ईस्ट इंडिया कंपनी जब १४९८ ई. में वास्को दी गामा ने केप ऑव गुड होप द्वारा भारतयात्रा के लिए नया समुद्री मार्ग खोज निकाला, तब संसार के इतिहास में एक क्रांतिकारी परिच्छेद खुला। अब यूरोपीय देशों का भारत तथा पूर्वी द्वीपों से प्रत्यक्ष संपर्क हो गया। स्वभावत: सुदृढ़ नाविक शक्ति के कारण इस मार्ग पर सर्वप्रथम पुर्तगाल का एकाधिकार स्थापित हुआ; किंतु, शीघ्र ही पहले हालैंड और बाद में इंग्लैंड ने पुर्तगाल का गातिरोध आरंभ कर दिया।
इंग्लैंड की ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना, स्पेनी आर्मादा की पराजय के बाद, रानी एलिज़ाबेथ के आज्ञापत्र द्वारा (३१ दिसंबर, १६००) 'द गवर्नर ऐंड मर्चेट्स ऑव लंडन ट्रेडिंग टु दि ईस्ट इंडीज' के नाम से हुई। इसी अज्ञापत्र द्वारा उक्त कंपनी को व्यावयसायिक एकाधिकार भी प्राप्त हुआ। कंपनी के विकास के साथ साथ इंग्लैंड में उसके व्यावसायिक एकाधिकार के विरुद्ध असंगठित और सुसंगठित प्रयास हुए। अंतत: रानी ऐन तथा लार्ड गोडोल्फिन की मध्यस्थता द्वारा आंतरिक विरोधों का समाधान होकर 'द युनाइटेड कंपनी ऑव मर्चेट्स अॅव इंग्लैंड ट्रेडिंग टु दि ईस्ट इंडीज' के रूप में नए विधान के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी का पुनर्निर्माण हुआ। एक प्रकार से इसी को कपंनी का यथोचित श्रीगणेश कहना उपयुक्त होगा।
१६वीं शताब्दी से, अंतरराष्ट्रीय व्यवधान की अनुपस्थिति में, यूरोपीय देशों के पारस्परिक संपर्क व्यावसायिक और औपनिवेशिक प्रतिद्वंद्विता के कारण संघर्ष और संधियों से ही परिचालित होते रहे। इनकी व्यापारिक संस्थाओं की समृद्धि इनके व्यापारिक एकाधिकार पर आधारित थी। यह एकाधिकार (क) शाही फर्मानों द्वारा हासिल किया जा सकता था, शाही अनुमति से, या शक्तिप्रदर्शन द्वारा। जब मुगल साम्राज्य सशक्त था तब ये आज्ञापत्र बादशाह तथा राज्याधिकारी को प्रसन्न कर प्राप्त होते रहे; उनकी अवनति पर फिर ये शक्तिप्रदर्शन द्वारा प्राप्त किए जाने लगे। (ख) इसे प्राप्त करने का दूसरा साधन यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों पर अधिकार जमा लेना था। दोनों ही साधन अनिवार्य थे। किंतु, स्पष्टत: भारत में व्यावसायिक एकाधिकार की सार्थकता उसे ही उपलब्ध हो सकती थी जिसकी सामुद्रिक शक्ति सर्वोपरि हो। अस्तु, व्यवसाय के मूल में संघर्ष अनिवार्य था, शक्ति का भी, कूटनीति का भी।
ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन तक भारत में पुर्तगाली सूर्य अस्ताचल की ओर अग्रसर हो चुका था। पहले हालैंड, फिर हालैंड तथा इंग्लैंड की सम्मिलित नाविक शक्ति के समक्ष उसे नतमस्तक होना पड़ा। जब भारतीय तट के निकट कंपनी ने पुर्तगाली बेड़े को पराजित किया। (१६१२) तब मुगल दरबार में पुर्तगाली प्रभाव का ्ह्रास प्रारंभ हो गया और कंपनी के मानवधन के साथ उसे सूरत में व्यावसायिक केंद्र खोलने का अधिकार भी प्राप्त हुआ। १६५४ में पुर्तगाल को कंपनी के अधिकारों को स्वीकार करना पड़ा; १६६१ में उसने डचों के विरुद्ध सहायता देना भी अंगीकार कर लिया।
कंपनी को अब डचों के विरुद्ध लोहा लेना था। सर्वप्रथम कंपनी का मुख्य ध्येय हिंदेशिया में ही अपना व्यवसाय केंद्रित करना था, जहाँ डच पहले से ही सशक्त थे। एंबीयना के हत्याकांड (१६२३) के बाद यह विचार त्याग कर उसने भारत की ओर रुख किया, जहाँ डच शक्ति क्षीण थी। यूरोप में क्रामवेल कालीन ऐंग्लो डच युद्ध, तथा लुई १४ वें के हालैंड पर आक्रमण से हालैंड की सामुद्रिक शक्ति का ्ह्रास प्रारंभी हो गया। १७५९ में क्लाइव ने डच बेड़े को पूर्णत: पराजित कर दिया।
अब कंपनी के अंतिम प्रतिद्वंद्वी फ्रांसीसी ही शेष रहे। डूप्ले के नेतृत्व में उनके सशक्त और महत्वाकांक्षी होने के अतिरिक्त, एक मुख्य कारण यह भी था कि औरंगजेब की मृत्यु के पूर्व ही गृहयुद्धों और शिवाजी के उत्कर्ष ने मुगल साम्राज्य को लड़खड़ा दिया था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य तीव्र गति से पतनोन्मुख हो चला था। तज्जनित भारतव्यापी अव्यवस्था ने दोनों प्रतिद्वंद्वियों के कार्यक्षेत्र को सुलभ और विस्तृत हो जाने दिया। आस्ट्रियाई उत्तरधिकार के युद्ध के सिलसिले में भारत में प्रथम कर्नाटक युद्ध छिड़ गया। यद्यपि इससे दोनों कंपनियों की स्थिति में विशेष फर्क नहीं पड़ा, तथापि कर्नाटक पर फ्रांसीसी विजय से यह अत्यंत महत्वपूर्ण निष्कर्ष स्थापित हो गया कि यूरोपीय युद्धनीति तथा युद्धसज्जा की अपेक्षा भारतीय युद्धनीति तथा युद्धसज्जा हेय थी और दक्षिण भारतीय राजनीतिक परिस्थिति इतनी खोखली थी कि उसपर विदेशी आधिपत्य संभव था। अस्तु, द्वितीय कर्नाटक युद्ध में दोनों ओर से भारतीय राजनीति और राज्यों में स्वार्थप्रसार के लिए हस्तक्षेप प्रारंभ हो गया। इसी भित्ति पर डूप्ले ने फ्रांसीसी साम्राज्य स्थापित करने की कल्पना की थी, किंतु उसकी असफलता पर साम्राज्य स्थापना के स्वप्न को साकार किया क्लाइव के योगदान से अंग्रेजों ने। नाजुक परिस्थिति में डूप्ले के फ्रांस सरकार द्वारा प्रत्यावाहन ने फ्रांसीसी महत्वाकांक्षाओं पर तुषारपात कर दिया। अंतत: लाली की असफलता, चंद्रनगर की पराजय और वांडीबाश की हार ने फ्रांसीसी प्रतिद्वंद्वी की रीढ़ तोड़ दी। उनके शेष प्रभाव को वेलेज़ली ने ध्वस्त कर दिया।
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का यथोचित विकास टामस रो के आगमन से आरंभ हुआ, जब उसके व्यावसायिक केंद्र सूरत, आगरा, अहमदाबाद तथा भड़ोच में स्थापित हुए। तत्पश्चात् बड़ी योजनावपूर्ण विधि से अन्य केंद्रों की स्थापना हुई। मुख्य केंद्र समुद्री तटों पर ही बसे। उनकी किलेबंदी भी की गई। इस प्रकार मुगल दस्तंदाजी से वे दूर रह सकते थे। संकट के समय उन्हें समुद्री सहयोग सुलभ था। शांति के समय वे वहीं से वांछित दिशाओं में बढ़ सकते थे। इस तरह मचिलीपटणनम् (१६११), बालासोर (१६३१), मद्रास (१६३९), हुगली (१६५१), बंबई (१६६९), तथा कलकत्ता (१६९८) के केंद्रों की स्थापना हुई। बंबई, कलकत्ता, मद्रास विशाल व्यावसायिक केंद्र होने के अतिरिक्त, कंपनी के बड़े महत्वपूर्ण राजनीतिक तथा शक्तिकेंद्र भी बने। इनकी समृद्धि और शक्तिवर्धन से भारतीय व्यवसायियों ने भी, जिनके लिए आयात निर्यात के बड़े लाभप्रद द्वार खुल गए थे, पूर्ण सहयोग दिया। वस्तुत: अंग्रेजों और भारतीय व्यवसायियों का गठबंधन कंपनी की प्रगति में बहुत सहायक सिद्ध हुआ।
वैसे तो शाहजहाँ कालीन गृहयुद्ध तथा शिवाजी के उन्नयन से फैली अनिशिचतता ने कंपनी को स्पष्ट कर दिया था कि व्यापारिक सुरक्षा के लिए शक्तिसंचय आवश्यक है, लेकिन उनकी साम्राज्यवादी धारणा का प्रथम प्रस्फुटन १६८८ में हुआ, जब कंपनी ने प्रसिद्ध प्रस्ताव पास किया कि ''हमारी लगान वृद्धि पर ध्यान देना उतना ही आवश्यक है जितना कि व्यवसाय पर; वही हमारी सेना का पालन करेगी, जब बीसियों दुर्घटनाएँ हमारे व्यवसाय में बाधा डालेंगी, वही भारत में हमें राष्ट्र का रूप देगी। उसके बगैर हम केवल बहुसंख्यक अनधिकारी प्रवेशक मात्र ही रहेंगे...''किंतु, उनकी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा तब असामयिक प्रमाणित हुई जब वे मुगल राज्य से दंडित और अनादृत हुए। उनका संकट तीव्र था, यदि मुगल राज्य द्वारा उनकी पुन:स्थापना न हुई होती। परिस्थिति ने उन्हें फिर शांतिप्रिय बना दिया। १७१७ में मुगल सम्राट् द्वारा कंपनी के सूरमान दूतमंडल को बड़े महत्वपूर्ण व्यावसायिक अधिकार प्राप्त हुए।
यद्यपि दक्षिण में डूप्ले की साम्राज्यवादी योजनाओं से कंपनी को दिशाज्ञान हुआ और फ्रांसीसी पराजय से उनकी सैन्यशक्ति का सिक्का जमा, तथापि उनके साम्राज्य का बीजारोपण बंगाल से ही हुआ। मराठों के आक्रमणों ने पहले ही बंगाल की सेना को क्षीण, खजाने को खोखला, और आंतरिक व्यापार को विच्छित कर दिया था। अयोग्य सिराजुद्दौला अपने उद्दंड स्वभाव और दरबारियों के विश्वासघात से मजबूर हो गया। अंतत: षड्यंत्रकुशल क्लाइव ने, जगत्सेठ और अमीचंद के षड्यंत्र में योगदान दे, प्लासी के युद्ध में (१७५७) सिराज को परास्त कर अंग्रेजी साम्राज्य की नींव में पहली ईट डाल दी। इसके बाद का बंगाल का कुछ वर्षो का इतिहास कालिख से लिखा गया जिसमें अनैतिकता का तांडव हुआ। नवाब मीरकासिम ने कंपनी का गतिरोध किया, किंतु बक्सर के युद्ध में मीरकासिम, अवध के नवाब, तथा मुगल बादशाह की संमिलित शक्ति की पराजय हुई। फलस्वरूप बंगाल, बिहार, उड़ीसा, अवध और दिल्ली कंपनी के प्रभुत्व में आ गए। किंतु, कूटनीजिज्ञ क्लाइव अभी साम्राज्य का उत्तरदायित्व सँभालने को तैयार न था; अस्तु उसने मुगल बादशाह से बंगाल के शासन में हस्तक्षेप करने का कंपनी को वैध अधिकार प्राप्त हो गया।
किंतु अंग्रेजी साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक और उद्धारक हेस्टिग्ज़ ही था। जैसा पनिक्कर का कथन है, यदि पेशवा बाजीराव ने दक्षिण को अंसगठित न किया होता तो मुगल साम्राज्य के उत्तराधिकारी अंग्रेजों की अपेक्षा मराठे ही होते, किंतु, मराठों की पानीपत की पराजय (१७६१) से मराठा संगठन को मर्मातक आघात पहुँचा। दूसरी ओर मराठा,निजाम, हैदरअल्ली और नवाब कर्नाटक की व्यक्तिगत स्वार्थपरता और पारस्परिक वैमनस्य ने अंग्रेजों के विरुद्ध उनका संयुक्त मोर्चा नहीं बनने दिया। यही कंपनी का सबसे बड़ा सौभाग्य था। हेस्टिंग्ज़ ने दूरदर्शितापूर्वक पहले तो नवाब अवध को मित्र बनाकर मराठों के विरुद्ध अपनी सीमारेखा सुदृढ़ की, फिर रुहेला युद्ध में अवध को मराठों का दुश्मन बना दिया। तब विकट परिस्थिति में असीम धैर्य और साहस के साथ मराठों की शक्ति पर सफल आघात किया और हैदरअली की मृत्यु के बाद उसके पुत्र टीपू को संधि करने पर मजबूर किया। शासकीय दृष्टिकोण से भी उसने दीवानी के आडंबर को त्याग कृषिशासन, न्यायशासन, तथा चुंगी शासन को व्यवस्था की रूपरेखा दी।
मेधावी न होते हुए भी उसका उत्तराधिकारी कार्नवालिस अनुशासन ईमानदारी और चारित्रिक दृढ़ता में अछूता था। उसने मनोयोग से शासन का सरंक्षण किया। इस्तमरारी बंदोबस्त की स्थापना कर दुखी बंगाल को समृद्ध बनाया तथा भ्रष्ट ब्रिटिश नौकरशाही को परिष्कृत कर उसे वह प्रतिष्ठा दी जिसके कारण 'ब्रिटिश नौकरशाही के इस्पाती ढाँचे' की नींव पड़ी। उसने टीपू की शक्ति को बहुत कुछ तोड़ दिया। पिट्स इंडिया ऐक्ट द्वारा पार्लमेंट ने कपंनी की नीति और व्यवधान में हस्तक्षेप करने का अधिकार अपने हाथ में ले लिया।
साम्राज्यवादी वेलेज़ली ने युद्ध और नीति से ब्रिटिश साम्राज्य का खूब प्रसार किया। टीपू नष्ट हो गया। पेशवा के वेलेज़ली के संरक्षण में आने से, ओवन के कथनानुसार अब 'भारत में ब्रिटिश साम्राज्य' की अपेक्षा, ब्रिटिश साम्राज्य का भारत हो गया। फिर मराठा सरदारों को अलग अलग पराजित कर उन्हें सहायक संधि करने के लिए मजबूर किया। अवध का विस्तार घटाकर, उसे अपने प्रभुत्व के अंतर्गत कर लिया। सहायक संधि वेलेज़ली के साम्राज्यवादी प्रसारण का अद्भुत यंत्र था, जिसमें फ्रांसीसी प्रभाव का भी भारत से समूल उच्छेद हो गया। फिर मराठों की रही सही शक्ति भी लार्ड हेस्टिंग्ज़ ने तोड़ दी।
अब साम्राज्यप्रसार में कंपनी को पीछे मुड़कर देखने की आवश्यकता नहीं थी। गुरखों की पराजय से कंपनी की उत्तर सीमांतरेखा हिमालय के चरणों तक जा पहुँची। रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद, सिक्खों को पराजित कर पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में संमिलित कर लिया गया। अफगानों के युद्ध से उत्तर पश्चिमी सीमा फिर पहाड़ों से जा टकराई। पूरा बर्मा कंपनी का अधिकृत हुआ और उत्तरपूर्वी सीमांतरेखा सुदृढ़ हुई।
इधर १८१३ के चार्टर ऐक्ट से चीनी व्यापार को छोड़ भारतीय व्यापारिक अधिकार कंपनी से ले लिए गए। १८३३ के चार्टर ऐक्ट से वह अधिकार भी अपहृत हो गया। अब कंपनी विशुद्ध रूप से एक राजनीतिक संस्था थी। कंपनी के साम्राज्यवादी प्रसार के इतिहास में लार्ड बेंटिक का काल राममोहन राय के सहयोग से भारत के सांस्कृतिक जागरण का सूत्रपात ब्रह्मसमाज से आरंभ हुआ और अन्य महत्वपूर्ण सामाजिक सुधार हुए।
कंपनी का अंतिम साम्राज्यवादी स्तंभ था लार्ड डलहौजी, जिसने अपनी विजयों तथा व्यपगत सिद्धांत (डॉक्ट्रिन ऑव लैप्स) के विस्तृत प्रयोग से अनेक राज्यों, राजसी पदवियों तथा पेंशनों का लोप कर दिया। इसके अतिरिक्त उसने अनेक महत्वपूर्ण शासकीय सुधारों से भारत के आधुनिकीकरण में योगदान किया, जैसे ग्रांड ट्रंक रोड का पुनर्निर्माण, रेल, टेलिग्राफ, पोस्ट आफिस तथा केंद्रीय लेजिस्लेटिव कांउंसिल की स्थापना। उसी के प्रयत्नों से विमेन्स तथा रुड़की इंजीनियरिंग कालेज की स्थापना हुई।
कंपनी के शासन का १८५७ की राज्यक्रांति से अंत हुआ। कंपनी के साम्राज्यवाद के विरुद्ध पहले भी अनेक विस्तृत, असंगठित छिटपुट प्रयत्न हो चुके थे, किंतु सन् ५७ के विस्फोट ने अति तीव्र रूप धारण किया। इतिहासकारों में इस विद्रोह की प्रकृति के संबंध में तीव्र मतभेद होते हुए भी, इतना तो निश्चित है कि अंग्रेजी सत्ता को निकालने के लिए भारतीयों का यह प्रथम सामूहिक प्रयत्न था जिसको विशेषतया अवध में विस्तृत जनसहयोग प्राप्त था। यह भी एक विचित्र संयोग था कि अन्य भागों में व्याप्त संघर्ष के अग्रणी प्राय: अवधवासी ही थे। अस्तु, निस्संदेह यह ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध भारतीय संघर्ष का श्रीगणेश था, भारतीय इतिहास का रक्तरंजित पृष्ठ। कंपनी के शासन का अंत १८५८ में हुआ जब ब्रिटिश गवर्नमेंट ने भारतीय साम्राज्य की बागडोर अपने हाथों में सँभाली।
१७५६ से १८५७ तक के कंपनी के साम्राज्यवादी शोषण के इतिहास में सांस्कृतिक पक्ष छोटा होते हुए भी निस्संदेह महत्वपूर्ण है। जैसा पनिक्कर का कथन है, बक, विलियम जोन्स तथा मेकाले सांस्कृतिक चेतना के वे ब्रिटिश प्रतीक हैं जिनसे प्रेरित होकर राजा राममोहन राय, दादाभाई नौरोजी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर तथा दयानंद सरस्वती ऐसे भारतीय नररत्नों के योग से सांस्कृतिक पुनर्जागरण संभव हो सका, राष्ट्रीय आत्मसम्मान जागा, और आधुनिक भारतीयता ने जन्म लिया।
सं.ग्रं.-एस. अहमद खाँ : दि ईस्ट इंडिया ट्रेड इन द ट्वेल्फ़्थ सेंचुरी इन इट्स पोलिटिकल ऐंड इकोनोमिक ऐस्पेक्ट्स; डब्ल्यु. फोस्टर : दि इंगलिश फैक्टरीज़ इन इंडिया १६१८-१६६९। (रा.ना.)