उज्जयिनी उज्जयिनी (मध्यप्रदेश का आधुनिक उज्जैन) संबंधी प्रथम उल्लेख बौद्धों के पालि साहित्य से प्राप्त होते हैं। बुद्ध और उनसे कुछ पूर्वकाल के भारत के सोलह महाजनपदों में अवंति का विशिष्ट स्थान था और उज्जयिनी उसकी राजधानी थी। ईसा की छठी सदी पूर्व में उत्तर भारत की राजनीतिक अधिसत्ता और साम्राज्यशक्ति पर अधिकार करने की दौड़ में मगध और अवंति परस्पर प्रतियोगी थे। गौतम बुद्ध का समकालीन उज्जयिनीराज चंड प्रद्योत महासेन अपनी सैनिक शक्ति के लिए प्रसिद्ध था और वत्सराज उदयन से होनेवाले उसके संघर्षों के वर्णन से बौद्ध साहित्य भरा पड़ा है। उज्जयिनी के अनेक राजाओं के मगध पर भी आक्रमण करने का उल्लेख मिलता है। परंतु मगध की बढ़ती हुई शक्ति के सामने अंत में अवंतिराज को झुकना पड़ा और शिशुनाग ने उसे आत्मसात् कर मगध में मिला लिया तथापि उज्जयिनी की निजी महत्ता समाप्त नहीं हुई। उसकी स्थिति पश्चिम और दक्षिण भारत से मध्यप्रदेश की ओर आनेवाले मार्गों पर पड़ती थी और यह उसकी व्यापारिक एवं राजनीतिक विशेषता बनाए रखने में सहायक हुआ। मौर्यकाल में उज्जयिनी एक प्रांतीय राजधानी थी और प्राय: वहाँ राजकुमारों को ही प्रांतीय शासक बनाकर भेजा जाता था। अशोक स्वयं राजगद्दी पाने के पूर्व वहाँ का प्रांतीय उत्तरदायित्व सँभाल चुका था। ईसा की पहली सदी पूर्व में उज्जयिनी मालव गणतंत्र की राजधानी थी। पंडितों का विचार है कि वहाँ के गणमुख्य विक्रमादित्य ने ५७ ई.पू. में शकों की विजय कर संवत् चलाया, जिसे आजकल विक्रम संवत् माना जाता है। कालांतर में पश्चिमी भारत पर अधिकार कर लेनेवाले शक क्षत्रपों से मध्यदेशीय राजाओं के जो युद्ध हुए उनमें भी उज्जयिनी और उसके पार्श्ववर्ती क्षेत्रों का महत्व बना रहा। चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने तो उसे अपनी दूसरी राजधानी ही बना लिया। गुप्तों की बादवाली कुछ सदियों में उज्जयिनी का राजनीतिक स्थान बहुत महत्वपूर्ण नहीं रहा। परंतु परमार वंश और विशेषत: राजा भोज ने उज्जयिनी और धारा नगरी की कीर्ति को एक बार और पुनरुज्जीवित किया। पुन: वह कला, विद्या और संस्कृति का केंद्र बन गई, परंतु उसका यह गौरव अल्पकालिक था और शीघ्र ही समाप्त हो गया। पठान सल्तनत, मुगलकाल अथवा परवर्ती अंग्रेजी युग में उसका कोई विशेष राजनीतिक महत्व नहीं रहा। (वि.पां.)