अंतरिक्षयात्रा और चंद्रविजय मानव प्रारंभ से ही अंतरिक्ष के प्रति जिज्ञासु रहा है। अंतरिक्षयात्रा अब केवल अध्ययन का ही विषय नहीं रह गई। अमरीका तथा रूस के कृत्रिम उपग्रहों के छोड़ने की घोषणा से संशय और कल्पना वास्तविकता के धरातल पर आने लगी। कल तक जिसका अस्तित्व वैज्ञानिक गल्पकारों की कल्पना में था, वह आज साकार हो रहा है। आकाशमंडल में भूमंडल से इतर पिंडों के अस्तित्व और भ्रमण की चर्चा सर्वत्र व्याप्त है। चंद्रमा के स्थायी रूप से पृथ्वी से विमुख अर्धांश के, तथा रेडिएशन जैसी सौर रश्मियों के अध्ययन में सचल वेधशाला के रूप में इसका प्रयोग किया जा सकेगा। ग्रहों पर उपनिवेश भी बसाए जा सकेंगे।
ग्रह के चारों ओर चलनेवाले आकाशीय पिंडों को उपग्रह कहते हैं। चंद्रमा पृथ्वी का उपग्रह है। अपने ग्रहों की परिक्रमा करने में उपग्रह एक निश्चित कक्षा में निश्चित वेग से घूमते हैं जिससे प्रत्येक स्थान पर अपकेंद्रबल, गुरुत्वीयबल के बराबर और उसके विपरीत हो जाता है।
यदि किसी उपग्रह का द्रव्यमान m है जो M द्रव्यमान के एक ग्रह के चारों ओर v वेग से घूम रहा है और उसकी वृत्ताकार त्रिज्या है तो r
अपकेंद्रबल = आकर्षण
या श्जिसमें
G
गुरुत्वांक है,
या
या v2 R = G M. जो एक नियतांक के बराबर होगा।
पृथ्वी
से चंद्रमा ३,८०,००० किमी दूर है अत: उसका वेग एक किमी प्रति
सेकंड के लगभग है जो पृथ्वी के पास के उपग्रह के वेग का
केवल श्है।
अत: चंद्रमा एक महीने में पृथ्वी की परिक्रमा पूरी करता है जबकि
पृथ्वी के पास का उपग्रह एक दिन में १५ परिक्रमा कर लेता है।
यदि किसी कृत्रिम उपग्रह की पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए अंतरिक्ष में भेजना है तो उसके लिए कम से कम ८ किमी या ५ मील प्रति से. का वेग आवश्यक है। इस वेग की प्रथम अंतरिक्ष वेग (first cosmic velocity) कहते हैं। यदि वेग ११.२ किमी प्रति सेकंड हो जाय तो वह द्वितीय अंतरिक्ष वेग या पलायन वेग (Escape velocity) कहलाता है। उपग्रह है। उपग्रह इस वेग द्वारा पृथ्वी के आकर्षणक्षेत्र से बाहर हो जाएगा तथा सौर मंडल में अन्यत्र चला जाएगा।
पलायन वेग वह कम से कम वेग है जिससे किसी वस्तु को पृथ्वी से ऊपर की ओर फेंकने पर वह वस्तु पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण सीमा से बाहर निकल जाए और फिर लौटकर पृथ्वी पर वापस न आ सके।
इसे निम्न सूत्र से ज्ञात करते हैं-
v
=
जहाँ v = वस्तु का पलायन वेग
G = गुरुत्वाकर्षणीय नियतांक = ६.६६ � १०-८ स. ग. स. मात्रक
M = पृथ्वी का द्रव्यमान = ६ � १०२७ ग्राम
R = पृथ्वी की त्रिज्या = ६.४ � १०८ सेमी
इन मानों को समीकरण में प्रतिष्ठापित करने पर-
v = १.१�१०६ सेमी/से.
श् = ११ किमी प्रति से. या ७ मील प्रति. से.
श् = ३६००० फुट/से. या २५००० मील प्रति घंटा लगभग
श्तीव्रगामी जेट विमानों और राकेटों का आविष्कार होने से कृत्रिम उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजने तथा अन्य ग्रहों पर अंतरिक्ष यानों में जाने में सुविधा हो गई। ४ अक्टूबर, १९५७ को रूस द्वारा छोड़ा गया कृत्रिम उपग्रह एक स्वचालित राकेट था जो बहुस्टेजी राकेट से पूर्वनिर्धारित कक्षा में छोड़ा गया था। स्पुतनिक के साथ ही उसको ले जानेवाला राकेट भी पृथ्वी की परिक्रमा उसके लगभग १००० किमी की दूरी पर तथा लगभग उसी ऊँचाई पर करता रहा और अंत में घने वायुमंडल में प्रविष्ट होने से जलकर राख हो गया।
एस. सी. क्लार्कश् (ग्रहविज्ञानवेत्ता), एफ. ए. आर. एस. ने 'शून्य की छानबीन' (The Exploration of Space) नामक पुस्तक में लिखा है कि राकेट की रचना चीनियों ने लगभग एक हजार वर्ष पूर्व की थी और उसका पहला प्रयोग १२३२ में मंगलों के विरुद्ध काइजेंग के आक्रमण में किया था जब मंगलों ने कैफंग नगर को घेरा था तो चीनियों ने आत्मरक्षार्थ अग्नि डंडियों का उपयोग किया था। बाद में इसका प्रयोग आतिशबाजी, पटाखे और बाने तक सीमित हो गया।
अंतरिक्ष यात्रा खतरे से खाली नहीं होगी। अंतरिक्ष में पदार्थ का घनत्व बहुत कम है, किंतु थोड़ा भी घर्षण पैदा होने से यान की गति धीमी पड़ सकती है। भीषण गति से चलनेवाली एक छोटी उल्का भी बहुत मजबूत धातुनिर्मित अंतरिक्ष यान में आर-पार छेद कर सकती है। यान की किसी भी दीवार में छिद्र होते ही उसमें संचित आक्सीजन पलक झँपते ही उड़ जाएगी और यान के यात्री दम घुटने से बैमौत मर जाएँगे। वायुमंडल के बाद सूर्य के प्रचंड ताप का सामना करना होगा। जब तक वह अंतरिक्ष में दिखाई देगा, तब तक उसका न अस्त होगा और न उदय। यह इसलिए भी आवश्यक है कि उपग्रह अपनी सोलर बैटरियों के लिए सूर्य से ही ऊर्जा प्राप्त करते हैं। बैटरियों पर सूर्य का प्रकाश लगातार पड़ना चाहिए। उपग्रह का संतुलन ठीक रहना चाहिए, अत: इसके लिए गोलाकार आकृति ठीक होगी। उपग्रह का भार उसको ले जानेवाले राकेट की सामर्थ्य के अनुसार होना चाहिए। उदाहरणार्थ स्पुतनिक-२ में उपग्रह स्वयं तृतीय मंच राकेट का एक भाग था और उपग्रह राकेट से अलग नहीं हुआ। उपग्रह का ढाँचा हल्के किंतु मजबूत पदार्थ Al या Mg या किसी मिश्र धातु का होना चाहिए। किंतु यदि उपग्रह की सहायता से आयनमंडल की जानकारी करनी है तो ढाँचा एक प्लास्टिक का बनाया जाएगा जो फौलाद की तरह मजबूत होगा किंतु वह न तो विद्युत् का सुचालक होगा और न ही चुंबक से प्रभावित। यान का ईधंन ऐसा होना चाहिए जो कम से कम मात्रा में अधिक क्षमता दे तथा कम स्थान घेरने के साथ भार में अधिक वृद्धि न करे। इसके लिए अणु शक्ति या सोलर एनर्जी का प्रयोग उचित होगा। राकेट ऐसी शक्ति उत्पन्न करने में सहायक है। राकेट विमानों में ईधंन और उसके जलाने के लिए आक्सीकारक दोनों ही विमान में ले जाए जाते हैं और आस-पास के वातावरण से हवा को अंदर लेने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती।
वैज्ञानिक विधि से रॉकेटों का अध्ययन सबसे पहले अमरीकी भौतिक शास्त्री डा. राबर्ट गोडार्ड ने १९०८ में प्रारंभ किया था। १९१९ में उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा कि राकेट की उड़ान के लिए हवा की उपस्थिति आवश्यक नहीं है, वह वायुमंडल के बहर अंतरिक्ष में उड़ सकता है और चंद्रमा तक पहुंचाया जा सकता है।
राकेट के मुख्य हिस्से, वायफ्रुेम, दहनकक्ष, निकास नोजिल, प्रणोदक भंडार, भारयोग तथा संदेशक प्रबंध हैं।
अंतरिक्ष में भेजे जानेवाले का आकार सिगार की तरह होता है। यह राकेट २५००० मील प्रति घंटा का आवश्यक वेग नहीं प्राप्त कर सकता अत: बहुमंचीय राकेट काम में लाए जाते हैं।
प्रथम स्टेज और राकेट सबसे बड़ा और भारी होता है और अंतिम राकेट सबसे छोटा और हल्का। सबसे पहले प्रथम स्टेज राकेट काम में लाया जाता है और जब इसका काम समाप्त हो जाता है तो यह जलकर अलग हो जाता है। इसके बाद दूसरा राकेट त्वरण की वृद्धि करता है, यह भी जलने के बाद अलग हो जाता है और तीसरा राकेट काम करने लगता है। प्रथम स्टेज राकेट का ईधंन व्यय तृतीय स्टेज राकेट से लगभग ६० गुना और प्रणोद लगभग १०० गुना होता है ओर इतना ही अधिक उसका भार होता है। तृतीय स्टेज राकेट में जितना भार ले जाना होता है उसी के हिसाब से प्रथम स्टेज राकेट को बनाया जाता है। पायलट की जगह या कक्षा में भेजे जानेवाले उपग्रह सबसे ऊपर के भाग में होती है। स्पुतनिक को अंतरिक्ष में भेजने के लिए तृर्मचीय राकेट प्रयोग में लाए गए थे। ऐसे राकेट या विमान जिनमें कोई मनुष्य न हो और उड़ान के बीच में भी जिनके मार्ग में परिवर्तन किया जा सके, नियंत्रित मिसाइल कहलाते हैं। लंबी मारवाले राकेटों में सैटर्न का नाम उल्लेखनीय है। यह संसार का सबसे बड़ा राकेट है। जुपिटर, थोर, रेडस्टोन, वैनगार्ड और ऐटलस अन्य प्रसिद्ध अमरीकी राकेट हैं। राकेटों का उपयोग युद्ध अस्त्रों की भाँति, सूक्ष्म उल्काओं विकिरण आदि के अध्ययन में तथा अंतरिक्षयात्रा के लिए किया जाता है।
अंतरिक्ष में यान किसी कारणवश यदि संकट में पड़ जाए तो उसके भीतर के लोग चंद मिनटों में मर जाएँगे और यान त्रिशंकु की तरह एक प्रस्तरखंड जैसा लटकता रह जाएगा। यदि संयोगवश वह किसी नक्षत्र या अन्य आकाशीय पिंड की परिधि में नहीं आता तो लाखों वर्ष तक इसी दशा में पड़ा रहा सकता है। मानव शरीर पर न कोई रासायनिक प्रक्रिया होगी, न वह नष्ट होगा। विभिन्न गुरुत्वाकर्षणों से भी कठिनाई उत्पन्न होगी, मुख, आँख और हृदय की गति पर इसका प्रभाद पड़ेगा। इसके अतिरिक्त स्नायविक तथा मानसिक अव्यवस्था उत्पन्न हो सकती है। आज का मेधावी कल का महामूर्ख बन सकता है। अंतरिक्ष में काफी समय तक रहने से प्रजनन शक्ति नष्ट हो सकती है।
अंतरिक्ष यान को २५००० मील प्रति घंटा की चाल से चलने पर, चंद्रमा तक पहुँचने में कुल ९ घंटे लगेंगे। आइन्सटीन के सापेक्षवाद के सिद्धांत के अनुसार अंतरिक्ष में काल प्रवाह वही नहीं होगा जो पृथ्वी पर है, वापस अने पर हमारा यात्री हो सकता है अपने को अपने उन समवयस्कों से अधिक युवा या कम उम्र का अनुभव करे जिन्हें पृथ्वी पर छोड़कर वह अंतरिक्ष यात्रा के लिए गया था। अंतरिक्ष अनिवार्यत: तीन आयामोंवाला नहीं है। यूक्लिड की रेखागणित के आगे चतुर्थ आयाम की भी कल्पना कर ली गई है।
अंतरिक्ष में मानवचालित उड़ान - चंद्रयात्रा का अभियान मानवचालित उड़ान के लिए संयुक्त राज्य अमरीका की नेशनल ऐरोनॉटिक ऐंड स्पेस एजेंसी (NASA) ने चार योजनाएँ बनाई हैं -(१) मर्करी, (२) जैमिनी, (३) अपोलो और (४) X-15।
मर्करी योजना के तीन उद्देश्य हैं-
(क) मनुष्य की अंतरिक्ष यात्रा संबंधी क्षमता का अध्ययन,
(ख) पृथ्वी की परिक्रमा के लिए मानवचालित यान को कक्षा में भेजना,
(ग) चालक को सुरक्षित पृथ्वी पर वापस लाना। नासा ने १९६० में चाँद पर उतरने के दस वर्षीय कार्यक्रम की घोषणा की थी।
अंतरिक्षयात्री अपने साथ आक्सीजन तथा खाने पीने की वस्तुएँ यथेष्ट मात्रा में ले जाते हैं जो लौटने तक के लिए पर्याप्त हो। कड़ी सर्दी तथा तेज गर्मी से सुरक्षा का ध्यान रहता है। पृथ्वी के चतुर्दिक् तीव्र विकिरणों से बचाव के लिए यात्री एक विशेष पोशाक तथा कनटोप पहनते हैं। यात्री को विशेष रूप से बाँधकर रखा जाता है ताकि ऊपर जाते समय नीचे की ओर तीव्र त्वरण और ऊपर से उतरते समय अत्वरण का अनुभव उसे न हो। पायलट को एक शंक्वाकार कैपसूल (व्यास, पेंदी पर ७ फुट, ऊँचाई, १० फुट) के भीतर चित लेटाकर एक कोच से बाँध दिया जाता है। अंतरिक्ष में वह भारहीनता तथा पूर्ण निष्क्रियता का अनुभव करता है अत: उसका भोजन लेई की तरह पतला करके एक दबनेवाली धातु के ट्यूब में भर दिया जाता है, यात्री टूथपेस्थ की नली की तरह ट्यूब को मुँह से लगाकर पीछे से दबाता है जिससे खाना उसके पेट में चला जाता है। अंतरिक्ष से वापस आते समय अंतरिक्ष यान की गति कई हजार मील प्रति घंटे होने के कारण यान की धातु गर्म होकर पिघल सकती है। इसमें रक्षा के लिए मर्करी कैप्सूल पर एक विशेष आवरण होता है जिसका कुछ भाग जल जाता है और नीचे की धातु सुरक्षित रहती है। यान के पृथ्वी के पास पहुँचने पर हवाई छतरी खुल जाती है और पश्च राकेट छोड़े जाते हैं जिससे यान की चाल धीमी पड़ जाती है और वह पानी की सतह पर उतारा जा सकता है।
अंतरिक्षयात्रा की सफल उड़ान - रूसी और अमरीकी वैज्ञानिकों ने अब तक कई बार अंतरिक्ष यानों में पृथ्वी की परिक्रमा की है और सकुशल पृथ्वी पर लौटकर आ गए हैं।
सबसे पहले ४ अक्टूबर, १९५७ को सोवियत रूस ने अपना पहला कृत्रिम उपग्रह स्पुतनिक-१ छोड़ा। इसका भार १८४ पौंड (८३.६ किग्रा) तथा व्यास ५८ सेमी था और इसमें कोई मानव नहीं था। यह पृथ्वी से ९५० किमी की दूरी पर लगभग ८ किमी या ५ मील प्रति सेकेंड के वेग से परिक्रमा करने लगा जिससे पूरी एक परिक्रमा में इसे ९६.२ मिनट लगे। इसके द्वारा भेजे गए रेडियो संकेत पृथ्वी के विभिन्न स्थानों पर सुने गए। ५८ दिन तक यह घूमता रहा। तत्पश्चात् बैटरी कमजोर होने के कारण वेग घटना शुरू हो गया और ४ जनवरी, १९५८ को वह जलकर भस्म हो गया। रूसी भाषा के 'साथी' का समकक्ष शब्द स्पुतनिक की चर्चा सर्वत्र होने लगी और स्पुतनिक युग का आरंभ हुआ। एक महीने बाद नवंबर, १९५७ में एक जीवित कुतिया लाइका को बैठाकर स्पुतनिक-२ छोड़ा गया। लगभग एक सप्ताह तक कुतिया की शारीरिक क्रियाओं की रेडियों द्वारा सूचना प्राप्त होती रही, उसके पश्चात् कुतिया मर गई।
अमरीका ने अपना पहला उपग्रह एक्सप्लोरर-१, ३१ जनवरी, १९५८ को छोड़ा। इसके बाद ७ अक्टूबर, १९५९ को रूसी अंतरिक्ष यान लूनिक-३ चंद्रमा के पीछे से गुजरा और उसमें चंद्रमा के पीछे के भाग के फोटो लेकर पृथ्वी पर भेज दिए। कुछ अंतरिक्ष यान पृथ्वी से लाखों मील दूर सूर्य की परिक्रमा करने के लिए भी प्रेषित किए गए हैं।
१२ अप्रैल, १९६१ को रूसी उड़ाके मेजर यूरी गागारिन ने अपने अंतरिक्षयान बोस्तोक-१ में पहली अंतरिक्षयात्रा की। इस प्रकार प्रथम मानव को अंतरिक्ष में भेजने तथा सकुशल वापस बुलाने में सोवियत रूस सफल हो गया। इस वर्ष ५ मई, १९६१ को अमरीकी अंतरिक्ष यात्री एलन बी. शेपर्ड ने उपकक्षा में १५ मिनट परिक्रमा की ओर वह सकुशल अंतरिक्ष में उतर गया।
मर्करी योजना के अंतर्गत ग्लेन ने अपनी अंतरिक्षयात्रा से सिद्ध कर दिया कि (क) ट्यूब में भरा हुआ खाना पायलट बिना किसी कठिनाई के खा सकता है, (ख) पायलट अपने हाथ से यान का नियंत्रण कर सकती है और (ग) भारहीनता की दशा में वह अच्छी तरह कार्य कर सकता है।
१४ जून, १९६३ को रूस के कर्नल बाइकोवस्की ने पाँच दिन तक लंबी अंतरिक्षयात्रा की और रूस की कुमारी तरस्कोवा ने तीन दिन तक पृथ्वी की परिक्रमा की।
१२ अक्टूबर, १९६४ को रूसी यान बोस्खोद में एक साथ तीन व्यक्तियों ने २४ घंटे तक पृथ्वी की परिक्रमा की। ये सभी यात्री उड़ानों के बाद सकुशल पृथ्वी पर वापस आ गए। इनमें से कुछ यात्री अपने यान से बाहर निकलकर थोड़ी देर तक अंतरिक्ष में तैरते रहे, और फिर यान में आकर बैठ गए।
१९६७ के आरंभ में सोवियत रूस का लूना - १३ चंद्रमा पर बगैर झटका के उतरा। उनसे प्राप्त सूचनाओं के आधार पर चंद्रमा की सतह कठोर है और मानव उस पर उतर सकता है।
२० अप्रैल, १९६७ को ६५ घंटे की यात्रा के बाद अमरीकी सर्वेयर-३, चंद्रमा पर बिना झटका के उतरा।
अमरीका के अपोलो-११ की उड़ान के पहले रूसी ल्यूना-१५ की उड़ान के संदर्भ में सोवियत संघ ने सोयुज-४, सोयुज-५ को जोड़ा।
चंद्रयान और इसे छोड़नेवाले राकेट में ५६ लाख पुर्जे थे, अनगित कंप्यूटर उड़ान की हर क्षण निगरानी कर रहे थे, पाँच हार से अधिक लोगें ने पुर्जों की जाँच पड़ताल की थी, २४०० करोड़ डालर की लागत तथा लाखों घंटों का हजारों मस्तिष्कों का चिंतन और परिश्रम-मनुष्य के ज्ञान, साधन, शक्ति और कर्म का अपूर्व संयोजन था।
अंतरिक्ष संधि - २७ जनवरी, ६७ को संयुक्त राज्य अमरीका, सोवियत संघ और ब्रिटेन ने बाह्य अंतरिक्ष में आणविक शास्त्रास्त्र को निषिद्ध घोषित करनेवाले समझौते पर हस्ताक्षर किए। दिसंबर, १९६६ में संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा द्वारा अनुमोदित संधि की शर्तों के अनुसार 'बाह्य अंतरिक्ष' पर किसी भी देश की प्रभुसत्ता नहीं है और सभी देशों को अंतरिक्ष अनुसंधान की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है। इस संधि पर हस्ताक्षर करनेवाले सभी देश बाह्य अंतरिक्ष का केवल शांतिमय उपयोग के लिए प्रयोग कर सकते हैं और चाँद तथा दूसरे ग्रहों पर किसी भी तरह के सैनिक केंद्रों की स्थापना निषिद्ध है। चाँद तथा दूसरे ग्रहों पर किसी भी तरह के प्रतिष्ठान स्थापित करनेवाले देश समुचित समय की सूचना के बाद, दूसरे देशों को उनका निरीक्षण करने देंगे।
१९६३ की आंशिक आणविक परीक्षण निषेध संधि के बाद की इस दूसरी निर्णायक संधि की शर्तों के अनुसार अंतरिक्ष में आणविक शास्त्रास्त्र और सामूहिक विनाश के दूसरे साधनों से सुसज्जित उपग्रहों, अंतरिक्षयानों आदि के छोड़ने पर प्रतिबंध है, यह संधि इस बात की भी व्यवस्था करती है कि त्रुटिवश किसी दूसरे देश के सीमाक्षेत्र में उतर जानेवाले अंतरिक्षयात्री उनके देश को सौंप दिए जाएँगें।
जेमिनी योजना - इस योजना में दो अंतरिक्षयात्री एक यान में जाकर दो अंतरिक्षयानों को अंतरिक्ष में मिलाने का यांत्रिक विकास तथा एक सप्ताह तक उड़ान करके अनेक वैज्ञानिक अनुसंधान करेंगे। इसमें मानवरहित एगिना बी राकेट, एटलस बूस्टर की सहायता से छोड़ने की योजना है। निर्धारित समय पर पृथ्वी से छोड़ा गया जेमिनी यान एगिना बी से जाकर मिल जाएगा।
अपोलो योजना, चाँद पर मानव चरण और वहाँ जय ध्वजोत्तोलन-
चाँद पृथ्वी से २ करोड़ ३० लाख मील दूर एक वर्तुलाकार गोला है, जिसका व्यास २१६० मील है। इसका वजन पृथ्वी से ८१ गुना कम है तथा गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का १/६ है। वहाँ पृथ्वी की तरह वातावरण, पानी और प्राणवायु नहीं है। वहाँ N2, S, P एवं CO2 है। चंद्रमा रात को अति शीतल और दिन को अति उष्ण रहता है।
१६ जुलाई, १९६९ को चंद्रमा की यात्रा का स्वप्न साकार करने के लिए अमरीका के केप केनडी चंद्रकेंद्र से नील आर्मस्ट्रांग, एडविन एल्ड्रिन और मइकल कालिंस ने ८ लाख किमी की साहसिक खतरनाक यात्रा का श्रीगणेश किया।
१०९ मीटर या ३६३ फुट ऊँचे सैटर्न-५ प्रक्षेपक के सबसे ऊपरी हिस्से पर लगे यान अपोलो ११ में ये तीनों साहसी यात्री बैठे थे। यान में उड़ान की दिशा, गति, स्थिति तथा विभिन्न केंद्रों से दूरियाँ ज्ञात करने के यंत्र लगे थे प्रक्षेपण के २ घंटे ४४ मिनट बाद रात्रि ९ बजकर ४६ मिनट पर तीनों यात्रियों ने पृथ्वी की कक्षा को छोड़कर अपने गंतव्य स्थल की ओर प्रयाण किया। लगातार ७३ घंटे की यात्रा के पश्चात् चाँद पर पहुंचना था। सैटर्ज प्रक्षेपक के तीसरे खंड के विलग होने के कुछ देर (३१ मिनट) बाद 'कमान कक्ष' से चंद्रकक्ष के उलटकर जुड़ने की प्रक्रिया पूर्ण हुई। किंतु उसके आगे रूस का मानवरहित यान ल्यूना-१५ उड़ रहा था, १७ जुलाई का ल्यूना-१५ चंद्रमा के पास पहुँच गया।
२१ जुलाई की रात्रि १ बजकर ४७ मिनट पर आर्मस्ट्रांग की आवाज चंद्रमा से आई 'The Eagle has landed' (गरुड़ चंद्र पर उतर गया है)। आकाश की समस्त अजेय दुर्गम ऊँचाइयों को लाँघकर इंसान के कदम चाँद पर पहुँच गए। इस साहसपूर्ण सफलता से पूरे विश्व का सिर ऊँचा उठ गया, और मानव गौरव तथा गर्व का अनुभव करने लगा। पहरेदार कालिस १११ किमी की ऊँचाई पर उड़ान भर रहा था। भोजन और आराम के बाद दोनों ने चंद्र मिट्टी के नमूने एकत्र करना प्रारंभ किया। एल्ड्रिन ने सूचना पृथ्वी पर भेजी की पत्थर पाउडर भरे हैं तथा चट्टानें फिसलने वाली हैं।
योजनानुसार नील आर्मस्ट्रांग ने उस पट्ट का अनावरण किया जिसमें लिखा है - यहाँ पृथ्वी के इंसान ने जुलाई, १९६९ में पहली बार अपने कदम रखे, हम यहाँ समस्त मानवता की शांति के लिए आए। यात्रियों ने राष्ट्रसंघ का झँडा (जिसमें भारतीय तिरंगा भी था) फहराया - राष्ट्रपति निक्सन ने टेलीफोन पर चंद्रयात्रियों से बात कर कहा 'दुनियाँ के इतिहास में, इस अभूतपूर्व अनमोल घड़ी में सब एक हो गए हैं, सबको आपकी विजय पर गर्व है'।
एल्ड्रिन एक घंटे ५४ मिनट तक चंद्रतल पर रहा। २ घंटे ५५ मिनट तक चंद्र सतह पर विचरण करके आर्मस्ट्रांग 'गरुड़' यान में वापस लौटा।
मकड़ा चंद्र कक्ष २२ फुट ऊँचा है तथा उसकी परिधि ३१ फुट है। वह अपोलो ९ तथा १० में प्रयोग किया जा चुका है। इन दोनों यात्राओं में कमान कक्ष से अलग होकर कुछ समय बाद यह चंद्रकक्ष सफलता के साथ पुन: जुड़ गया था। करोड़ों रुपए की लागत से बने इसमें दो हिस्से हैं - ऊपरी और निचला। ऊपरी हिस्सा यात्रियों के बैठने के लिए है, निचले हिस्से में ४ पैर है, वे धीरे से चाँद पर कक्ष को उतार देंगे। नीचे एक स्वचालित टेलीविजन यंत्र लगा रहता है। चंद्रयात्रियों के वस्त्र ८२-८२ किग्रा के होते हैं किंतु चंद्रमा पर उन्हें १४ किग्रा के बराबर ही अनुभव होगा।
चाँद से वापसी - २१ जुलाई, ६९ की रात्रि ११ बजकर २३ मिनट पर गरुड़ (ईगल) के दोनों यात्रियों ने चाँद से रवाना होने का निश्चय किया। चाँद के चक्कर लगा रहे 'कोलंबिया' यानी कमानकक्ष से मिलना ३ घंटे बाद हुआ। भोर में ३ बजकर ५ मिनट पर ईगल ने कोलंबिया को पकड़ा। २२ जुलाई को ११ बजकर २३ मिनट पर यान उस काल्पनिक रेखा को पार कर गया जहाँ पृथ्वी और चाँद की गुरुत्वाकर्षण शक्ति, बराबर है। यान की गति ४३८२ किमी से ४०,००० किमी प्रति घंटे हो गई। यात्रियों के पास अनमोल मिट्टी के नमूने थे। पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश तथा प्रशांत महासागर में सफल अवतरण के लिए यान को ३६,१९४ फुट से. का वेग चाहिए था किंतु मौसम की खराबी के कारण निर्धारित स्थान से ४०० किमी दूर तीनों यात्री २४ जुलाई को रात १० बजकर २० मिनट पर उतर गए।
अपोलो ११ का कमानकक्ष उल्टा गिरा, किंतु थोड़ी देर बाद सीधा कर दिया गया। यात्री जलपोत हार्नेंट तथा हैलीकोप्टरों की सहायता से आगे बढ़े। अमरीकी राष्ट्रपति ने उनका स्वागत किया परंतु यात्रियों ने विशेष कक्ष से स्वागत का उत्तर दिया जहाँ उन्हें तीन सप्ताह के लिए पृथ्वी के बाह्य संपर्क से दूर वैज्ञानिक जाँच के लिए रखना था।
२६ अक्टूबर को दोहपहर २ बजकर ४५ मिनट पर चंद्रविजेताओं का स्वागत भारत (बंबई) में किया गया।
अपोलो-१२, प्रक्षेपण - १४ नवंबर।
चाँद पर - १९ नवंबर को चंद्रमा के पश्चिम गोलार्ध में तूफानों के महासागर में कोनराड तथा बीन वहाँ उतरे जहाँ ३१ महीना पहले १९ अप्रैल, ६७ को सर्वेयर-३ नामक अमानव अमरीकी चंद्रयान उतरा था। वह ६ मीटर गहरे एक गढ़े के भीतर पड़ा हुआ था।
धरती पर - २४ नवंबर (प्रशांत महासागर) को अपोलो १२ के अंतरिक्ष यात्री चार्ल्स कोनाराड, रिचार्ड गोर्डन, एलन बीनश् शेपर्ड लौटे।
इस बार चंद्रयात्रियों ने कमान और सेवाकक्ष का नाम यांकी क्लियर (१८वीं शताब्दी के मध्य तेज भागनेवाले व्यापारिक जलपोत) तथा चंद्रकक्ष का नाम इंटरपिड (अमरीकी नौसैनिक जलपोत, जिसके सहारे आजादी की लड़ाई अमरीका ने लड़ी) रखा। १७ नवंबर को तीनों यात्रियों द्वारा चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश तथा १९ नवंबर को कोनराड तथा बोन का चंद्रमा पर अवतरण।
अपोलो-१२ की यात्रा के लक्ष्यों में दो महत्वपूर्ण हैं - चंद्रमा के मौसम का अध्ययन करने के लिए ५ यंत्रों को चंद्रतल पर स्थापित करना तथा चंद्रतल की मिट्टी और पत्थर इकट्ठे करना।
अपोलो-११ के चंद्रयात्री २२ किग्रा. मिट्टी ले आए थे। अपोलो १२ के यात्री ५० किग्रा से अधिक वजन के पत्थर, रेत और धूल का खजाना ले आए हैं। परीक्षण से पता चला है कि चंद्रमा और पृथ्वी समवयस्क हैं। अब कवियों को अपने उपमान और वैज्ञानिकों को अपने विचार चंद्रमा के विषय में बदलने पड़ रहे हैं।
चंद्रमा के मुख का काला कलंक पश्चिमी खगोल शास्त्रियों द्वारा सागर (मैर) कहलाता है। वह समतल मैदान है जो पर्वतमालाओं से घिरा है। चंद्रमा की रेतीली भूमि से प्राप्त धूलिकण पिसे हुए कोयले की भाँति तथा राख की तरह धूसर हैं। धूलि तथा शिलाखंडों में काँच की उपस्थिति पाई गई है। ब्रोक्शिया नामक शैलविशेष का परीक्षण अभी हो रहा है। पता चला है, पृथ्वी की ही तरह चंद्रमा की आयु तीन और चार अरब वर्ष के बीच है। ३०० से ५०० मील लंबी दरारें वहाँ हैं। चंद्रमा के मैदान ऊँची-ऊँची पर्वतमालाओं से घिरे हैं। इप्रियम नामक मैदान के तीन ओर पर्वत है। इनके नाम पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने यूरोपीय पर्वतमालाओं के आधार पर कपेथियम, ऐविनाइम, काकेशस, आल्प्स, जुरा रखे हैं। चंद्रमा पर अनेक गतों का पता लगा है जिनमें क्लेनियस (व्यास १४६ मील तथा गहराई लगभग १५००० फुट) सबसे बड़ी है। चाँद पर घाटियाँ भी हैं जो डेढ़ सौ मील तक लंबी तथा ५ मील तक चौड़ी हैं। कुछ सीधी हैं तथा कुछ घुमावदार।
अपोलो-११ द्वारा चंद्रमा से लाए गए पत्थरों के टुकड़ों और धूल के रासायनिक परीक्षण से ज्ञात हुआ है कि चंद्रमा पर किसी भी समय जीव का अस्तित्व नहीं था। अभी भी चाँद के शांत सागर से लाए नमूनों का परीक्षण जारी है।
अपोलो-१२ के यात्री तूफान सागर में उतरे थे, वे लगभग १ मन शैलखंड आदि अपने साथ लाए है। उनका भी परीक्षण चल रहा है। चंद्रमा पर जल तथा वायु का अस्तित्व नहीं है। वहाँ एक ओर चाँद पर स्वर्ण, रजत तथा प्लैटिनम का नितांत अभाव है वहाँ दूसरी ओर चंद्रतल की धूलि एवं शैलखंडां में टाइटैनियम, जर्कोनियम तथा इट्रियम की अधिकता है।
चाँद पर कुछ पट्टियाँ और धारियाँ हैं जिन्हें किरण (प्रकाशीय नहीं) कहते हैं, इनकी उत्पत्ति गर्तों से हुई है।
चाँद के शांत सागर में किरणों की दो धारियाँ हैं-पहली किरणपंक्ति दक्षिण पूर्व में २०० मील दूर थियोसोफिलस गर्त से तथा दूसरी १०० मील दक्षिण पश्चिम में अलफ्रैंग्नस गत से उत्पन्न हुई है।
अमरीका ने १९७२ तक चंद्रमा पर अनुसंधान के लिए और ८ समानव अपोलो मिशन का कार्यक्रम बनाया है। उसने अंतरिक्ष में ओ. ए. ओ.-२ नामक एक ज्योतिषीय प्रयोगशाला स्थापित की है। अभी अनेक ग्रह, उपग्रह, सितारे तथा नक्षत्र ऐसे हैं जहाँ पहुंचने में मानव को कई प्रकाश वर्ष (१ वर्ष में प्रकाश द्वारा चली गई दूरी १,८६,००० मील प्रति सेकंड की दर से) लगेंगे। वह कुछ दूरस्थ ग्रहों पर अपने जीवनकाल में पहुँच पाएगा भी, संदेहास्पद है, लौटने की तो बात ही क्या।
अपोलो-१३ का प्रक्षेपण १२ मार्च, ७० के स्थान पर अब १२ अप्रैल, ७० को होने की संभावना है, यह चंद्रमा के एक पठारी भाग फ्रामीरी में उतरेगा।
अपोलो-१४ जुलाई ७० के स्थान पर अब अक्टूबर में उड़ान भरेगा।
चाँद के अतिरिक्त मंगल और शुक्र पर भी पहुँचने की योजनाएँ कार्यान्वित की जा रही हैं।
५ जनवरी, ७० से ९ जनवरी, ७० तक ह्यूस्टन (टेक्सास) में हुए चांद्र विज्ञान सम्मेलन में वैज्ञानिकों ने कहा है कि चंद्रधूलि पृथ्वी से एक अरब वर्ष अधिक प्राचीन है। इसका यह अर्थ नहीं कि चंद्रमा अधिक प्राचीन है क्योंकि १ अरब वर्षों का पृथ्वी का इतिहास महाप्रलय के कारण वैज्ञानिकों को उपलब्ध नहीं है। पृथ्वी की अवस्था उन्होंने ४ अरब ५५ करोड़ वर्ष आँकी है। कैलीफोर्निया इंस्टिट्यूट ऑव टेक्नालाजी के वैज्ञानिकों का कहना है कि चंद्रमा के पृथ्वी का टुकड़ा होने का सिद्धांत गलत है। उनका मत है कि ३ अरब ६५ करोड़ वर्ष पूर्व चंद्रमा पिघला हुआ था। नमूने के ९० दिन के अध्ययन के ये कुछ परिणाम हैं। अब तक अपोलो-११ द्वारा लाए गए नमूनों के १/३ अंश का अध्ययन किया गया है। वहाँ की मिट्टी और शिलाखंड आठ देशों के १४२ वैज्ञानिक दलों के पास अध्ययनार्थ भेजे गए हैं। सम्मेलन में पढ़े गए निबंधों में बताया गया की चंद्रमा पर न तो जीव है, न जल है और संभवत: वे वहाँ कभी थे ही नही। इंग्लैंड के कैंब्रिज विश्वविद्यालय के डा. एस. ओ. एंग्रेल ने कहा - चंद्रयात्री आर्मस्ट्रांग तथा एल्ड्रिन चंद्रतल के शांत सागर के एक छोटे से क्षेत्र से ही शिलाखंड लाए थे परंतु उनमें अन्य क्षेत्रों के तत्व भी विद्यमान हैं, जो उल्काओं के आघात के कारण उड़कर शांत सागर की सतह पर पहुँच गए होंगे।
सम्मेलन में लगभग १००० वैज्ञानिकों ने भाग लिया। नोबेल पुरस्कार विजेता डाक्टर हेराल्ड इरे ने कहा - अपोलो द्वारा प्राप्त जानकारियों से चंद्रमा की उत्पत्ति, उसकी उम्र, पहाड़ियों तथा गह्वरों के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती, सिवाय इसके कि वहाँ किसी प्रकार के जीवन का अस्तित्व न था और न है। अधिकांश वैज्ञानिक इस बात पर सहमत थे कि चंद्रमा पर जल होने का कोई संकेत नहीं मिलता और न कभी वहाँ जल था। चंद्रमा के अंदरुनी हिस्से की बनावट के बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं है। इस प्रकार चंद्रमा अब भी एक रहस्य ही बना हुआ है। (कैलाशनाथ सिंह.)