कस्बे आद्योगिद्वक नहीं प्रत्युत व्यापारिक सेवा और विभिन्न स्तरीय प्रशासकीय केंद्र मात्र हैं। अब इन्हें अधिक औद्योगिक और विकासमूलक बनाने के प्रयत्न हो रहे हैं।
राज्य में १,१२,६२४ गाँव हैं जिनमें ८५.९७ जनता निवास करती है। इनमें केवल २३ गाँव दस हजार से अधिक; ३०८ गाँव ५,००० से ९,९९९; ३,७९५ गाँव २,००० से ४,९९९ और १२,८०१ गाँव १,००० से १,९९९ जनसंख्यावाले हैं। वस्तुत: अधिकांश गाँवों की आबादी १,००० से कम है और लगभग ६५ गाँव ५०० से कम आबादीवाले हैं। कम आबादी, अधिक बिखराव एवं प्रति व्यक्ति आमदनी कम होने के कारण अभी गाँवों में सर्वत्र आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं। लेकिन विविध पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत पंचायत, ग्राम-उद्योग-विकास, विद्युतीकरण, सिंचाई , विद्यालय, डाकघर आदि की सुविधाओं में क्रमश: वृद्धि हो रही है।
इस राज्य में देश के १६.३२% हिंदू, २२.२७% मुस्लिम, ४.७९% जैन, ३.५६% सिक्ख, १.०४% बौद्ध और लगभग १% ईसाई तथा २% अन्य लोग निवास करते हैं। राज्य की कुल जनसंख्या में ८३.७६% हिंदू, (१९६१ में ८४.६६%) १५.४८% मुस्लिम (१९६१ में १४.६३%), ०.४२% सिक्ख (१९६१ में ०.३८%), ०.१५% ईसाई (१९६१ में १४%) हैं। १९६१-७१ में राज्य की जनसंख्या में १९.७९% वृद्धि (भारत की २४.८०%) हुई किंतु हिंदुओं की संख्या में केवल १८.५२% वृद्धि हुई जब कि अन्य धर्मावलंबियों की वृद्धिगति बहुत अधिक (मुस्लिम २६.७७%, सिक्ख ३०.२९%, ईसाई २९.६८% और बौद्ध २०७.४५%) रही।
शिक्षा, संस्कृति और अन्य प्रगति के कायर्-उत्तर प्रदेश प्राचीन काल से ही शिक्षा का प्रमुख केंद्र रहा है। धर्म, न्याय, विद्या आदि सभी क्षेत्रों में वाराणसी की मान्यता प्राप्त करने के लिए देश के कोने-कोने से विद्वान् यहाँ आते थे। अब राज्य में सभी कवाल नगरों (वाराणसी में तीन) के अतिरिक्त रुड़की, अलीगढ़, गोरखपुर, श्रीनगर (गढ़वाल), नैनीताल, गुरुकुल कांगड़ी (हरिद्वार) तथा रुद्रपुर में स्थित कृषि विश्वविद्यालय तथा प्रस्तावित विश्वविद्यालयों को लेकर कुल चौदह (भारत में लगभग १००) विश्वविद्यालय हो गए हैं। राज्य की प्रमुख भाषा हिंदी है किंतु काफी लोग उर्दू भी जानते-समझते-बोलते हैं। राज्य में कई इंजीनियरी, मेडिकल एवं कृषि तथा अन्य प्रकार के तकनीकी प्रशिक्षण केंद्र भी स्थापित हो गए हैं।
(रा.लो.सिं.; का.ना.सिं.)