'उग्र', पांडेय बेचन शमार् का जन्म मिर्जापुर जनपद के अंतर्गत चुनार नामक कसबे में पौष शुक्ल ८, सं. १९५७ वि. को हुआ था। इनके पिता का नाम वैद्यनाथ पांडेय था। ये सरयूपारीण ब्राह्मण थे। ये अत्यंत अभावग्रस्त परिवार में उत्पन्न हुए थे। अत: पाठशालीय शिक्षा भी इन्हें व्यवस्थित रूप से नहीं मिल सकी। अभाव के कारण इन्हें बचपन में राम-लीला में काम करना पड़ा था। ये अभिनय कला में बड़े कुशल थे। बाद में काशी के सेंट्रल हिंदू स्कूल से आठवीं कक्षा तक शिक्षा पाई, फिर पढाई का क्रम टूट गया। साहित्य के प्रति इनका प्रगाढ़ प्रेम लाला भगवानदीन के सामीप्य में आने पर हुआ। इन्होंने साहित्य के विभिन्न अंगों का गंभीर अध्ययन किया। प्रतिभा इनमें ईश्वरप्रदत्त थी। ये बचपन से ही काव्यरचना करने लगे थे। अपनी किशोर वय में ही इन्होंने प्रियप्रवास की शैली में 'ध्रुवचरित्' नामक प्रबंधकाव्य की रचना कर डाली थी।
मौलिक साहित्य की सर्जना में ये आजीवन लगे रहे। इन्होंने काव्य, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि क्षेत्रों में समान अधिकार के साथ श्रेष्ठ कृतियाँ प्रस्तुत की। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उग्र जी ने सच्चे पत्रकार का आदर्श प्रस्तुत किया। वे असत्य से कभी नहीं डरे, उन्होंने सत्य का सदैव स्वागत किया, भले ही इसके लिए उनहें कष्ट झेलने पड़े। पहले काशी के दैनिक 'आज' में 'ऊटपटाँग' शीर्षक से व्यंग्यात्मक लेख लिखा करते थे और अपना नाम रखा था 'अष्टावक्र'। फिर 'भूत' नामक हास्य-व्यंग्य-प्रधान पत्र निकाला। गोरखपुर से प्रकाशित होनेवाले 'स्वदेश' पत्र के 'दशहरा' अंक का संपादन इन्होंने ही किया था। तदनंतर कलकत्ता से प्रकाशित होनेवाले 'मतवाला' पत्र में काम किया। 'मतवाला' ने ही इन्हें पूर्ण रूप से साहित्यिक बना दिया। फरवरी, सन् १९३८ ई. में इन्होंने काशी से 'उग्र' नामक साप्ताहिक पत्र निकाला। इसके कुल सात अंक ही प्रकाशित हुए, फिर यह बंद हो गया। इंदौर से निकलनेवाली 'वीणा' नामक मासिक पत्रिका में इन्होंने सहायक संपादक का काम भी कुछ दिनों तक किया था। वहाँ से हटने पर 'विक्रम' नामक मासिक पत्र इन्होंने पं. सूर्यनारायण व्यास के सहयोग से निकाला। पाँच अंक प्रकाशित होने के बाद ये उससे भी अलग हो गए। इसी प्रकार इन्होंने 'संग्राम', 'हिंदी पंच' आदि कई अन्य पत्रों का संपादन किया। किंतु अपने उग्र स्वभाव के कारण कहीं भी अधिक दिनों तक ये टिक न सके। इसमें संदेह नहीं, उग्र जी सफल पत्रकार थे। ये सामाजिक विषमताओं से आजीवन संघर्ष करते रहे। ये विशुद्ध साहित्यजीवी थे और साहित्य के लिए ही जीते रहे। सन. १९६७ में दिल्ली में इनका देहावसान हो गया।
इनके रचित ग्रंथ इस प्रकार हैं-
नाटक-महात्मा ईसा, चुंबन, गंगा का बेटा, आवास, अन्नदाता माधव महाराज महान्।
उपन्यास-चंद हसीनों के खतूत, दिल्ली का दलाल, बुधुवा की बेटी, शराबी, घंटा, सरकार तुम्हारी आँखों में, कढ़ी में कोयला, जीजीजी, फागुन के दिन चार, जूहू।
कहानी-कुल ९७ कहानियाँ।
काव्य-ध्रुवचरित, बहुत सी स्फुट कविताएँ।
आलोचना-तुलसीदास आदि अनेक आलोचनातमक निबंध।
संपादित-गालिब : उग्र।
उग्र जी की मित्रमंडली में सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', जयशंकर प्रसाद, शिवपूजन सहाय, विनोदशंकर व्यास आदि प्रसिद्ध साहित्यकार थे। दो महाकवि उग्र जी के विशेष प्रिय थे : गोस्वामी तुलसीदास तथा उर्दू के प्रसिद्ध शायर असदुल्ला खाँ गालिब। इनकी रचनाओं के उद्धरण उग्र जी ने अपने लेखों में बहुश: दिए हैं। (ला.त्रि.प्र.)