इस्लाम उस धर्म का नाम है जिसकी स्थापना हज़रत मुहम्मद ने मक्का में अपने १० वर्ष के शांतिपूर्ण उपदेशों (६१२-६२२ ई.) तथा १० वर्ष तक मदीना के इस्लामी गणराज्य के नियंत्रण (६२२-६३२) की अवधि में की थी। इस अवधि में बहुत ही थोड़े रक्तपात के द्वारा समस्त अरब प्रदेश इस्लाम धर्म का अनुयायी बन गया। इस्लाम का शब्दिक अर्थ है परित्याग, विसर्जन या आज्ञाकारिता।
इस्लाम के प्रमुख तत्वों का संक्षिप्त विवेचन निम्नांकित है। इस्लाम का आधार कुरान या पैगंबर का 'इलहाम' है जिसे उन्होंने संपादित कर कुरान के माध्यम से प्रकाशित किया। उस इलहाम (ईश्वरीय प्रेरणा के क्षणों में पैंगंबर द्वारा कहे गए वचन) के अतिरिक्त स्वयं उनके द्वारा उपदिष्ट बात भी लिपिबद्ध नहीं होनी चाहिए। इसी कारण 'हदीस' तक, जो स्वयं पैगंबर के वचन थे, और जो इस्लामी पद्धति का एक भाग है तथा जिसकी मान्यता के संबंध में काफी मतभेद है, पैगंबर की मृत्यु के लगभग एक शताब्दी बाद तक लिपिबद्ध नहीं की गई।
(१) इस्लाम धर्म की प्रमुख विशेषता उसका कट्टर एकेश्वरवाद है। यह समस्त मुसलमानों के लिए 'कलमा' में इस प्रकार संनिहित किया गया है-''अल्लाह (ईश्वर) के अतिरिक्त और कोई देवता नहीं है और मुहम्मद उसी के पैगंबर हैं।'' इस एकेश्वरवादी सिद्धांत के अंतर्गत दो परंपराएँ विकसित हुईं-(१) भौतिकवादी, और (२) रहस्यवादी। पहली परंपरा, जहाँ तक संभव हो सकता है, कुरान के शब्दिक अर्थ को मान्यता देते हुए ईश्वर के सिंहासन, चौकी, चेहरे इत्यादि की शब्दावली में कुरान को व्यक्त और स्वीकार करती है। रहस्यवादी इसके विपरीत कुरान की शब्दावली का ध्वन्यात्मक तथा असांसारिक अर्थ लगाते हैं। उनके लिए अल्लाह एक अनिवार्य सत्ता (वजीबुल वुजूद) है और वे अपने समस्त सिद्धांतों को कुरान की नीचे लिखी जैसी अनेक उक्तियों पर आधारित करते हैं-''वह (अल्लाह) प्रथम भी है और अंतिम भी, वह दृश्य भी है और वास्तविक भी, और वह पूर्ण ज्ञानवान् भी है।'' ''हमारा आदि और अंत दोनों अल्लाह में ही है।'' एक रहस्यवादी के लिए ईश्वर (अल्लाह) सृष्टि का समष्टीकरण है। ''सब अच्छे नाम उसी के लिए हैं'', यह कुरान का मत है, अत: मुसलमान को अल्लाह के पर्यायवाची शब्द, जैसे फारसी के 'खुदा' या तुर्की के 'तेंगिरी' शब्द के प्रयोग में कोई आपत्ति नहीं है।
(२) अरब के किसी भी धार्मिक या आर्थिक आंदोलन में इस्लाम का आधार खोजना संभव नहीं है। फिर भी जीवन के सिद्धांत तथा संसार के इतिहास के अनुरूप स्वयं को ढालने में इस्लाम को कोई कठिनाई नहीं हुई। कुरान का सिद्धांत है, ''ईश्वर पहले निर्माण करता और फिर निर्देश करता है''। प्रत्येक जीव को उसका निर्देश (हिदायत) अपनी चेतना या अनुभव द्वारा ज्ञानप्राप्ति की शक्ति के रूप में प्राप्त हाता है।
किंतु समाज में रहनेवाले व्यक्तियों को ईश्वर अपना निर्देश अंत:प्रेरणा (वही) द्वारा देता है और 'वही' को व्यक्ति के दिशाज्ञान के लिये व्यक्त करता है। कुरान में कुल पैगंबरों का उल्लेख नहीं है किंतु मुसलमानी विश्वास के अनुसार पैगंबरों की संख्या १,२४,००० है।
(३) पैगंबर के मतानुसार ईश्वरीय एकता का मतलब है सामाजिक समानता और भाईचारा। पैगंबर के इस सिद्धांत के संबंध में अनेक कठिनाइयाँ हुईं। जनमत के पक्ष में होने के कारण वे अरब में प्रचलित अनैतिक कुरीतियों को समाप्त कर सके, किंतु मदीना के गणतंत्र की स्थापना के समय हुई लड़ाइयों में मनुष्य के भाईचारे का सिद्धांत केवल मुसलमानों के भाईचारे के सिद्धांत तक सीमित रह गया। पैगंबर ने विवाह, उत्तराधिकार, न्यायालय के समक्षा गवाही आदि के संबंध में स्त्रियों को विशेषाधिकार प्रदान किए, जो समकालीन किसी भी अन्य जाति की स्त्रियों को प्राप्त न थे। किंतु पूर्ण समानता असंभव थी। पैगंबर दासप्रथा से घृणा करते थे। युद्ध में पराजितों को उन्होंने कभी दास नहीं बनाया। उनका निर्देश था कि किसी दास को मुक्त कर देना मुसलमान के लिए सर्वश्रेष्ठ कामों में से एक है। किंतु वे इस प्रथा का अंत न कर सके। मृत्यु से पूर्व अपने अनुयायियों से उन्होंने अनुरोध किया कि वे अपने दासों को अपने समान ही रहन-सहन प्रदान करें।
(४) एक ईश्वर में विश्वास करने के सिद्धांत का एक पहलू यह भी है कि दलित मानव समाज की मुक्ति के लिए प्रयत्न किया जाए१ कुरान की दलित व्यक्तियों की परिभाषा में ये लोग आते हैं-'फ़कीर (ऐसे व्यक्ति जो जीविकोपार्जन करने में असमर्थ हैं), मसाकीन (ऐसे व्यक्ति जिन्हें अस्थायी आवश्यकता हो), यात्री, अपाहिज तथा ऐसे व्यक्ति जो आवश्यकता होते हुए भी आत्मसमान के कारण सहायता नहीं माँगते। पैगंबर ने गरीबी को दूर करने के लिए प्रयत्न किए। उपर्युक्त प्रकार के व्यक्तियों तथा राज्य के कार्यसंचालन के लिए पैगंबर ने कर न लेकर सहायता की माँग की। इस संबंध में यमन के प्रशासक को उन्होंने यह आदेश दिया-''धनवान से लेकर गरीबों में बाँट दो।''
(५) गैरमुस्लिम जातियों से कैसा बर्ताव हो, इस संबंध में पैगंबर के सिद्धांत स्पष्ट हैं। आनेवाली सदियों में मुसलमान प्रशासकों द्वारा किए गए अत्याचारों के लिए पैगंबर कदापि उत्तरदायी नहीं ठहराए जा सकते। ''तुम्हारे लिए तुम्हारी आस्था (दीन), मेरे लिए मेरी आस्था''-कुरान स्पष्टत: धार्मिक स्वतंत्रता में विश्वास करता है। ऐसे व्यक्तियों के लिए जिनपर अनुचित रूप से आक्रमण हुआ है, कुरान आत्मरक्षा के सिद्धांत का प्रतिपादन करता है। इसके अतिरिक्त पैगंबर ने अरब राज्य के शासक के नाते नियमित रूप से एक निश्चित धनराशि वहाँ दी और मुस्लिम संस्थाओं से केंद्रीय राज्य के व्यय के लिए प्राप्त की और उन संस्थाओं के आंतरिक मामलों में उन्होंने हस्तक्षेप नहीं किया। जज़िया नामक कर, जो गैरमुसलमानों पर उनके मुसलमान न होने के कारण लागू किया जाने लगा था, पैगंबर के समय में नहीं था। अरबेतर प्रदेशों में इस्लामी क्रांति के विकास का कारण जानने के लिए यह समझना आवश्यक है कि उस समय के प्रत्येक सभ्य देश में मनुष्य समाज दोे वर्गों में विभाजित था। विभाजन का आधार या तो दासप्रथा थी या जातिप्रथा। वस्तुत: एक वर्ग तो शासकों का था, जिसके पास धन एवं संस्कृति के अधिकार सुरक्षित थे और दूसरा वर्ग था शोषितों का, जिनको धर्म एवं संस्कृति के अधिकार अप्राप्य थे। अत: इस्लाम का विकास अति शीघ्र हुआ, किंतु शीघ्र ही यह भी शासकवर्ग का सिद्धांत होकर रह गया; फलस्वरूप ७१५ ई. के लगभग इस्लाम का विस्तार अवरुद्ध हो गया। इस समय के बाद से यह केवल कुछ ही देशों में विकसित हो सका और भारतवर्ष एक ऐसा ही अपवाद है। मनुष्य जाति की भविष्य की समस्याएँ धर्म के आधार पर नहीं सुलझाई जा सकेंगी। ''एक के बाद कोई पैगंबर नहीं होगा'', यह मुहम्मद का कथन है।
सं.ग्रं.-मौलाना अबुल कलाम आज़ाद : तरजुमानुल कुरान। (मु.ह.)