इस्लामी विधि या शरियत उस कानून का नाम है जो मुसलमानों के विभिन्न वर्गों तथा उपवर्गों से विकसित हुआ है। शरियत संबंधी विज्ञान को फिक़ (न्यायशास्त्र) कहते हैं। इस संबंध में सभी न्यायशास्त्री एकमत हैं कि कुरान तथा पैगंबर के अधिकृत वचन (हदीस) ही शरियत के मूलाधार हैं; किंतु इजमा-ए-उम्मत (जनमत), राय (धारणा या युक्ति), इस्तिहसान (जनहित), इस्तिसलाह (सुधार) तथा उर्फ (रिवाज़) आदि की वैधानिक मान्यता के संबंध में उनमें मतभेद है। सुन्नी न्यायशास्त्र की चार प्रमुख पद्धतियों-हनफी, मालिफी, शाफ़ई तथा हंबली-की स्थापना महान् अब्बासी खलीफ़ाओं के शासनकाल (७५०-८४२) में हुई थी। इसके पश्चात् यह मान लिया गया था कि इजतिहाद या नवीन अर्थप्रतिपादन का द्वार बंद हो गया है और पीछे आनेवाले युग के बड़े लेखकों-जैसे मरघिनान के इमाम बुरहानुद्दीन (मृत्यु सन् ११९०)-ने इस सहज क्रम को स्वीकार किया। जिन बातों पर न्यायशास्त्रियों में मतैक्य था उनको उन्होंने ज्यों का त्यों लिपिबद्ध कर दिया, किंतु जिन विषयों पर न्यायपंडित असहमत थे वहाँ उन्होंने विभिन्न न्यायशास्त्रियों (फिक़) के व्यक्तिगत विचारों को अलग-अलग लिपिबद्ध किया और निर्णय न्यायाधीश या काज़ी पर छोड़ दिया। सुन्नी काजी इस बात के लिए स्वतंत्र था कि किसी भी मान्य न्यायशास्त्री के विचारानुसार निर्णय दे अथवा नहीं।
इस्लामी शरियत की पुस्तकों के वर्ण्य विषय को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-इबादत (प्रार्थना या अभ्यर्थना), मुआमिलात (असैनिक विषय), तथा उकूबात (दंड)।
मुसलमानी असैनिक विधि युक्ति और सहज बुद्धि पर आधारित होने के कारण निस्संदेह मध्य युग की प्रचलित पद्धतियों में सर्वश्रेष्ठ थी। पश्चिमी अफ्रीका से चीन की सीमा तक व्याप्त इस्लाम की एकरूपता भी इसके लिए वरदान सिद्ध होती थी। एक काजी का निर्णय, देशों की सीमा की परवाह न करके सभी मुसलमान काजियों द्वारा मान्य होता था; यहाँ तक कि ये निर्णय गैरमुसलमान शासकों द्वारा मुसलमान प्रजा के लिए नियुक्त किए गए क़ाजियों तक को स्वीकार होता था।
शरियत के धर्म संबंधी सिद्धांतों को मुसलमानी धार्मिक चेतना ने भौतिक और अधार्मिक कहकर अस्वीकार कर दिया। अपराध संबंधी शरियत की विधि, जिनमें हुदूद अर्थात् कुरान में दी गई दंडव्यवस्था भी शामिल है, लोकप्रिय न हो सकी, और यह दंडव्यवस्था असंभव सी सिद्ध हुई क्योंकि व्यावहारिक रूप से गवाही के कानून को मानकर शरियत अपराध को सिद्ध कर पाना असंभव था।
मध्ययुग में शरियत की विधि उर्फ (रिवाज़) तथा राजकीय विधि (जवाबित, आइन, तोरह) में विरोध रहा, व्यवहार में शरियत की विधि उपर्युक्त दोनों प्रकार की विधियों के अधीन रहती थी। राजनीतिक संस्थाओं और सामाजिक विधि पर भी शरियत मौन थी।
किसी भी मुसलमान राष्ट्र के लिए यह संभव नहीं हो सका है कि वह शरियत को आधुनिक आवश्यकताओं और संस्थाओं, जैसे बैंक, बीमा, राष्ट्रीय ऋण, श्रमिकों के मुआविजे आदि के अनुरूप ढाल सके। प्रगतिवादी मुसलमान राष्ट्रों ने यूरोप की विधि पर आधारित विधियों को स्वीकार कर लिया है। किंतु व्यक्तिगत विधि, जैसे उत्तराधिकार तथा विवाह की नियमावली अभी तक अछूती छोड़ दी गई है। (मु.ह.)