शंकराचार्य अद्वैत मत के प्रवर्तक प्रसिद्ध शैव आचार्य जिनका जन्म सन् ७८८ ई. में केरल देश में कालपी अथवा काषल नामक ग्राम में हुआ था; और जो ३२ वर्ष की अल्प आयु में सन् ८२० ई. में केदारनाथ में समीप स्वर्गवासी हहुए थे। इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा था। बहुत दिन तक सपत्नीक शिव को आराधना करने के अनंतर शिवगुरु ने पुत्ररत्न पाया था, अत: उसका नाम शंकर रखा। जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है। कहते हैं, माता एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। एक दिन जब शंकर अपनी माता के साथ किसी आत्मीय के यहाँ से लौट रहे थे, तब नदी, पार करने के लिए वे उसमें घुसे। गले भर पानी में पहुँकर इन्होंने माता को संन्यास ग्रहण करने की आज्ञा न देने पर डूब मरने की धमकी दी। इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की और इन्होंने गोविंद स्वामी से संन्यास ग्रहण किया। इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है। पहले ये कुछ दिनों तक काशी में रहे, और रोचक व्याख्या की है। पहले ये कुछ दिनों तक काशी में रहे, और तब इन्होंने विजिलबिंदु के तालवन में मंडप मिश्र को सपत्नीक शास्त्रार्थ में परास्त किया। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित किया तथा वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया। उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी टीकाएँ बहहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने भारतवर्ष में चार मठों की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिनके प्रबंधक तथा गद्दी के अधिकारी शंकराचार्य कहे जाते हैं। वे चारों स्थान निम्नलिखित हैं-

(१) बदरिकाश्रम, (२) करवीर पीठ, (३) द्वारिका पीठ और (४) शारदा पीठ। इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था। ये शंकर के अवतार माने जाते हैं।श् (विश्वनाथ त्रिपाठी)