हेस्टिंग्ज़, वारेन (१७३२-१८१८) वारेन हेस्टिंग्ज़ सन् १७५० में ईस्ट इंडिया कंपनी में लेखक नियुक्त होकर कलकत्ता पहुँचा। सिराजुद्दौला से कलकत्ता वापस लेने तथा संधि करने में उसने क्लाइव को सहायता दी। मीरजाफर के शासनकाल में वह मुर्शिदाबाद में सहायक रेजीडेंट रहा। तत्पश्चात् वह पटना की फैक्ट्री में प्रधान नियुक्त हुआ। १७६२ में वह कलकत्ता कौंसिल का सदस्य बना। उसी वर्ष उसने मीरकासिम के साथ व्यापारिक समझौता किया और मुंगेर की संधि करने में वैंसिटर्ट को सहायता दी। बंगाल की लूट में उसका हाथ न था। १७६३ में वह इस्तीफा देकर इंग्लैंड चला गया।

१७६९ में वारेन हेस्टिंग्ज़ मद्रास कौंसिल का सदस्य नियुक्त हुआ। १७७२ में वह बंगाल का गवर्नर बना। दो वर्ष में उसने वहाँ के शासन के लिए अनेक कार्य किए, यथा द्वैंध शासन का अंत करना; कलकत्ते को राजधानी बनाना; पुलिस व्यवस्था को संगठित करना; डाकुओं, लुटेरों तथा आक्रमणकारी सन्यासियों को दबाना; राजस्व बढ़ाना; व्यापार की वृद्धि करना; नमक तथा अफीम के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करना; सीमांत राज्यों के साथ व्यापारिक संबंध कायम करना; जिले को शासन की इकाई बनाना; प्रत्येक जिले में एक अंग्रेज कलेक्टर नियुक्त करना और मालगुजारी, न्याय और शासन उसके जिम्मे करना; माल के मामलों के लिए कलेक्टरों के ऊपर कमिशनर तथा उनके ऊपर कलकत्ते में राजस्व बोर्ड रखना; न्याय के लिए कलेक्टरों के ऊपर सदर दीवानी और सदर निज़ामत अदालतें खोलना, देशी कानूनों का संग्रह करवाना; कर्मचारियों के भ्रष्टाचार को बंद करना तथा उनके व्यापार करने, भूमि रखने, घूस या इनाम लेने पर रोक लगाना। सम्राट् शाहआलम की पेंशन बंद करके, कड़ा और इलाहाबाद को अवध के नवाब के हाथ बेचकर, बंगाल के नवाब की पेंशन आधी करके तथा रुहेलों के विरुद्ध अवध को सहायता देकर वारेन हेस्टिंग्ज़ ने कंपनी की आय बढ़ाई। इन कार्यों के लिए उसकी कटु आलोचना हुई।

१७७४ में वारेन हेस्टिंग्ज़ बंगाल का गवर्नर जनरल नियुक्त हुआ। ग्यारह वर्ष तक वह उस पद पर रहा। रेग्युलेटिंग ऐक्ट की त्रुटियों के कारण उसे अनेक कठिनाइयाँ उठानी पड़ीं। कौंसिल के तीन सदस्य विरोधी हो गए। दो वर्ष तक वह निर्णायक मत का प्रयोग न कर सका। १७८० में उसे फ्रैंसिस से द्वंद्वयुद्ध करना पड़ा। इंग्लैंड वापस जाकर फ्रैंसिस ने उसके विरुद्ध घोर प्रचार किया। प्रेसिडेंसियों ने बंगाल के आधिपत्य की अवहेलना की। उनके कार्यों के कारण प्रथम आंग्ल मराठा तथा द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध हुए। सर्वोच्च न्यायालय तथा कंपनी के न्यायालयों में झगड़े होने लगे, जिन्हें वारेन हेस्टिंग्ज़ ने सर एलिजह इंपे को सदर दीवानी अदालत का प्रधान बनाकर मिटाया।

वैदेशिक मामलों में वारेन हेस्टिंग्ज़ ने कूटनीति का परिचय दिया। फ्रांस के साथ युद्ध छिड़ जाने पर उसने चंद्रनगर, पांडीचेरी और माही पर अधिकार कर लिया। आंग्ल मराठा युद्ध में उसने भोंसले को तटस्थ रखा, गायकवाड़ को मित्र बनाया, निज़ाम को मराठों से अलग किया तथा ग्वालियर पर अधिकार कर सिंधिया को संधि करने के लिए बाध्य किया और उसकी सहायता से सालबाई की संधि की जिससे मराठों से मित्रता हो गई और मैसूर मराठा गठबंधन टूट गया। मैसूर युद्ध में वारेन हेस्टिंग्ज़ ने हैदर अली को कहीं से सहायता न पहुँचने दी। फिर भी अंग्रेजो की बड़ी हानि हुई। अंत में हैदर अली की मृत्यु के पश्चात् मंगलोर की संधि द्वारा उसने टीपू से मित्रता कर ली, जिससे खोए हुए प्रदेश तथा कैदी वापस मिले। वारेन हेस्टिंग्ज़ ने अवध को संधियों से जकड़कर अंतराल राज्य बनाया। उसने भूटान आसाम के साथ मैत्रीभाव बढ़ाया, कूचबिहार को आश्रित बनाया तथा तिब्बत से संपर्क स्थापित करने के लिए बोगल और टर्नर को भेजा। ऐसी स्थिति में बाह्य आक्रमणों तथा आंतरिक विद्रोहों से बंगाल को कोई भय न रहा। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ जम गई।

अपना कार्य बनाने के लिए वारेन हेस्टिंग्ज़ ने उचित और अनुचित का विचार न किया। युद्धों के समय धनाभाव के कारण उसने राजा चेतसिंह को गद्दी से हटा दिया, बनारस पर अधिकार कर लिया और उसके उत्तराधिकारी से चालीस लाख रुपए प्रतिवर्ष लिए; फैजाबाद की बेगमों से जागीरें तथा खजाना छीनने के लिए आसफउद्दौला को सैनिक सहायता दी; तथा विरोधी नंकुमार पर जालसाजी का मुकदमा चलवाकर उसे फाँसी दिला दी। इन अनुचित कार्यों के लिए उसकी बहुत निंदा हुई।

सांस्कृतिक क्षेत्र में हेस्टिंग्ज़ ने कलकत्ते में मुस्लिम मदरसा खोला। सर विलियम जोन्स से बंगाल में एशियाटिक सोसायटी कायम कराई तथा कई अंग्रेज विद्वानों को भारतीय कानून की पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद करने के लिए प्रोत्साहित किया।

१७८५ में वारेन हेस्टिंग्ज़ इंग्लैंड वापस गया। वहाँ उसके विरुद्ध, भारत में उसके अनुचित कार्यों को लेकर, सात वर्ष तक पार्लियामेंट में मुकदमा चला, जिससे वह निर्धन हो गया। अंत में उसे सभी अभियोगों से मुक्ति मिल गई। कंपनी ने उसे ४००० पौंड वार्षिक पेंशन तथा ५०,००० पौंड कर्ज दिया। १८१८ में उसका देहांत हो गया। (हीरा लाल गुप्त)