ईशावास्य उपनिषदों में यही उपनिषद् सर्वप्रथम गिना जाता है। इस उपनिषद् के आरंभ में यह वाक्य आता है-'ईशावास्यमिदं सर्वम्; और इसी आद्य पद के कारण यह ईशोपनिषद् अथवा ईशावास्योपनिषद् के नाम से विख्यात है। यह शुक्लयजुर्वेद की मंत्रसहिंता का ४०वाँ अध्याय है। उपनिषद् सामान्यत: ब्राह्मणों के अंतर्गत 'आरण्यक' के भाग हैं, परंतु यही एक उपनिषद् ऐसा है जो ब्राह्मणों से भी पूर्ववर्ती माने जानेवाले संहिताभाग का अंश है। इस दृष्टि से यह आद्य उपनिषद् होने का गौरव धारण करता है। इस उपनिषद् में केवल १८ मंत्र हैं जिन्हें वेदांत का निचोड़ मानने में किसी प्रकार का मतभेद नहीं है।
इस उपनिषद् का तात्पर्य ज्ञान के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति है अथवा ज्ञान-कर्म-समुच्चय के द्वारा, इस विषय में आचार्यों में पर्याप्त मतभेद है। इस मतभेद को दूर करने के लिए आदिम दोनों मंत्र नितांत जागरूक हैं। प्रथम मंत्र में इस जगत् को त्याग के द्वारा भोगने तथा दूसरे के धन पर लोभदृष्टि न डालने का उपदेश है (तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्यस्विद्धनम्) और दूसरे मंत्र में इसी प्रकार निष्काम भाव से कर्म करने तथा जीवन बिताने का स्पष्ट उपदेश है :
'कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:। एवं त्वयि नान्यथेयोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।' इस मंत्र का स्पष्ट तात्पर्य निष्काम कर्म की उपासना है। श्रीमद्भगवद्गीता का जीवनदर्शन इसी मंत्र के विपुल भाष्य पर आश्रित माना जाता है। इसके अनंतर आत्मा के स्वरूप का विवेचन किया गया है (मंत्र ४) तथा एकत्व दृष्टि रखनेवाले तत्ववेत्ता के जीवन्मुक्त स्वरूप का भी प्रतिपादन किया गया है (मंत्र ५)। इस उपनिषद् में संभूति तथा असंभूति, विद्या तथा अविद्या के परस्पर भेद का ही स्पष्ट निदर्शन है। अंत में आदित्यजगत पुरुष के साथ आत्मा की एकता प्रतिपादित कर कर्मी और उपासक को संसार के दु:खों से कैसे मोक्ष प्राप्त होता है, इसका भी निर्देश किया गया है। फलत: लघुकाय होने पर भी यह उपनिषद् अपनी नवीन दृष्टि के कारण उपनिषदों में नितांत महनीय माना गया है। (ब.उ.)