रघुवंश (महाकाव्य) समालोचकों ने कालिदास का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य 'रघुवंश' को माना है। आदि से अंत तक इसमें निपुण कवि का विलक्षण कौशल व्यक्त होता है। दिलीप और सुदक्षिणा के तपोमय जीवन से प्रारंभ इस काव्य में क्रमश: रघुवंशी राजाओं की वदान्यता, वीरता, त्याग और तप की एक के बाद एक कहानी उद्घाटित होती है और काव्य की समाप्ति कामुक अग्निवर्ण की विलासिता और उनके अवसान से होती है। दिलीप और सुदक्षिणा का तप:पूत आचरण, वरतंतु के शिष्य कौत्स और रघु का संवाद, इंदुमती स्वयंवर, अजविलाप, राम और सीता की विमानयात्रा, निर्वासित सीता की तेजस्विता, संगमवर्णन, अयोध्या नगरी की शून्यता आदि का चित्र एक के बाद एक उभरता जाता है और पाठक विमुग्ध बना हुआ मनोयोग से उनको देखता जाता है। अनेक कथानकों का एकत्रीकरण होने पर भी इस महाकाव्य में कवि ने उनका एक दूसरे से एक प्रकार समन्वय कर दिया है जिससे उनमें स्वाभाविक प्रवाह का संचार हो गया है। 'रघुवंश' के अनेक नृपतियों की इस ज्योतित नक्षत्रमाला में कवि ने आदिकवि वाल्मीकि के महिमाशाली राम को तेजस्विता और गरिमा प्रदान की है। वर्णनों की सजीवता, आगत प्रसर्गों की स्वाभाविकता, शैली का माधुर्य तथा भाव और भाषा की दृष्टि से 'रघुवंश' संस्कृतमहाकाव्यों में अनुपम है।

रघुवंश महाकाव्य की शैली क्लिष्ट अथवा कृत्रिम नहीं, सरल और प्रसादगुणमयी है। अलंकारों का सुरुचिपूर्ण प्रयोग स्वाभाविक एवं सहज सुंदर है। चुने हुए कुछ शब्दों में वर्ण्य विषय की सुंदर झाँकी दिखाने के साथ कवि ने 'रघुवंश' के तेरहवें सर्ग में इष्ट वस्तु के सौंदर्य की पराकाष्ठा दिखलाने की अद्भुत युक्ति का आश्रय लिया है। गंगा और यमुना के संगम की, उनके मिश्रित जल के प्रवाह की छटा का वर्णन करते समय एक के बाद एक उपमाओं की शृंखला उपस्थित करते हुए अंत में कवि ने शिव के शरीर के साथ-साथ उसकी शोभा की उपमा दी है और इस प्रकार सौंदर्य को सीमा से निकालकर अनंत के हाथों सौंप दिया-

हे निर्दोष अंगोंवाली सीते, यमुना की तरंगों से मिले हुए गंगा के इस प्रवाह को जरा देखो तो सही, जो कहीं कृष्णा सर्पों से अलंकृत और कहीं भस्मांगराग से मंडित भगवान् शिव के शरीर के समान सुंदर प्रतीत हो रहा हो।

कालिदास मुख्यत: कोमल और रमणीय भावों के अभिव्यंजक कवि है। इसीलिए प्रकृति का कोमल, मनोरम और मधुर पक्ष उनकी इस कृति में भी अंकित हुआ है। (विश्वनाथ त्रिपाठी)