लक्ष्मण सिंह, राजा भारतेंदु हरिश्चंद्र युग से पूर्व की हिन्दी गद्यशैली के प्रमुख विधायक थे। इनका जन्म आगरा के वजीरपुरा नामक स्थान में ९ अक्टूबर, १८२६ ई. को हुआ था और मृत्यु १४ जुलाई, १८९६ ई. को हुई। १३ वर्ष की अवस्था तक आप घर पर ही संस्कृत और उर्दू की शिक्षा ग्रहण करते रहे, और सन् १८३९ में अंग्रेजी पढ़ने के लिए आगरा कालेज में प्रविष्ट हुए। कालेज की शिक्षा समाप्त करते ही पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेंट गर्वनर के कार्यालय में अनुवादक के पद पर नियुक्त हुए। आपने बड़ी योग्यतापूर्वक कार्य किया और १८५५ में इटावा के तहसीलदार नियुक्त हुए। सन् १८५७ के विद्रोह में आपने अंग्रेजों की भरपूर सहायता की और अंग्रेजों ने उन्हें पुरस्कारस्वरूप डिप्टीकलक्टरी का पद प्रदान किया। १८७० ई. में राजभक्ति के परिणामस्वरूप लक्ष्मण सिंह जी को 'राजा' की उपाधि से सम्मानित किया। अंग्रेज सरकार की सेवा में रहते हुए भी लक्ष्मण सिंह का साहित्यानुराग जीवित रहा। सन् १८६१ में इन्होंने आगरा से 'प्रजाहितैषी' नामक पत्र निकाला। सन् १८६३ में महाकवि कालिदास की अमर कृति 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' का हिंदी अनुवाद 'शंकुतला नाटक' के नाम से प्रकाशित हुआ। इसमें हिंदी की खड़ी बोली का जो नमूना आपने प्रस्तुत किया उसे देखकर लोग चकित रह गए। राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद ने अपनी 'गुटका' में इस रचना को स्थान दिया। उस समय के प्रसिद्ध हिंदी प्रेमी फ्रेडरिक पिन्काट उनकी भाषा और शैली से बहुत प्रभावित हुए और १८७५ में इसे इंग्लैंड में प्रकाशित कराया। इस कृति से लक्ष्मण सिंह को पर्याप्त ख्याति मिली और इसे इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा में पाठ्यपुस्तक के रूप में स्वीकार किया गया। इससे लेखक को धन और सम्मान दोनों मिले। इस सम्मान से राजा साहब को अधिक प्रोत्साहन मिला और उन्होंने १८७७ में कालिदास के 'रघुवंश' महाकाव्य का हिंदी अनुवाद किया और इसकी भूमिका में अपनी भाषासंबंधी नीति को स्पष्ट करते हुए कहा-
'हमारे मत में हिंदी और उर्दू दो बोली न्यारी न्यारी हैं। हिंदी इस देश के हिंदू बोलते हैं और उर्दू यहाँ के मुसलमानों और फारसी पढ़े हुए हिंदुओं की बोलचाल है। हिंदी में संस्कृत के पद बहुत आते हैं, उर्दू में अरबी फारसी के परंतु कुछ आवश्यक नहीं है कि अरबी फारसी के शब्दों के बिना हिंदी न बोली जाए और न हम उस भाषा को हिंदी कहते हैं जिसमें अरबी फारसी के शब्द भरे हों।
सन् १८८१ ई. में आपका 'मेघदूत' के पूर्वार्ध और १८८३ ई. में उत्तरार्ध का पद्यानुवाद प्रकाशित हुआ जिसमें - चौपाई, दोहा, सोरठा, शिखरिणी, सवैया, छप्पय, कुंडलिया और धनाक्षरी छंदों का प्रयोग किया गया है। इस पुस्तक में अवधी और ब्रजभाषा, दोनों के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। यह अपने ढंग का अनूठा प्रयोग है।
आप कलकत्ता विश्वविद्यालय के 'फेलो' और 'रायल एशियाटिक सोसाइटी' के सदस्य रहे। सन् १८८८ ई. में सरकार की सेवा से मुक्त होने पर आप आगरा की चुंगी के बाइस चेयरमैन हुए और आजीवन इस पद पर बने रहे।
अनुवादक के रूप में राजा लक्ष्मण सिंह को सर्वाधिक सफलता मिली। आप शब्द प्रतिशब्द के अनुवाद को उचित मानते थे, यहाँ तक कि विभक्ति प्रयोग और पदविन्यास भी संस्कृत की पद्धति पर ही रहते थे। राजा साहब के अनुवादों की सफलता का रहस्य भाषा की सरलता और भावव्यंजना की स्पष्टता है। उनकी टकसाली भाषा का प्रभाव उस समय के सभी लोगों पर पड़ा और तत्कालीन सभी विद्वान् उनके अनुवाद से प्रभावित हुए।श् (राम प्रताप मिश्र)