इस्लामी संस्थाएँ मुस्लिम जगत् में प्रचलित संस्थाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है : विशुद्ध धार्मिक संस्थाएँ, धर्मनिरपेक्ष संस्थाएँ तथा अंशत: धार्मिक संस्थाएँ।

इस्लाम की विशुद्ध धार्मिक संस्थाओं के ये पाँच अरकान या स्तंभ हैं : ईश्वर में विश्वास, नित्य पाँच वक्त की नमाज़, जीवन में एक बार मक्का की तीर्थयात्रा, रोजा तथा कक़ात या आय का २।। प्रतिशत दान। प्रार्थना में सामूहिकता के तत्व को इस्लाम ईसाई मत से भी अधिक मान्यता प्रदान करता है। मस्जिद के अंदर अब भी पैगंबर द्वारा प्रतिपादित वर्गरहित समाज सुरक्षित रह सका है। प्रत्येक शुक्रवार और विशेष रूप से प्रत्येक ईद की नमाज पर प्रत्येक मुसलमान की उपस्थिति वांछित होती है।

मुसलमानों की सबसे प्रमुख धर्मनिरपेक्ष संस्था उनकी विशिष्ट प्रकार की राजतंत्रात्मक शासनप्रणाली है। शासक अपने पुत्र या अपने भाई को अपना उत्तराधिकारी घोषित करता था, किंतु यह नियुक्ति शासक की मृत्यु के पश्चात् राज्य के उच्च पदाधिकारियों की स्वीकृति के पश्चात् ही कार्यान्वित हो सकती थी। दूसरे, राज्य के किसी भी पदाधिकारी को शासक पदच्युत कर सकता था। तीसरे, राजकीय कर्मचारियों के विवाह और उत्तराधिकार संबंधी विषय शरियत से नियंत्रित न होकर राजकीय नियमों या ज़वाबित द्वारा नियंत्रित होते थे। यद्यपि अयोग्य मुसलमान शासकों का दु:खद अंत हुआ, तथापि मध्यकालीन योग्य मुसलमान शासकों की शक्तियाँ किसी भी जाति के अन्य शासकों से अधिक थीं।

इस्लाम राजतंत्र और पुरोहित प्रथा दोनों का विरोधी है। किंतु राज्य को कुछ आंशिक धार्मिक कर्तव्यों का पालन करना होता है और इसके लिए राजा अपनी इच्छानुसार धार्मिक विद्धानों की नियुक्ति करता था और उनको निकाल भी सकता था। ऐसे कर्मचारियों में प्रमुख काजी हुआ करते थे। इनकी नियुक्ति मुकदमों की संख्या के अनुसार विभिन्न क्षेत्रों में हुआ करती थी। काजी केवल मुकदमों का निर्णय करता था, वह अभियोग नहीं लगा सकता था। अत: शासक अमीर-इ-अदल नामक कर्मचारी की नियुक्ति करता था जिसका कर्तव्य अपराधियों के विरुद्ध अभियोग लगाना होता था। सामाजिक नैतिकता, जैसे सही नाप तौल की इकाइयों की व्यवस्था आदि, की सुरक्षा के लिए मुहतसिब नामक कर्मचारियों की नियुक्ति होती थी। सद्र नामक कर्मचारी धार्मिक विषयों, जैसे मसजिद और खैराती संस्थाओं आदि की देखभाल करते थे। इस्लाम और रोम की न्यायपद्धति का एक अन्य विशिष्ट पदाधिकारी मुफ्ती (न्यायवेत्ता या न्यायशास्त्री) होता था। सैद्धांतिक रूप से कोई भी मुसलमान किसी भी मामले में अपनी राय (फतवा) दे सकता है। किंतु इस नियम में राज्य ने हस्तक्षेप करके यह घोषित किया कि यह अधिकार केवल विद्धानों को ही प्राप्त होगा और वास्तव में इसका तात्पर्य यह था कि राज्य या तो अपने पक्ष के फतवों को स्वीकार करेगा या उन फतवों को स्वीकार करेगा जो विशुद्ध रूप से तटस्थ प्रकृति के होंगे।

उपर्युक्त सभी पदारधिकारी बाह्य विद्वान् (उल्मा-इ-ज़ाहिरी) माने जाते थे और यह विश्वास किया जाता था कि इन पदाधिकारियों ने अपनी आत्मा को राज्य के हाथों बेच दिया है और ये सब भ्रष्ट और बेईमान हैं। इस प्रकार भारत के मुसलमान और हिंदू दोनों ही उन महात्माओं का आदर करते रहे हैं जो राज्य के कार्यों से तटस्थ रहे। किंतु भारत में इस्लाम के प्रादुर्भाव की छह लंबी शताब्दियों में एक भी ऐसा महान् काजी अवतरित न हो सका जिसको आनेवाली पीढ़ियाँ याद रखतीं। (मु.ह.)