होमियोपैथी एक चिकित्सा पद्धति है जिसके प्रवर्तक फ्रीडखि सैमुएल हानेमान थे। इनका जन्म एक दरिद्र परिवार में १० अप्रैल, १७५५ ई. को जर्मनी के माइसेन नगर में हुआ था। इनके पिता मिट्टी के बर्तनों पर चित्रकारी का व्यवसाय करते थे। इनका बाल्यकाल आर्थिक कठिनाइयों में बीता। इन्होंने यूनानी, हिब्रू, अरबी, लैटिन, इतालवी, स्पेनी, फारसी तथा जर्मन भाषाओं के साथ ही रसायन और चिकित्साविज्ञान का भी गहन अध्ययन किया। २४ वर्ष की उम्र में एम. डी. परीक्षा उत्तीर्णकर कुछ समय ड्रेज़डेन अस्पताल में प्रधान शल्य चिकित्सक रहने के बाद लाइपसिग के निकटस्थ एक गाँव में निजी तौर पर चिकित्साकार्य प्रारंभ किया। १० वर्षों तक ख्याति और धनार्जन करने के बाद रोगियों पर एलोपैथी दवाओं के कुप्रभाव को देखकर इन्होंने चिकित्सा करना छोड़ दिया और रसायन का अध्ययन तथा विज्ञान की पुस्तकों का अनुवाद करना प्रारंभ किया। १७९० ई. में डब्ल्यू. क्यूलेन (We Cullen) की औषधविवरणी (Materia Medica) का जर्मन भाषा में अनुवाद करते समय इनके मस्तिष्क में होमियोपैथी पद्धति का सूत्रपात्र हुआ। स्काच लेखक की सिनकोना (Cinchona) के ज्वरहारी गुणों की व्याख्या से असंतुष्ट होकर इन्होंने अपने ऊपर सिनकोना के कई प्रयोग किए। इससे उनके शरीर में एक प्रकार की मलेरिया के लक्षण उत्पन्न हो गए। जब जब उन्होंने दवा की खूराक ली, बीमारी का दौरा पड़ा। इससे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि रोग उन्हीं दवाओं से शीघ्रतम प्रभावशाली और निरापद रूप से ठीक होते हैं जिनमें उस रोग के लक्षणों को उत्पन्न करने की क्षमता होती है। चिकित्सा के समरूपता के सिंद्धातानुसार औषधियाँ उन रोगों से मिलते जुलते रोग दूर कर सकती हैं, जिन्हें वे उत्पन्न कर सकती हैं। औषधि की रोगहर शक्ति जिससे उत्पन्न हो सकने वाले लक्षणों पर निर्भर है। जिन्हें रोग के लक्षणों के समान किंतु उनसे प्रबल होना चाहिए। अत: रोग अत्यंत निश्चयपूर्वक, जड़ से, अविलंब और सदा के लिए नष्ट और समाप्त उसी औषधि से हो सकता है जो मानव शरीर में, रोग के लक्षणों से प्रबल और लक्षणों से अत्यंत मिलते जुलते सभी लक्षण उत्पन्न कर सके।

इनके द्वारा प्रवर्तित होमियोपैथी का मूल सिद्धांत है सिमिलिया सिमिविबस क्यूरेंटर (Similia Similibus Curanter) अर्थात् रोग उन्हीं औषधियों से निरापद रूप से, शीघ्रातिशीघ्र और अत्यंत प्रभावशाली रूप से निरोग होते हैं, जो रोगी के रोगलक्षणों से मिलते जुलते लक्षण उत्पन्न करने में सक्षम हैं।

होमियोपैथी दवाएँ टिंचर (tincture), संपेषण (trituration) तथा गोलियों के रूप में होती है और कुछ ईथर या ग्लिसरीन में धुली होती हैं, जैसे सर्पविष। टिंचर मुख्यतया पशु तथा वनस्पति जगत् से व्युत्पन्न हैं। इन्हें विशिष्ट रस, मातृ टिंचर या मैटिक्स टिंचर कहते हैं और इनका प्रतीक ग्रीक अक्षर थीटा (q ) है। मैट्रिक्स टिंचर तथा संपेषण से विभिन्न सामर्थ्यों (potencies) को तैयार करने की विधियाँ समान हैं।

टिंचर में विभिन्न तनुताओं (dilutions) या भिन्न भिन्न सामर्थ्य की ओषधियाँ तैयार की जाती हैं। तनुता के मापक्रम में हम ज्यों ज्यों ऊपर बढ़ते हैं, त्यों त्यों अपरिष्कृत पदार्थ से दूर हटते जाते हैं यही कारण है कि होमियोपैथी विधि से निर्मित औषधियाँ विषहीन एवं अहानिकारक होती हैं। इन औषधियों में आश्चर्यजनक प्रभावशाली औषधीय गुण होता है। ये रोगनाशन में प्रबल और शरीर गठन के प्रति निष्क्रिय होता हैं।

गंधक, पारा, संखिया, जस्ता, टिन, बेराइटा, सोना, चाँदी, लोहा, चूना, ताँबा, तथा टेल्यूरियम इत्यादि तत्वों तथा अन्य बहुत से पदार्थों से औषधियाँ बनाई गई हैं। तत्वों के यौगिकों से भी औषधियाँ बनी हैं। होमियोपैथी औषधविवरणी में २६० से २७० तक ओषधियों का वर्णन किया गया है। इनमें से अधिकांश का स्वास्थ्य नर, नारी या बच्चों पर परीक्षण पर रोगोत्पादक गुण निश्चित किए गए हैं। शेष दवाओं को विवरणी में अनुभवसिद्ध होने के नाते स्थान दिया गया है।

इस चिकित्सा पद्धति का महत्वपूर्ण पक्ष औषधि सामर्थ्य है। प्रारंभ में हावेमान उच्च सामर्थ्य (२००,१००००) की औषधि प्रयुक्त करते थे, किंतु अनुभव से इन्होंने निम्नसामर्थ्य (1X, 3X, 6X, 12X या ६,१२,३०) की औषधि का प्रयोग प्रभावकारी पाया। आज भी दो विचारधारा के चिकित्सक हैं। एक तो उच्च सामर्थ्य की औषधियों का प्रयोग करते हैं और दूसरे निम्न सामर्थ्य की औषधियों का। अब होमियोपैथिक औषधियों के इंजेक्शन भी बन गए हैं और इनका व्यवहार भी बढ़ रहा है।

हानेमान ने अनुभव के आधार पर एक बार में केवल एक औषधि का विधान निश्चित किया था, किंतु अब इस मत में भी पर्याप्त परिवर्तन हो गया है। आधुनिक चिकित्सकों में से कुछ तो हानेमान के बताए मार्ग पर चल रहे हैं और कुछ लोगों ने अपना स्वतंत्र मार्ग निश्चित किया है और एक बार में दो, तीन औषधियों का प्रयोग करते हैं।

होमियोपैथी पद्धति में चिकित्सक का मुख्य कार्य रोगी द्वारा बताए गए जीवन इतिहास एवं रोगलक्षणों को सुनकर उसी प्रकार के लक्षणों को उत्पन्न करनेवाली औषधि का चुनाव करना है। रोग लक्षण एवं औषधि लक्षण में जितनी ही अधिक समानता होगी रोगी के स्वस्थ होने की संभावना भी उतनी ही अधिक रहती है। चिकित्सक का अनुभव उसका सबसे बड़ा सहायक होता है। पुराने और कठिन रोग की चिकित्सा के लिए रोगी और चिकित्सक दोनों के लिए धैर्य की आवश्यकता होती है। कुछ होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति के समर्थकों का मत है कि रोग का कारण शरीर में शोराविष की वृद्धि है।

होमियोपैथी चिकित्सकों की धारणा है कि प्रत्येक जीवित प्राणी हमें इंद्रियों के क्रियाशील आदर्श (�functional norm) को बनाए रखने की प्रवृत्ति होती है औरे जब यह क्रियाशील आदर्श विकृत होता है, तब प्राणी में इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए अनेक प्रतिक्रियाएँ होती हैं। प्राणी को औषधि द्वारा केवल उसके प्रयास में सहायता मिलती है। औषधि अल्प मात्रा में देनी चाहिए, क्योंकि बीमारी में रोगी अतिसंवेगी होता है। औषधि की अल्प मात्रा न्यूनतम प्रभावकारी होती है जिससे केवल एक ही प्रभाव प्रकट होता है। रुग्णावस्था में ऊतकों की रूपांतरित संग्राहकता के कारण यह एकावस्था (monophasic) प्रभाव स्वास्थ्य के पुन: स्थापन में विनियमित हो जाता है। (हे. कु. ब.)