ईसाई धर्मयुद्ध, क्रूसेड अथवा क्रूश युद्ध पश्चिमी यूरोप निवासी ईसाइयों ने १०९५ और १२९१ के बीच अपने धर्म की पवित्र भूमि फिलिस्तीन और उसकी राजधानी जेरूसलम में स्थित ईसा की समाधि का गिरजाघर मुसलमानों से छीनने और अपने अधिकार में करने के प्रयास में जो युद्ध किए उनको क्रूश युद्ध अर्थात् क्रास के निर्मित्त युद्ध कहा जाता है। इतिहासकार ऐसे सात क्रूश युद्ध मानते हैं।

ईसाई मतावलंबियों की पवित्र भूमि और उसके मुख्य स्थान साथ के मानचित्र में दिखाए गए हैं। यात्रा की प्रमुख मंजिल जेरूसलम नगर में वह बड़ा गिरजाघर था जिसे रोम के प्रथम ईसाई सम्राट् कोंस्तांतीन महान् की माँ ने ईसा की समाधि के पास बनवाया था।

यह क्षेत्र रोम के साम्राज्य का अंग था जिसके शासक चौथी सदी से ईसाई मतावलंबी हो गए थे। सातवीं सदी में इस्लाम का प्रचार बड़ी तीव्र गति से हुआ और पैंगबर के उत्तराधिकारी खलीफाओं ने निकट और दूर के देशों पर अपना शासन स्थापित कर लिया। फिलिस्तीन तो पैगंबर की मृत्यु के १० वर्ष के भीतर ही उनके अधीन हो गया था।

मुसलमान ईसा को भी ईश्वर का पैगंबर मानते हैं। साथ ही, अरब जाति में सहिष्णुता भी थी, इससे यहूदियों को अपनी पवित्र भूमि के स्थलों की यात्रा में कोई बाधा या कठिनाई नहीं हुई।

११वीं सदी में यह स्थिति बदल गई। मध्य एशियाई तुर्क जाति की इतनी जनवृद्धि हुई कि वह और फैली तथा इस्लाम धर्म ग्रहण करने से उसकी शक्ति बहुत बढ़ गई। उसकी एक शाखा ने सुलतान महमूद के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया और उसका पश्चिमोत्तर भाग दबा लिया। एक दूसरी शाखा ने (जो अपने एक सरदार सेल्जुक के नाम से प्रसिद्ध है) कई देशों के अनंतर फिलिस्तीन पर भी कब्जा किया और जेरूसलम तथा वहाँ के पवित्र स्थान १०७१ ई. उसके अधीन हो गए। इस समय से ईसाइयों की यात्रा कठिन और आशंकापूर्ण हो गई।

दूसरी ओर पश्चिमी यूरोप में नार्मन जाति की शक्ति का विकास हुआ। नार्मन इंग्लैंड के शासक बन गए; फ्रांस के एक भाग पर वे पहले से ही छाए हुए थे, १०७० के लगभग उन्होंने सिसिली, द्वीप मुसलमानों से जीता और उससे मिला हुआ इटली का दक्षिणी भाग भी दबा लिया। फलस्वरूप, भूमध्यसागर, जो उत्तरी अफ्रीका के मुसलमान शासकों के दबाव में था, इस समय के ईसाइयों के लिए खुल गया।

इटली के कई स्वंतत्र नगर (जिनमें वे वेनिस, जेनोआ और पीसा प्रमुख थे) वाणिज्य में कुशल थे और अब और भी उन्नतिशील हो गए। उनकी नौसेना बढ़ी और ईसाइयों को अपनी पवित्र भूमि के लिए नया मार्ग भी उपलब्ध हो गया।

पर ईसाई में प्रबल फूट भी थी। ३९५ ई. में रोमन साम्राज्य दो भागों में बँट गया था। पश्चिमी भाग, जिसकी राजधानी रोम थी, ४७६ में उत्तर की बर्बर जातियों के आक्रमण से टूट गया। पर पोप का प्रभाव स्थिर रहा और इन जातियों के ईसाई हो जाने पर बहुत बढ़ गया; यहाँ तक कि पश्चिमी यूरोप पर पोप का निर्विवाद आधिपत्य था। इसके शासक पोप से आशीर्वाद प्राप्त करते थे और यदि पोप अप्रसन्न होकर किसी शासक का बहिष्कार करता, तो उसे कठिन प्रायश्चित्त करना होता था और प्रचुर धन दंड के रूप में पोप को देना पड़ता था। इस क्षेत्र के शासकों में से एक सम्राट् निर्वाचित होता था जो पोप का सहकारी माना जाता था और पवित्र रोमन सम्राट् कहलाता था।

ईसाई जगत् के पूर्वी भाग की राजधानी कुस्तुंतुनियाँ (कोंस्तांतीन नगर) में थी और वहाँ ग्रीक (यूनानी) जाति के सम्राट् शासन करते थे। पूर्वी यूरोप के अतिरिक्त उनका राज्य एशिया माइनर पर भी था। तुर्को ने एशिया माइनर के अधिकांश पर कब्जा कर लिया था, केवल राजधानी के निकट का और कुछ समुद्रतट का क्षेत्र सम्राट् के पास रह गया था। सम्राट् ने इस संकट में पश्चिमी ईसाइयों की सहायता माँगी। रोम का पोप स्वयं ही पवित्र भूमि को तुर्को से मुक्त कराने का इच्छुक था। एक प्रभावशाली प्रचारक (आमिया निवासी पीतर संन्यासी) ने फ्रांस और इटली में धर्मयुद्ध के लिए जनता को उत्साहित किया। फलस्वरूप लगभग छह लाख क्रूशधर प्रस्तुत हो गए। ईसाई जगत् के पूर्वी और पश्चिमी भागों में धार्मिक मतभेद इतना था कि १०५४ में रोम के पोप और कोस्तांतीन नगर के पात्रिआर्क (जो पूर्वी ईसाइयों का अध्यक्ष था) ने एक दूसरे को जातिच्युत कर दिया था। पश्चिम का उन्नतिशील राजनीतिक दल (अर्थात् नार्मन जाति) पूर्वी सम्राट् को, जो यूनानी था, निकम्मा समझता था। उसकी धारणा थी कि इस साम्राज्य में नार्मन शासन स्थापित होने पर ही तुर्की से युद्ध में जीत हो सकती है। इन विरोधों तथा मतभेदों का क्रूश युद्धों के इतिहास पर गहरा प्रभाव पड़ा।

प्रथम क्रूश युद्ध (१०९६-१०९९)-इस युद्ध में दो प्रकार के क्रूशधरों ने भाग लिया। एक तो फ्रांस, जर्मनी और इटली के जनसाधारण, जो लाखों की संख्या में पोप और संन्यासी पीतर की प्रेरणा से (बहुतेरे) अपने बाल बच्चों के साथ गाड़ियों पर समान लादकर पीतर और अन्य श्रद्धोन्मत्त नेताओं के पीछे पवित्र भूमि की ओर मार्च, १०९६ में थलमार्ग से चल दिए। बहुतेरे इनमें उद्दंड थे और विधर्मियों के प्रति तो सभी द्वेषरत थे। उनके पास भोजन सामग्री और परिवहन साधन का अभाव होने के कारण वे मार्ग में लूट खसोट और यहूदियों की हत्या करते गए जिसके फलस्वरूप बहुतेरे मारे भी गए। इनको यह प्रवृत्ति देखकर पूर्वी सम्राट् ने इनके कोंस्तांतीन नगर पहुँचने पर दूसरे दल की प्रतीक्षा किए बिना बास्फोरस के पार उतार दिया। वहाँ से बढ़कर जब वे तुर्को द्वारा शासित क्षेत्र में घुसे तो, मारे गए।

दूसरा दल पश्चिमी यूरोप के कई सुयोग्य सामंतों की सेनाओं का था जो अलग अलग मार्गो से कोंस्तांतीन पहुँचे। इनके नाम इस प्रकार हैं:-

(१) लरेन का ड्यूक गाडफ्रे और उसका भाई बाल्डविन; (२) दक्षिण फ्रांस स्थित तूलू का ड्यूक रेमों; (३) सिसिली के विजेता नार्मनों का नेता बोहेमों (जो पूर्वी सम्राट् का स्थान लेने का इच्छुक भी था)। इनकी यात्रा के मार्ग मानचित्र में दिखाए गए हैं। पूर्वी सम्राट् ने इन सेनाओं को मार्गपरिवहन इत्यादि की सुविधाएँ और स्वयं सैनिक सहायता देने के बदले इनसे यह प्रतिज्ञा कराई कि साम्राज्य के भूतपूर्व प्रदेश, जो तुर्को ने हथिया लिए थे, फिर जीते जाने पर सम्राट् को दे दिए जाएँगे। यद्यपि इस प्रतिज्ञा का पूरा पालन नहीं हुआ और सम्राट् की सहायता यथेष्ट नहीं प्राप्त हुई, फिर भी क्रूशधर सेनाओं को इस युद्ध में पर्याप्त सफलता मिली।

(कोंस्तांतीन से आगे इन सेनाओं का मार्ग मानचित्र में अंकित है।) सर्वप्रथम उनका सामना होते ही तुर्को ने निकाया नगर और उससे संबंधित प्रदेश सम्राट् को दे दिए। फिर सेना ने दोरीलियम स्थान पर तुर्को को पराजित किया ओर वहाँ से अंतिओक में पहुँचकर आठ महीने के घेरे के बाद उसे जीत लिया। इससे पहले ही बाल्डविन ने अपनी सेना अलग कर के पूर्व की ओर अर्मीनिया के अंतर्गत एदेसा प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया।

अंतिओक से नवबंर, १०९८ में चलकर सेनाएँ मार्ग में स्थित त्रिपोलिस, तीर, तथा सिज़रिया के शासकों से दंड लेते हुए जून, १०९९ में जेरूसलम पहुँची और पाँच सप्ताह के घेरे के बाद जुलाई, १०९९ में उसपर अधिकार कर लिया। उन्होंने नगर के मुसलमान और यहूदी निवासियों की (उनकी स्त्रियों और बच्चों के साथ) निर्मम हत्या कर दी।

इस विजय के बाद क्रूशधरों ने जीते हुए प्रदेशों में अपने चार राज्य स्थापित किए (जो मानचित्र में दिखाए गए हैं)। पूर्वी रोमन सम्राट् इससे अप्रसन्न हुआ पर इन राज्यों को वेनिस, जेनोआ इत्यादि समकालीन महान् शक्तियों की नौसेना की सहायता प्राप्त थी जिनका वाणिज्य इन राज्यों के सहारे एशिया में फैलता था। इसके अतिरिक्त धर्मसैनिकों के दो दल, जो मठरक्षक (नाइट्स टेंप्लर्स) और स्वास्थ्यरक्षक (नाइट्स हास्पिटलर्स) के नाम से प्रसिद्ध हैं, इनके सहायक थे। पादरियों और भिक्षुओं के समान ये धर्मसैनिक पोप से दीक्षा पाते थे और आजीवन ब्रह्मचर्य रखने तथा धर्म, असहाय स्त्रियों और बच्चों की रक्षा करने की शपथ लेते थे।

द्वितीय क्रूश युद्ध ११४७-११४९-सन् ११४४ में मोसल के तुर्क शासक इमाद उद्दीन ज़ंगी ने एदेसा को ईसाई शासक से छीन लिया। पोप से सहायता की प्रार्थना की गई और उसके आदेश से प्रसिद्ध संन्यासी संत बर्नार्ड ने धर्मयुद्ध का प्रचार किया।

इस युद्ध के लिए पश्चिमी यूरोप के दो प्रमुख राजा (फ्रांस के सातवें लुई और जर्मनी के तीसरे कोनराड) तीन लाख की सेना के साथ थलमार्ग से कोंस्तांतीन होते हुए एशिया माइनर पहुँचे। इनके परस्पर वैमनस्य और पूर्वी सम्राट् की उदासीनता के कारण इन्हें सफलता न मिली। जर्मन सेना इकोनियम के युद्ध में ११४७ में परास्त हुई और फ्रांस की अगले वर्ष लाउदीसिया के युद्ध में। पराजित सेनाएँ समुद्र के मार्ग से अंतिओक होती हुई जेरूसलम पहुँची और वहाँ के राजा के सहयोग से दमिश्क पर घेरा डाला, पर बिना उसे लिए हुए ही हट गई। इस प्रकार यह युद्ध नितांत असफल रहा।

तृतीय क्रूश युद्ध ११८८-११९२-इस युद्ध का कारण तुर्की की शक्ति का उत्थान था। सुलतान सलाहउद्दीन (११३७-११९३) के नेतृत्व में उनका बड़ा साम्राज्य बन गया जिसमें उत्तरी अफ्रीका में मिस्र, पश्चिमी एशिया में फ़िलिस्तीन, सीरिया, अरब, ईरान तथा इराक सम्मिलित थे। उसने ११८७ में जेरूसलम के ईसाई राजा को हत्तिन के युद्ध में परास्त कर बंदी कर लिया और जेरूसलम पर अधिकार कर लिया। समुद्रतट पर स्थित तीर पर उसका आक्रमण असफल रहा और इस बंदर का बचाव ११८८ में करने के बाद ईसाई सेना ने दूसरे बंदर एकर को सलाहउद्दीन से लेने के लिए उसपर अगस्त, ११८९ में घेरा डाला जो २३ महीने तक चला। सलाहउद्दीन ने घेरा डालनेवालों को घेरे में डाल दिया। जब ११९१ के अप्रैल में फ्रांस की सेना और जून में इंग्लैंड की सेना वहाँ पहुँची तब सलाहउद्दीन ने अपनी सेना हटा ली और इस प्रकार जेरूसलम के राज्य में से (जो ११९९ में स्थापित चार फिरंगी राज्यों में प्रमुख था) केवल समुद्रतट का वह भाग, जिसमें ये बंदर (एकर तथा तीर) स्थित थे, शेष रह गया।

इस युद्ध के लिए यूरोप के तीन प्रमुख राजाओं ने बड़ी तैयारी की थी पर वह सहयोग न कर सके और पारस्परिक विरोध के कारण असफल रहे।

प्रथम जर्मन सम्राट् फ्रेडरिक लालमुँहा (बार्बरोसा), जिसकी अवस्था ८० वर्ष से अधिक थी, ११८९ के आरंभ में ही अपने देश से थलमार्ग से चल दिया और एशिया माइनर में तुर्की क्षेत्र में प्रवेश करके उसने उसका कुछ प्रदेश जीत भी लिया, पर अर्मीनिया की एक पहाड़ी नदी को तैरकर पार करने में डूबकर जून, ११९० में मर गया। उसकी सेना के बहुत सैनिक मारे गए, बहुत भाग निकले; शेष उसके पुत्र फ्रेडरिक के साथ एकर के घेरे में जा मिले।

दूसरा फ्रांस का राजा फिलिप ओगुस्तू अपनी सेना जेनोआ के बंदर से जहाजों पर लेकर चला, पर सिसिली में इंग्लैंड के राजा से (जो अब तक उसका परम मित्र था) विवादवश एक वर्ष नष्ट करके अप्रैल, ११८१ में एकर पहुँच पाया।

इस क्रूश युद्ध का प्रमुख इंग्लैंड का राजा रिचर्ड प्रथम था, जो फ्रांस के एक प्रदेश का ड्यूक भी था और अपने पिता के राज्यकाल में फ्रांस के राजा का परम मित्र रहा था। इसने अपनी सेना फ्रांस में ही एकत्र की और वह फ्रांस की सेना के साथ ही समुद्रतट तक गई। इंग्लैंड का समुद्री बेड़ा ११८९ में ही वहाँ से चलकर मारसई के बंदर पर उपस्थित था। सेना का कुछ भाग उसपर और कुछ रिचर्ड के साथ इटली होता हुआ सिसिली पहुँचा, जहाँ फ्रांस नरेश से अनबन के कारण लगभग एक वर्ष नष्ट हुआ था। वहाँ से दोनों अलग हो गए और रिचर्ड ने कुछ समय साइप्रस का द्वीप जीतने और अपना विवाह करने में व्यव किया। इस कारण वह फ्रांस के राजा से दो महीने बाद एकर पहुँचा (तीनों राजाओं की सेनाओं का मार्ग मानचित्र में दिखाया गया है)। एकर के मुक्त हो जाने पर राजाओं का मतभेद भड़क उठा। फ्रांस का राजा अपने देश लौट गया। रिचर्ड ने अकेले ही तुर्को के देश मिस्र की ओर बढ़ने का प्रयास किया जिसमें उसने नौ लड़ाइयाँ लड़ीं। वह जेरूसलम से छह मील तक बढ़ा पर उसपर घेरा न डाल सका। वहाँ से लौटकर उसने समुद्रतट पर जफ्फा में सितंबर, ११९२ में सलाहउद्दीन से संधि कर ली जिससे ईसाई यात्रियों को बिना रोक टोक के यात्रा करने की सुविधा दे दी गई और तीन वर्ष के लिए युद्ध को विराम दिया गया।

युद्धविराम की अवधि के उपरांत जर्मन सम्राट् हेनरी षष्ठ ने फिर आक्रमण किया और उसकी सहायता के लिए दो सेनाएँ समुद्री मार्ग से भी आई। पर सफलता न मिली।

चतुर्थ क्रूश युद्ध १२०२-१२०४-इस युद्ध का प्रवर्तक पोप इन्नोसेंत तृतीय था। उसकी प्रबल इच्छा ईसाई मत के दोनों संप्रदायों (पूर्वी और पश्चिमी) को मिलाने की थी जिसके लिए वह पूर्वी सम्राट् को भी अपने अधीन करना चाहता था। पोप की शक्ति इस समय चरम सीमा पर थी। वह जिस राज्य को जिसे चाहता, दे देता था। उसकी इस नीति को उस समय नौसेना और वाणिज्य में सबसे शक्तिशाली राज्य वेनिस और नार्मन जाति की भी सहानुभूति और सहयोग प्राप्त था। पोप का उद्देश्य इस प्रकार ईसाई जगत् में एकता उत्पन्न करके मुसलमानों को पवित्र भूमि से निकाल देना था। पर उसके सहायकों का लक्ष्य राजनीतिक और आर्थिक था।

सन् १२०२ में पूर्वी सम्राट् ईजाक्स को उसके भाई आलेक्सियस ने अंधा करके हटा दिया था और स्वयं सम्राट् बन बैठा था। पश्चिमी सेनाएँ समुद्र के मार्ग से कोंस्तांतान पहुँचा और आलेक्सियस को हराकर ईजाक्स की गद्दी पर बैठाया। उसकी मृत्यु हो जाने पर कोंस्तांतीन पर फिर घेरा डाला गया और विजय के बाद वहाँ बल्डिविन का, जो पश्चिमी यूरोप में फ़्लैंडर्स (बेल्जियम) का सामंत था, सम्राट् बनाया गया। इस प्रकार पूर्वी साम्राज्य भी पश्चिमी फिरंगियों के शासन में आ गया और ६० वर्ष तक बना रहा।

इस क्रांति के अतिरिक्त फिरंगी सेनाओं ने राजधानी को भली प्रकार लूटा। वहाँ के कोष से धन, रत्न और कलाकृतियों लेने के अतिरिक्त प्रसिद्ध गिरजाघर संत साफिया को भी लूटा जिसकी छत में, कहा जाता है, एक सम्राट् ने १८ टन सोना लगाया था।

बालकों का धर्मयुद्ध (१२१२)-सन् १२१२ में फ्रांस के स्तेफ़ाँ नाम के एक किसान ने, जो कुछ चमत्कार भी दिखाता था, घोषणा की कि उसे ईश्वर ने मुसलमानों को परास्त करने के लिए भेजा है और यह पराजय बालकों द्वारा होगी। इस प्रकार बालकों के धर्मयुद्ध का प्रचार हुआ, जो एक विचित्र घटना है। ३०,००० बालक बालिकाएँ , जिनमें से अधिकांश १२ वर्ष से कम अवस्था के थे, इस काम के लिए सात जहाजों में फ्रांस के दक्षिणी बंदर मारसई से चले। उन्हें समुद्रयात्रा पैदल ही संपन्न होने का विश्वास दिलाया गया। दो जहाज तो समुद्र में समस्त यात्रियों समेत डूब गए, शेष के यात्री सिकंदरिया में दास बनाकर बेच दिए गए। इनमें से कुछ १७ वर्ष उपरांत संधि द्वारा मुक्त हुए।

इसी वर्ष एक दूसरे उत्साहों ने २०,००० बालकों का दूसरा दल जर्मनी में खड़ा किया और वह उन्हें जनाआ तक ले गया। वहाँ के बड़े पादरी ने उन्हें लौट जाने का परामर्श दिया। लौटते समय उनमें से बहुत से पहाड़ों की यात्रा में मर गए।

पाँचवाँ क्रूश युद्ध-१२२८-२९ में सम्राट् फ्रेडरिक द्वितीय ने मिस्र के शाक से संधि करके, पवित्र भूमि के मुख्य स्थान जरूसलम बेथलहम, नज़रथ, तोर और सिदान तथा उनके आसपास के क्षेत्र प्राप्त करके अपने को जेरूसलम के राजपद पर आभीषक्त किया।

छठा क्रूश युद्ध १२४८-५४-कुछ ही वर्ष उपरांत जेरूसलम फिर मुसलमानों ने छीन लिया। जलालुद्दीन, ख्वारज्म़शाह, जो खोबा का शासक था, चगेज़ खाँ से परास्त होकर, पश्चिम गया और ११४४ में उसने जेरूसलम लेकर वहाँ के पवित्र स्थानों की क्षति पहुँचाई और निवासियों की हत्या की।

इस पर फ्रांस के राजा लुई नवें ने (जिसे संत की उपाधि प्राप्त हुई) १२४८ और ५४ के बीच दो बार इन स्थानों को फिर से लेने का प्रयास किया। फ्रांस से समुद्रमार्ग से चलकर वह साइप्रस पहुँचा और वहाँ से १२४९ में मिस्र में दमिएता ले लिया, पर १२५० में मसूरी की लड़ाई में परास्त हुआ और अपनी पूरी सेना के साथ उसने पूर्ण आत्मसमर्पण किया। चार लाख स्वर्णमुद्रा का उद्धारमूल्य चुकाकर, दामएता वापस कर मुक्ति पाई। इसके उपरांत चार वर्ष उसने एकर के बचाव का प्रयास किया, पर सफल न हुआ।

सप्तम क्रूश युद्ध १२७०-७२-जब १२६८ में तुर्को ने ईसाइयों से अंतिअकि ले लिया, तब लुई नव ने एक और क्रूश युद्ध किया। उसकी आशा थी कि उत्तरी अफ्रीका में त्यूानस का राजा ईसाई हो जाऐगा। वहाँ पहुँकर उसने काथेज १२७० मेलियो, पर थोड़े ही दिनों में प्लेग से मर गया। इस युद्ध को इसका मृत्यु के बाद इंग्लैंड के राजकुमार एडवर्ड ने, जो आगे चलकर राजा एडवर्ड प्रथम हुआ, जारी रखा। परंतु उसने अफ्रीका में और कोई कार्यवाही नहीं की। वह सिसला होता हुआ। फिलिस्तीन पहुँचा। उसने एकर का घेरा हटा दिया ओर मुसलमानों को दस वर्ष के लिए युद्धविराम करने को बाध्य किया।

एकर ही एक स्थान फिलिस्तीन में ईसाइयों के हाथ में बचा था और वह अब उनके छोटे से राज्य की राजधानी थी। १२९१ में तुर्को ने उसे भी ले लिया।

धर्मयुद्धों का प्रभाव-इन धर्मयुद्धों के इतिहास में इस बात का ज्वलंत प्रमाण मिलता है कि धार्मिक अंधविश्वास और कट्टरता को उत्तेजित करने से मुनष्य में स्वयं विचार करने की शक्ति नहीं रह जाती। कट्टरता के प्रचार से ईसाइयत जैसे शंतिपूर्ण मत के अनुयायी भी कितना अत्याचार और हत्याकांड कर सकते हैं, यह इससे प्रकट है। जो धर्मसैनिक यात्रियों की चिकित्सा के लिए अथवा मंदिर की रक्षा के लिए दीक्षित हुए, वे यहाँ के वातावरण में संसारी हो गए। वे महाजनी करने लगे।

इन युद्धों से यूरोप को बहुत लाभ भी हुआ। बहुतेरे कलहप्रिय लोग इन युद्धों में काम आए जिससे शासन का काम सुगम हो गया। युद्धों में जानेवाले यूरोपीय पूर्व के निवासियों के संपर्क में आए और उनसे उन्होंने बहुत कुछ सीखा , क्योंकि इनके रहन सहन का स्तर यूरोप से बहुत ऊँचा था। वाणिज्य को भी बहुत प्रोत्साहन मिला और भूमध्यसागर के बंदरगाह, विशेषत: वेनिस, जेनीआ, पीसा की खाड़ी की उन्नति हुई।

पूर्वी साम्राज्य, जो ११वीं शताब्दी में समाप्त होने ही को था, ३०० वर्ष और जीवित रहा। पोप का प्रभुत्व और भी बढ़ गया और साथ ही राजाओं की शक्ति बढ़ने से दोनों में कभी कभी संघर्ष भी हुआ। (प.नं.)