ठाकुर, रवींद्रनाथ का जन्म कलकत्ता नगर में ७ मई, सन् १८६१ ई. को हुआ था। इनके पिता का नाम महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर था। प्रारंभिक पाठशाला में इनका नाम लिखाया गया किंतु वहाँ इनका मन नहीं लगा। यज्ञोपवती संस्कार हो जाने के बाद ये बचपन में ही अपने परिवार के साथ हिमालय की यात्रा पर गए थे, जहाँ उनकी प्रतिभा को विकास का पूरा अवकाश मिला था। इनका पालन पोषण बचपन में नौकरों के ही जिम्मे रहा। पढ़ाने के लिए घर पर शिक्षक आते थे। अखाड़े में एक पहलवान इन्हें कुश्ती कला भी सिखाता था। सोलह वर्ष की वय में इन्होंने अपना नाम छिपाकर छद्मनाम से 'भानुसिंह की पदावली' नामक एक काव्यसंग्रह लिख डाला था और यह लिख दिया था कि ब्रह्मसमाज के पुस्तकालय में प्राचीन कवि भानुसिंह की ये पदावली मुझे हाथ लगी। बहुतों ने इसे सच भी मान लिया था। इसके बाद ये शिक्षाप्राप्ति के लिए इंग्लैंड भेजे गए। वहाँ जो कटु मधुर अनुभव इन्होंने प्राप्त किए उसका विशद उल्लेख इन्होंने अपने 'स्मृतिग्रंथ' में किया है। ये बराबर काव्यरचना में दत्तचित्त रहे। इंग्लैंड में इनका परिचय अंग्रेजी के विख्यात महाकवि डब्ल्यू. वी. यीट्स से हो गया। उन्हीं की प्रेरणा से इन्होंने अपने कई बँगला काव्यसंग्रहों से १०३ गीतों का अनुवाद 'गीतांजलि' नाम से अंग्रेजी में किया और उसी पर इन्हें सन् १९१३ में विश्व का सबसे बड़ा पुरस्कार 'नोबेल प्राइज' मिला। फिर तो इनकी ख्याति देश विदेश में सर्वत्र फैल गई और भारत में भी लोग इन्हें महाकवि समझने लगे। इसके पश्चात् इन्होंने कलकत्ते से दूर बोलपुर में 'शांतिनिकेतन' नामक अश्राम की स्थापना की और प्राचीन भारतीय आश्रमों की भाँति वहाँ शिक्षण की व्यवस्था की। वहाँ विविध विषयों के उच्च विद्वान् सादगी के वातावरण में शिक्षादान करने लगे। रवींद्र काव्य में विश्वप्रेम को राष्ट्रीयता से उच्च स्थान देने के अभिलाषी रहे हैं। ब्रह्मसमाज में दीक्षित होने के कारण जाति-पाँति में उनका विश्वास नहीं था और न मंदिरों के प्रति उन्हें आस्था थी। वे मानवता को सर्वोपरि मानते थे।
रवींद्रनाथ कवि, नाटककार, निबंधकार, उपन्यासकार, अभिनेता, संगीतज्ञ और कुशल चित्रकार भी थे। उनकी प्रतिभा का ही परिणाम है कि उनके नाम से संगीत के क्षेत्र में 'रवींद्र संगीत' की धूम मच गई।
रवींद्र की साहित्यिक कृतियों का अनुवाद विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में हो गया है। एक समय था, जब अनेक भारतीय भाषाओं के कवि रवींद्र के काव्य का अनुकरण करने में अपनी प्रतिष्ठा समझते थे। रवींद्र ने अकेले जितना विपुल साहित्य दिया, इस काल में संभवत: कोई भी उतना न दे सका। उनकी बहुमुखी प्रतिभा और महान् व्यक्तित्व के कारण संपूर्ण विश्व ने भारतवर्ष का परिचय पाने के लिए गांधी और रवींद्रनाथ को ही पर्याप्त माना। वह गुरुदेव नाम से प्रसिद्ध थे और महात्मा गांधी उनका बड़ा आदर करते थे। यहाँ तक कि जब अस्सी वर्षों की आयु में शांतिनिकेतन के लिए धनसंग्रहार्थ गुरुदेव स्वयं अपनी अभिनयमंडली लेकर भारतभ्रमण के लिए निकले तब महात्मा जी ने उन्हें आश्वासन दिया कि शांतिनिकेतन के लिए वह निधि एकत्र कर देंगे।
स्वतंत्र भारत का राष्ट्रगान 'जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता' गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की ही कृति है।
शांतिनिकेतन में ही सन् १९४१ ई. में रवींद्रनाथ का निधन हुआ। (लालधर त्रिपाठी.)