राजगोपालचारी, चक्रवर्ती महान् कूटनीतिज्ञ, कुशल राजनेता, स्वतंत्र पार्टी के संस्थापक एवं भारत के भूतपूर्व एकमात्र भारतीय गवर्नर जनरल हैं। इनका जन्म मद्रास के सलेम जिलांतर्गत प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में सन् १८७९ में हुआ था। ये अत्यंत कुशाग्रबुद्धि छात्र थे। इन्होंने प्रारंभिक शिक्षा बंगलोर में प्राप्तकर प्रेसीडेंसी कालेज, मद्रास, से बी. ए. परीक्षा उत्तीर्ण की तथा लॉ कालेज मद्रास से कानून की स्नातक उपाधि प्राप्त की। अध्ययन समाप्तकर इन्होंने सन् १९०० में सलेम में वकालत प्रारंभ की। शीघ्र ही इनकी गणना उच्च कोटि के वकीलों में होने लगी। महात्मा गांधी के आह्वान पर राजगोपालचारी ने सन् १९१९ में सत्याग्रह आंदोलन तथा सन् १९२० में असहयोग आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। गांधी जी के बंदीकाल में इन्होंने उनके पत्र 'यंग इंडिया' का संपादन किया। ये सन् १९२१ से सन् १९२२ तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महासचिव तथा सन् १९२२ से सन् १९४२ तक और पुन: सन् १९४६ से सन् १९४७ तक इसकी कार्यसमिति के सदस्य रहे। 'अखिल भारतीय बुनकर संघ' के स्थापनाकाल से सन् १९३५ तक ये उसकी कार्यकारिणी के सदस्य थे। इसके अतिरिक्त ये 'अखिल भारतीय मद्यनिषेध परिषद्' के सचिव तथा 'दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा' के उपाध्यक्ष रहे।
सन् १९३६ के महानिर्वाचन के पश्चात् मद्रास राज्य की अंतरिम कांग्रेस सरकार के जुलाई, सन् १९३७ में 'प्रधानमंत्री' नियुक्त हुए। इन्होंने बड़ी ही कुशलतापूर्वक शासनसूत्र का संचालन किया। कांग्रेस के निर्णयानुसार इन्होंने अन्य कांग्रेसी मंत्रियों के साथ नवंबर, सन् १९३९ में प्रधानमंत्री पद से त्यागपद दे दिया। जुलाई, सन् १९४० में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की पूना में आयोजित बैठक में इन्होंने अविलब अंतरिम केंद्रीय सरकार के गठन की स्वीकृति प्राप्त होने की स्थिति में ब्रिटिश सरकार की द्वितीय महायुद्ध की रणनीति में सहयोग प्रदान करने पर बल दिया और तदनुरूप प्रस्ताव स्वीकृत कराने में सफल हुए। ४ दिसंबर, सन् १९४० को ये भारत अधिनियम के अंतर्गत बंदी बना लिए गए और इन्हें एक वर्ष का कारावास दंड दिया गया। इन्होंने विभिन्न राष्ट्रीय आंदोलनों के अवसर पर पाँच बार जेलयात्राएँ कीं। कांग्रेस के वर्धा अधिवेशन के पश्चात् आनंदभवन, इलाहाबाद में आयोजित कार्यसमिति की बैठक में इन्होंने समिति के मुसलिम लीग तथा ब्रिटिश सरकार के प्रति अन्य सदस्यों की नीति से सहमत न होने के कारण कार्यसमिति की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। इनकी उस समय की नीतियों के कारण इनकी कटु आलोचनाएँ हुई और कार्यसमिति से त्यागपत्र देने के लिए विवश किया गया। ये अपनी नीतियों पर अटल रहे और सहज भाव से त्यागपत्र दे दिया। सन् १९४१ से सन् १९४६ तक ये देश के राजनीतिक इतिहास में सर्वाधि अपमानित व्यक्ति रहे। इस धीर गंभीर राजनीतिज्ञ ने कभी संयम नहीं खोया। जिन नीतियों को इनकी बुद्धि उचित मानती थी उनका अन्यों के विरोध या निंदा के भयवश परित्याग नहीं किया। यह इनके स्वभाव की विशिष्टता है।
सितंबर, सन् १९४४ में गांधी-जिन्ना वार्ता के समय राजगोपालचारी गांधी जी के कूटनीतिक सहायक रहे। जुलाई, सन् १९४६ में ये पुन: कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य बनाए गए। ये सितंबर, १९४६ से १५ अगस्त १८४७ तक केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य रहे तथा भिन्न-भिन्न अवधि तक उद्योग तथा आपूर्ति, शिक्षा और वित्त विभाग का कार्यभार वहन किया। स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात्, अगस्त, सन् १९४७ में से पश्चिम बंगाल के राज्यपाल नियुक्त हुए और २० जून, सन् १९४८ तक इस पद पर आसीन रहे। नवंबर, सन् १९४७ में तत्कालीन वॉयसराय लार्ड माउटबेटन के अवकाशकाल में यह भारत के कार्यकारी वॉयसराय रहे। २१ जून, सन् १९४८ को लार्ड माउंटबेटन के पदमुक्त होने पर परिपक्व बुद्धि, सूक्ष्म दृष्टि एवं विस्तृत अनुभवयुक्त इस महान् राजनीतिज्ञ ने भारतराष्ट्र के गवर्नर जनरल का पद ग्रहण किया। इन्होंने २६ जनवरी, सन् १९५० को भारत के पूर्ण गणतंत्र घोषित होने पर गवर्नर जनरल के पद की गरिमा का बड़ी ही कुशलतापूर्वक निर्वाह किया।
गवर्नर जनरल का पद समाप्त होने के पश्चात् मई, सन् १९५० से दिसंबर, सन् १९५० तक राजा जी केंद्रीय मंत्रिमंडल में निर्विभागीय मंत्रीय रहे तथा जनवरी, सन् १९५१ से नवंबर, सन् १९५१ तक केंद्रीय गृहमंत्री पद का कार्यसंचालन किया। प्रथम महानिर्वाचन के पश्चात् ये मद्रास के मुख्य मंत्री निर्वाचित हुए और इन्होंने सन् १९५४ तक सफलतापूर्वक शासनसूत्र सँभाला। शासन से पृथक् होने के पश्चात् इन्होंने स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की जिसे इनके कूटनीतिक चमत्कार में शीघ्र ही संसद् में द्वितीय स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया।
राजा जी सन् १९५५ में प्रथम बार भारत के सर्वोच्च अलंकरण 'भारतरत्न' से विभूषित होनेवाली विभूतियों में हैं। चमत्कारपूर्ण बुद्धि, दंभहीन स्वभाव एवं विश्लेषण की सूक्ष्म प्रतिभा इनके व्यक्तित्व की विशिष्टताएँ हैं। कूटनीति इनके संघर्षशील जीवन का प्रमुख आयुध है। ९० वर्ष की वय में भी इनकी क्रियाशीलता विलक्षण है। इनका माननीय व्यक्तित्व राष्ट्र का गौरव है।
राजगोपालचारी ने तमिल तथा अंग्रेजी में अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रणयन किया है! तमिल भाषा में इन्होंने सुकरात, और विअस, भगवद्गीता, महाभारत तथा उपनिषदों पर ग्रंथों तथा लघु कथाओं की रचना की है। अंग्रेजी में 'महाभारत', 'रामायण', 'भगवद्गीता' 'उपनिषद् एंड हिंदुइज्म', 'डॉक्ट्रिन ऐंड वे आंव लाइफ' आदि ग्रंथ प्रकाशित हुए है। इसके अतिरिक्त इन्होंने एक प्राहिबिशन मैनुअल तथा कई पुस्तिकाएँ लिखी है। (लालबहादुर पांडेय)